हमारा संविधान और ब्रिटिश सत्ताधीश

कांग्रेस में गांधीजी का आविर्भाव 1914 ई. से हुआ। 1922 ई. में गांधीजी ने पहली बार कहा कि भारत का राजनैतिक भाग्य भारतीय स्वयं बनाएंगे। कांग्रेस के इतिहास लेखकों ने गांधीजी के इस कथन को संविधान निर्माण की दिशा में उनकी और कांग्रेस की पहली अभिव्यक्ति के रूप में निरूपति किया है। जिसका अभिप्राय है कि गांधीजी ने 1922 ई. में ही स्पष्ट कर दिया था कि भारत चाहे जब स्वतंत्र हो पर उसका संविधान भारतीय स्वयं बनाएंगे, अर्थात अपने राजनैतिक भविष्य और भाग्य का स्वरूप, उसकी रूपरेखा, उसका गंतव्य और मंतव्य चुनने या मानने का हमारा अधिकार अहस्तक्षेपणीय होगा।

इसी तथ्य को हमारी संविधान सभा ने भी स्पष्ट किया था। उसने भी कह दिया था कि हमारा स्वराज्य ब्रिटिश संसद की दी हुई भिक्षा नही होगी। यह भारत की स्वयं की गयी घोषणा होगी। यह सत्य है कि इसे संसद के अधिनियम के अधीन अभिव्यक्त किया जाएगा, किंतु यह भारत के लोगों की इच्छा की घोषणा का विनम्र अनुमोदन मात्र होगा, जैसा कि दक्षिण अफ्रीका के संघ के विषय में किया गया था।

विचारणीय है कि भारत का क्रांतिकारी आंदोलन तो 1922 से भी पूर्व से ही भारत के राजनैतिक भविष्य के निर्धारण  के लिए ब्रिटिश सत्ताधीशों के किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप का विरोधी था। इसलिए 20वीं शती के प्रारंभ से ही ब्रिटिश सत्ताधीशों ने जितने भी अधिनियम भारत में अपना शासन चलाने के लिए बनाये उन सबका विरोध क्रांतिकारी विचारधारा के स्वतंत्रता संग्राम के योद्घाओं की ओर से किया गया। इन अधिनियमों में 1909 का मॉरले-मिण्टो सुधार एवं भारतीय परिषद अधिनियम, 1919 का मोंटेग्यू चेम्सफोर्ड प्रतिवेदन और भारत शासन अधिनियम, 1928 का साइमन कमीशन , 1932 का ब्रिटिश प्रधानमंत्री रामसे मेक्डोनाल्ड का साम्प्रदायिक अधिनिर्णय और 1935 का भारत सरकार अधिनियम सम्मिलित थे। समय के अनुसार कहीं परिस्थितियोंवश तो कहीं अंत:प्रेरणा से कांग्रेस ने भी इन अधिनियमों का समय-समय पर विरोध किया। कुल मिलाकर 20वीं शताब्दी  के प्रारंभ से ही भारत के लोगों में ‘‘अपना संविधान  अपने आप’’ निर्णय करने की भावना का दर्शन प्रबल होता जा रहा था। ‘1935 के भारत सरकार अधिनियम’ का विरोध भारतीयों ने बड़ी प्रबलता से किया। ये सारे विरोध-प्रतिरोध इस बात के संकेत थे कि भारतीय लोग अपने देश का संविधान अपने आप निर्माण करने की क्षमता रखते हैं और इसलिए उन्हें किसी के राजनैतिक दर्शन या सिद्घांतों को अपने लिए अपनाने या आदर्श मानने की आवश्यकता नही है। 1938 ई. में पंडित नेहरू ने देश की अपनी संविधान सभा के होने की मांग करते हुए कहा था-‘‘कांग्रेस स्वतंत्र और लोकतंत्रात्मक राज्य का समर्थन करती है। उसने यह  प्रस्ताव किया है कि स्वतंत्र भारत का संविधान बिना बाहरी, हस्तक्षेप के ऐसी संविधान सभा द्वारा बनाया जाना चाहिए जो वयस्क मताधिकार के आधार पर निर्वाचित हो।’’

