जब अन्नदाता को ही अन्न न मिले तो समझा जा सकता है कि उस देश की विकास यात्रा किस दिशा में जाएगीं . आज हमारा देश विकासशील से विकशित राष्ट्र बनने की तरफ तेजी से कदम बढ़ा रहा है.अतः इन परिस्थितियों में किसान आत्महत्या एक बहुत ही शर्मसार करने वाली घटना है .भारत की अर्थव्यवस्था पूरी तरह कृषि पर निर्भर है और कृषि सिचाई पर .इस आधुनिक युग में भी भारत की सिचाई व्यवस्था पूरी तरह से वर्षा यानीं बरसात पर निर्भर है . आये दिन बेमौसम बरसात व सूखे की स्थिति ने किसानों को जीवन व मौत के दोराहे पर ला खड़ा कर दिया है .ये बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण विषय है कि आज भी किसान वही खड़े हैं जहाँ पर आज से 67 वर्षों पहले थे . हमारे 67 सालों से अनवरत जारी विकास यात्रा का ये हस्र समझ से परे है . अगर सबसे ज्यादा विकास जरुरी है तो ओ क्षेत्र है कृषि .हरित क्रांति व श्वेत क्रांति की सफलता के बाद भी अगर किसानो की माली हालात ख़राब है तो उसका सबसे प्रमुख कारण बेमौसम बरसात व सुखा है . ये दोनों ऐसी समस्या है जिसका हल आज तक हम नहीं ढूढ़ पाये है .हरित क्रांति ने जहाँ किसानो को उत्तम बीज व आधुनिक कृषि संयंत्र उपलब्ध कराये तो वहीँ श्वेत क्रांति ने किसानों को पशु धन के रूप में आत्मनिर्भर किया .इससे किसानों की अर्थव्यवस्था में तो मजबूती आई लेकिन बेमौसम बरसात व सूखे ने अर्थव्यवस्था को काफ़ी हद तक प्रभावित किया है . इन दोनों समस्याओं का हाल ढूढें बगैर हम विकसित भारत की परिकल्पना नहीं कर सकते .लाख दावों के बावजूद भी आज हमारें किसान आत्महत्या करने को मजबूर है .सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि आजादी से लेकर आज तक भारतीय राजनीति के केंद्र में किसानों की समस्याओं ने मुख्य भूमिका अदा की है और आज वहीँ किसान आत्महत्या कर रहे है .
जब सन 1967 ई०में उत्तर भारत जबरदस्त सूखे की चपेट में आ गया था तो ये माना जाने लगा था कि आने वाले समय में इस समस्या का हल जरुर ढूढ़ लिया जायेगा .समय , तख़्त और ताज बदलते गए लेकिन नहीं बदली तो केवल किसान की आर्थिक स्थिति .पिछले दिनों फरवरी में असमय बारिस ने किसानों की कमर तोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ा . हद तो तब हो गई जब इससे नुकशान हुई फ़सलो के सर्वेक्षण से लेकर राहत राशि के वितरण तक पूरी प्रक्रिया ही रजनीतिक विद्वेष में फ़स कर रह गई .आज भी कई किसान राहत राशि की बाट देख रहे है .अब मानसून की कम सक्रियता ने किसानों को सूखे के मुंह में ढकेलने में कोई कसर नहीं छोड़ा है .मौसम विभाग के अनुसार इस वर्ष भारत के 15 राज्यों में 15 प्रतिशत या उससे भी कम बारिस हुई है .इस दौरान सबसे कम बारिस महाराष्ट्र के मराठवाड़ा में हुई . जहाँ पर सामान्य से 52 प्रतिशत कम बारिस हुई जबकि मध्य महाराष्ट्र में 43 प्रतिशत , पूर्वी उत्तर प्रदेश में 39 प्रतिशत ,पश्चिम उत्तर प्रदेश में 37 प्रतिशत ,उत्तर कर्नाटका में 43 प्रतिशत , पंजाब में 37 प्रतिशत व बिहार में 22 प्रतिशत ही बारिश हुई है .ये सभी क्षेत्र भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते है .अभी फरवरी में ही इनमें से कुछ क्षेत्रों को छोड़कर सभी जगह बेमौसम बरसात ने फसलों को बर्बाद कर दिया था और अब सूखे ने .इन समस्यायों के कारण आये दिन केवल मराठवाड़ा में ही अकेले हर महीने 69 किसान आत्महत्या करने को मजबूर है .ये केवल समस्या मराठवाड़ा की नहीं है अपितु अन्य क्षेत्रों से भी आये दिन ऐसे मामलें आते रहते है .
