हमारे उंगल पर आपका अंगूठा

 उंगलबाज.काम 

मुझे नहीं पता, आपने उंगलबाज का नाम पहले कभी सुना है या नहीं सुना। यह भारतीय मीडिया उद्योग का सबसे अविश्वनीय नाम है। इंडिया टीवी से भी अधिक अविश्वनीय। पंजाब केसरी से भी अधिक अविश्वनीय। डर्टी पिक्चर की सिल्क की तरह, जिसका नाम बदनाम होकर हुआ। हमारी विश्वसनीयता इतनी संदिग्ध है कि हमने दुनिया के एक मुल्क में उनके प्रधान की मौत की जानकारी उनके जीते जी छाप दी। हमारी वेबसाइट पर हिट्स एकदम से बढ़ गर्इ। खबर आते ही पूरे देश में मारपीट, आगजनी शुरू हो गर्इ। मानों वे सभी लोग इस खबर के वेबसाइट पर लगने के इंतजार में ही थे। कोर्इ भी हमारा तो कुछ ना बिगाड़ पाया लेकिन अपने देश के करोड़ों रुपए की संपति की ऐसी कम तैसी जरूर कर दी। यहां बताता चलूं कि हमारा डाट काम इतना अधिक अविश्वसनीय है कि हम आज तक पता नहीं लगा पाए कि यह खबर वेबसाइट के लिए भेजी किसने थी और वेबसाइट पर लगार्इ किसने।

इसके बावजूद हमें गर्व है कि पूरे मीडिया जगत में हम अविश्वसनीयता का काम पूरी विश्वसनीयता के साथ करते हैं। हम किसी र्इमानदारी का दावा नहीं करते और आपको आगे रखने का वादा नहीं करते।

वैसे जिस मुल्क के प्रमुख की बात मैं कर रहा था] वहां से हमारी विदार्इ हो चुकी है। हमें बाहर निकाल दिया गया है। अब सीआर्इए और केजीबी मिलकर उन सूत्रों को तलाशने की केाशिश में लगी है, जिसके इशारे पर ऐसा किए जाने का उन्हें अनुमान है।

वैसे सच कहूं तो भारत हमारे लिए एक मुफीद ठिकाना साबित हुआ है। यहां उंगलबाजी की पर्याप्त गुंजाइश नजर आ रही है क्योंकि यहां किसी के मरने की परवाह किसी को नहीं है। यहां के लोग की याद्दाश्त बेहद कमजोर है। मुझे नहीं लगता कि कोलकाता में कुछ होता है तो हावड़ा के लोग उसकी परवाह करते हैं। बड़ोदरा की चिन्ता अहमदाबाद वालों को रहती होगी। इसी तरह भोपाल के हक के लिए सिहोर सामने नहीं आता। बेतिया की चिन्ता मोतिहारी को नहीं है। बिलासपुर वाले दुर्ग की घटनाओं से नावाकिफ हैं। गुमला वालों को गाड़ी लोहरदगा मेल की जानकारी नहीं है। दिल्ली, मुम्बर्इ और कोलकाता मे एमएनसी की नौकरी करने वाले वेदान्ता और पास्को में अपने लिए रोजगार के अच्छे अवसर ही देख पाते हैं। इससे अधिक जानने की उन्हें जरूरत नहीं है। अधिकांश अखबार और चैनलों को अपने लिए पत्रकार कम दलाल चाहिए जो वसूली एजेन्ट के तौर पर काम कर सके। उसके बाद भी दावा यह कि सच को रखे आगे और अंदर सच का सामना करने की कुव्वत नहीं। सच कहें तो पड़ोस की चिन्ता नहीं है लेकिन सारा भारत एक है।

यदि इस देश की जनता एक होती। इस देश के लोगों को कुव्वत होता तो क्या भोपाल गैस कांड हो जाता, नन्दीग्राम करने का कोर्इ साहस करता, गुजरात के दंगे इतनी सहजता से आपरेट हो पाते। यह सब शर्मनाक था, जो उसके बाद हुआ, वह उससे भी अधिक शर्मनाक। इतना कुछ हो गया, और हम आज तक उसके लिए जिम्मेवारी तय नहीं कर पाए। सभी हत्यारे खुलेआम घुम रहे। हत्या में शामिल लोगों को हम चुन-चुन कर अपना नेतृत्व सौप रहे हैं। लाखों की संख्या में इकटठे होकर उनको सुनने जा रहे हैं। उन एक-एक चेहरों की हमारी अदालतें ठीक-ठीक अब तक पहचान भी नहीं कर पार्इ है, जिनके गुनाहों की कोर्इ माफी नहीं है। यह स्वीकार करने में क्या परेशानी है कि इस देश में लोकशाही नहीं अफसरशाही मान्य है और लोकतंत्र नहीं नेतृत्व तंत्र चलता है। ऐसा हो भी क्यों नहीं, जब नन्दीग्राम पर विदर्भ चुप है, विदर्भ के मसले पर बुंदेलखंड बोलने को राजी नहीं। बस्तर का दर्द सिर्फ बस्तर वालों का है। इसका सीधा सा अर्थ है कि हमारी एकता सिर्फ किताबी है।