ऐसी परिस्थितियों में 1940 ई. में ब्रिटेन की  संसद में  जब बहुदलीय सरकार का गठन हुआ तो उसने सिद्घांत रूप में इस बात को स्वीकार किया कि भारत के लोग अपने लिए अपना संविधान स्वयं बनाएंगे। यह वह काल था जब द्वितीय विश्वयुद्घ चल रहा था, और भारत का कांग्रेसी शांतिवादी आंदोलन लगभग मौन धारण किये हुए था। क्योंकि अधिकांश कांग्रेसियों की मान्यता थी कि जब ब्रिटिश सत्ताधीश द्वितीय विश्वयुद्घ में फंसे हुए हैं तो उस समय उनके लिए भारत में कठिनाईयां उत्पन्न करना उचित नही होगा, जबकि सुभाष चंद्र बोस जैसे क्रांतिकारी लोग कांग्रेस की इस नीति में प्रारंभ से ही विश्वास नही रखते थे। उनकी मान्यता थी कि हमारा स्वतंत्रता आंदोलन एक अलग विषय है और ब्रिटिश सत्ताधीशों का किसी युद्घ में  फंसा होना एक अलग विषय है। इसलिए शत्रु पर अपनी  पकड़ कभी भी ढीली नही छोडऩी चाहिए। जब विश्वयुद्घ चल गया तो एक समय वह  भी आया जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस ब्रिटिश सत्ताधीशों के लिए एक आपदा बनकर टूट पड़े, उन्होंने शत्रु को संभलने तक का अवसर नही दिया, और  जितना उन्हें दुखी किया जा सकता था, उतना किया। नेताजी  सुभाषचंद्र बोस के भारत छोडऩे से ही ब्रिटिश सरकार की बेचैनी बढ़ गयी थी, इसलिए मार्च 1942 ई. में जब जापान भारत की ओर बढ़ता आ रहा था तब  सर स्टैफार्ड क्रिप्स को ब्रिटिश सरकार के कुछ प्रस्तावों के साथ भारत भेजा गया। ये प्रस्ताव भारत के लोगों को अपनी संविधान सभा के निर्वाचन की शक्ति देते थे। इन प्रस्तावों के इस प्राविधान से एक बात तो स्पष्ट हुई कि ब्रिटिश सरकार भारतवासियों को अपना संविधान अपने आप बनाने की मांग पर किसी न किसी प्रकार सहमत तो हो गयी। बस दुखद बात एक थी कि इन प्रस्तावों को ब्रिटिश सरकार द्वितीय विश्वयुद्घ की समाप्ति के पश्चात मानने की बात कह रही थी, जो कि भारत के लोगों को अस्वीकार्य था।

इन्हीं प्रस्तावों में ब्रिटिश सरकार ने भारत को ब्रिटिश राष्ट्र कुल में ‘डोमिनियन स्टेट्स’ की स्थिति देने का प्रस्ताव भी रख दिया था। इसके साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया था कि सभी प्रांतों और देशी रियासतों को मिलाकर एक संघ बनाया जाएगा।  कुछ-कुछ ऐसे ही प्रस्ताव 1946 ई. में आये ‘‘ब्रिटिश कैबिनेट मिशन’’ ने भी पारित किये थे। कैबिनेट मिशन ने जो योजना प्रस्तुत की थी वह संस्तुत्यात्मक शैली में थी, तब 6 दिसंबर 1946 में ब्रिटेन की सरकार ने स्पष्ट कर दिया कि यदि भारतीयों की संविधान सभा द्वारा ऐसा संविधान बनाया जाता है जिसमें भारत की जनसंख्या के किसी बड़े भाग का प्रतिनिधित्व नही है तो ‘‘हिज मैजेस्टी’’ की सरकार ऐसे  संविधान को देश के उस न मानने वाले भाग पर बलपूर्वक लागू नही करेगी।

ब्रिटिश सरकार की इस घोषणा से प्रोत्साहित होकर 9 दिसंबर 1946 को जब संविधान सभा की पहली बैठक हुई तो उसमें मुस्लिम लीग के सदस्य उपस्थित नही हुए। उन्हें लगा कि यदि विरोध किया जाएगा तो अलग संविधान सभा बनने का उनका सपना साकार हो सकता है। 20 फरवरी 1947 को ब्रिटिश सरकार ने घोषणा की कि ‘हिज मैजेस्टी’ की सरकार इस बात पर विचार करेगी कि किसे ब्रिटिश भारत में केन्द्रीय सरकार की शक्ति सौंपी जाए और  क्या ब्रिटिश भारत के लिए केन्द्रीय सरकार की संपूर्ण शक्ति सौंपी जाए, या कुछ क्षेत्रों में विद्यमान प्रांतीय सरकार को सौंपी जाए, या किसी ऐसी रीति से सौंपी जाए जो सर्वाधिक युक्ति युक्त हो और भारत की जनता के सर्वोत्तम हित में हो।