यह पहला मौका नहीं है जब मराठवाड़ा इस समस्या से जूझ रहा है , पिछले 3 वर्षों से मराठवाड़ा में लगातार सूखा पड़ रहा है .अगर इस क्षेत्र के कृषि योग्य भूमि की भौगोलिक स्थिति पर ध्यान दिया जाय तो 90 प्रतिशत भूमि सिचाई रहित है अर्थात 10 प्रतिशत ही ऐसी भूमि है जिसमें सिचाई होती है और इस सिंचित भू – भाग के 50 प्रतिशत हिस्से पर गन्ने की खेती होती है .गन्ने की खेती के लिये दो तत्व अहम होते है ,पहला पानी व दूसरा मजदूर .इन दो के बगैर गन्ने की खेती नामुमकिन ही नहीं असंभव है .आज तक सरकार ने इस समस्या की तरफ ध्यान ही नहीं दिया है .इस क्षेत्र में गन्ने की खेती केवल बड़े किसान ही करते है जबकि छोटे किसान कपास व मोसम्मी की खेती करते है जो एक बार फिर सूखे की भेट चढ़ गई है .अतः इस समस्या के कारण छोटे किसान बड़े किसानों अर्थात गन्ने की खेती करने वाले किसानों के मजदूर बन कर रह गए है .सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि इन क्षेत्रों में पीने योग्य पानी के वितरण में भी राजनीति हाबी है .जब 2014 में महाराष्ट्र में बिधानसभा चुनाव हुआ तो भारतीय जनता पार्टी को मराठवाड़ा में जबरदस्त सफलता मिली और राज्य में भाजपा की सरकार भी बन गई लेकिन एक बार फिर जब सूखे की मार इस क्षेत्र के किसानों पर पड़ी तो नतीजा सिफ़र ही रहा .एक तरफ किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं तो वहीँ रजनीतिक पार्टियाँ अपनी –अपनी रजनीतिक रोटी सकने में लगी है .हद तो तब हो गई जब इस मुद्दे पर उन लोगो ने भी बयानबाजी करना शुरू कर दिया है जो विगत 15 सालों से महाराष्ट्र की सत्ता पर काबिज थे .हालाकिं सरकार ने जरुर कुछ हितकारी कदम उठाये है जैसे किसानों के लिये खाद्य सुरक्षा कानून को अनिवार्य कर दिया है और किसानों के बच्चों की 12 वीं तक की फ़ीस माफ़ कर दी है .
ये केवल मराठवाड़ा की समस्या नहीं है अपितु अन्य सूखा ग्रस्त किसानों की भी स्थिति यही है .इसी बीच मौजूदा वित्त – वर्ष में केंद्र सरकार ने मनरेगा के लिये जारी राशि में कटौती कर छोटे किसानों के सामने एक और मुसीबत खड़ी कर दी है .इस के चलते आज छोटे किसानों का पलायन शहरों की तरफ काफ़ी तेजी से हो रहा है तथा उद्ध्योग समूहों को कम पैसों में आसानी से मजदूर उपलब्ध हो रहे है .किसानों की इस स्थिति के लिये केवल केंद्र सरकार को जिम्मेदार ठहराना उचित नहीं है .इसके लिये कांग्रेस भी उतनी ही जिम्मेदार है क्योंकि किसानों की दिहाड़ी में लगातार गिरावट दर्ज किया गया . किसानों की दिहाड़ी 2008 -09 में 267 रुपयें थी जो घाट कर 2013-14 में 254 रूपये हो गई .हालाकिं केंद्र सरकार ने इस पर ध्यान देते हुए सूखाग्रस्त इलाकों में मनरेगा के कार्य अवधि में 50 दिनों की बढ़ोत्तरी की है लेकिन आपदा राशि देना व मनरेगा के कार्यों में बढ़ोत्तरी करने से इस समस्या का स्थाई हाल नहीं निकाला जा सकता .इसके लिये सरकार को कोई ठोस कार्ययोजना बनानी होंगी ताकि जय जवान ,जय किसान जैसे नारों को साकार किया जा सके .
नीतेश राय
कृषकों की आत्महत्त्याएं कैसे रुकेगी? नामक आलेख प्रवक्ता में ही निम्न कडि पर मिल जाएगा। टिप्पणी का भी अनुरोध करता हूँ।
https://www.pravakta.com/how-to-stop-farmers-suicide