इसका परिणाम भी यह हुआ कि मुस्लिम लीग अपने लिए एक अलग संविधान सभा की मांग पर अड़ गयी। इस प्रकार ब्रिटिश सरकार ने अपनी कुटिल कूटनीति से भारतीयों की दशकों पुरानी उस मांग को भी कुरूपित कर दिया जिसके अंतर्गत वह ‘अपना संविधान अपने आप’ निर्माण करना चाहते थे। उनकी कुटिलता से हमारी संविधान सभा के निर्माण की प्रक्रिया और स्वरूप भी प्रभावित हुए  बिना न रह सका। हमारे संविधान निर्माण की प्रक्रिया में अंग्रेजों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की क्रांतिकारी विचारधारा के उन नेताओं की इस पुरानी मांग को सर्वथा विलुप्त कराने में सफलता प्राप्त की कि भारत का संविधान पूर्णत: भारतीय हो। इसके लिए उन्होंने अपने द्वारा निर्मित ‘भारत सरकार अधिनियम-1935’ को भारत के संविधान के भावी स्वरूप का प्रमुख आधार बनाकर सफलता प्राप्त की। द्वितीय विश्वयुद्घ में आजाद हिंद फौज और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के पराक्रम से ब्रिटिश लोग भयभीत थे, इसलिए उन्होंने सुभाष जैसे नेताओं को अपना शत्रु और कांग्रेस को अपना मित्र मानते हुए ऐसी चाल चली कि संविधान का भारतीयकरण न कराके उसका ब्रिटिशीकरण करा दिया। कांग्रेस सत्ता के  लालच में फंस गयी और 3 जून 1947 को हिन्दूमहासभा और उसके नेता वीर सावरकर के विरोध के उपरांत भी कांग्रेस ने भारत विभाजन को स्वीकार कर लिया।

इसके पश्चात जो संविधान बनना आरंभ हुआ उसमें भारतीयता का लोप होता चला गया। डा. भीमराव अंबेडकर जैसे राष्ट्रवादी नेता भी इस संविधान के पक्षधर नही थे। ब्रिटिश सत्ताधीशों ने जहां संविधान का अपने कुचक्रों से ब्रिटिशीकरण करने में सफलता प्राप्त की वहीं ‘भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम-1947’ में भी ऐसी शब्दावली का प्रयोग किया जो हमारे लिए आज तक रहस्य बनी हुई है। 18 जुलाई 1947 को सम्राट की अनुमति से बने इस अधिनियम में स्पष्ट किया गया कि भारत के स्थान पर दो स्वतंत्र ‘डोमिनियन’ स्थापित किये जाएंगे जो भारत और पाकिस्तान के नाम से ज्ञात होंगे। इनकी अपनी संविधान सभाएं होंगी।

यह ‘डोमिनियन’ शब्द हमारे लिए लज्जास्पद था, क्योंकि यह हमें अधिराज्य बनाता था, ना कि स्वतंत्र सम्प्रभु राज्य। हम ‘डोमिनियन’ बने एक ‘इंडिपेण्डेण्ट स्टेट’ नही, और आज तक हम संभवत: वही हैं। जब यहां ब्रिटेन की महारानी (1997 ई.) आयी थीं तो उनकी यात्रा का विरोध कुछ लोगों ने ये कहकर किया था कि उनके लिए कुछ ऐसी सुविधायें दी जा रही हैं जो उन्हें हमारे राष्ट्रपति से भी ऊपर दिखाती हैं और ऐसा लगता है कि जैसे वह आज भी गुलाम भारत की यात्रा पर आयी हों। पर सब कुछ हो गया और हम देखते रह गये। अब यह सब कुछ कब तक चलेगा?

 

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राकेश कुमार आर्य
उगता भारत’ साप्ताहिक / दैनिक समाचारपत्र के संपादक; बी.ए. ,एलएल.बी. तक की शिक्षा, पेशे से अधिवक्ता। राकेश आर्य जी कई वर्षों से देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। अब तक चालीस से अधिक पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। वर्तमान में ' 'राष्ट्रीय प्रेस महासंघ ' के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । उत्कृष्ट लेखन के लिए राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह जी सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं । सामाजिक रूप से सक्रिय राकेश जी अखिल भारत हिन्दू महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय मानवाधिकार निगरानी समिति के राष्ट्रीय सलाहकार भी हैं। ग्रेटर नोएडा , जनपद गौतमबुध नगर दादरी, उ.प्र. के निवासी हैं।

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