गोधरा में जब रेलगाड़ी में हिन्दू यात्रियों को जलाया गया, किसी मुसिलम नेता ने इसका विरोध नहीं किया। किया भी हो तो मीडिया ने इसे दिखाने की जरूरत नहीं समझी। इससे भी ज्यादा तकलीफ की बात यह है कि विभिन्न राजनीतिक दल जो बयानबाजी से अधिक जो कुछ कर सकते थे, उन्होंने नहीं किया। बात-बात पर हजारों की संख्या में भीड़ इकट्ठी करने वाली राजनीतिक पार्टियां, टीवी पर आकर अपने दल के कार्यकर्ताओं से अपील कर सकती थीं कि वे आस-पास की मुसिलम बसितयों पर पहरा दें। अपने पड़ोसियों की रक्षा करें। गुजरात के पड़ोस के राज्यों से कार्यकर्ता अपने मुस्लिम भाइयों की मदद के लिए आ सकते थे। लेकिन भावनगर का दर्द सूरत का नहीं है, सूरत की चिन्ता दाहोद को नहीं, दाहोद में क्या हो रहा है बड़ोदरा वालों को पता नहीं, और अहमदाबाद से तो पहले ही बड़ी आबादी का विश्वास उठ गया था। गुजरात में हुए साम्प्रदायिक दंगों के लिए उन सभी लोगों को जिम्मेवारी लेनी चाहिए, जो गुजरात में थे और जो गुजरात में नहीं थे। क्या किया उस दौर में आपने भाषणबाजी से अधिक। क्या गुजरात के सारे हिन्दू दंगों में शामिल थे, जिनके हाथ दंगों में नहीं थे, वे हाथ अपने पड़ोसी को बचाने के लिए क्यों नहीं उठे। हर तरफ सिर्फ बयानबाजी। रैलियों में तो लाखों की भीड़ जुटा लेते हैं, नेता। क्या एक नेता ने अपने समर्थकों से अपील की कि वे मुस्लिम बस्तियों की सुरक्षा के लिए स्वयं पहरे पर बैठेंगे और समर्थक भी अपने आस-पास के मुस्लिम बसितयों की पहरेदारी करें। दूसरे राज्यों से कितने नेता गुजरात गए, उनकी सुरक्षा की चिन्ता लेकर। इस देश में रैलियों के लिए लोग निकलते है, राम मंदिर बनाने और बाबरी मस्जिद ध्वंस के लिए निकलते हैं, नक्सलियों द्वारा किए गए हत्या के समर्थन में निकलते हैं और कश्मीर को भारत से अलग करने का मंसूबा पाले आतंकवादियों के समर्थन में निकलते हैं। उसके बाद भी आप जोर दे-देकर यह मुझे विश्वास दिलाना चाहते हैं कि बचाने वाले के हाथ, मारने वाले से अधिक बड़े होते हैं। इतना कुछ हो जाने के बाद भी अपने दिल पर हाथ रखकर कहिए, क्या आप सच में इन बातों पर यकीन करते हैं।

इस देश की एक अरब जनता, चंद हजार नेताओं, चंद हजार अफसरशाह और चंद लाख बाबूओं को गाली देते हुए उठती है और गाली देते हुए सो जाती है। इन एक अरब लोगों को किसी सरकारी अस्पताल में इस बात की जांच अवश्य करानी चाहिए कि इनकी रीढ़ की हडडी अब तक सही सलामत बची भी है या नहीं। मेरी चिन्ता इतनी भर है कि कब तक इस मुल्क के लोग खुद को झूठे दिलासे देते रहेंगे, एक अरब की संख्या में होकर रोते, गिड़गिड़ाते और रीरियाते रहेंगे। कब तक यह झूठ चलता रहेगा कि देश एक है और इस मुल्क की मालिक यहां की जनता है। जबकि सच्चार्इ यह है कि जनता बाबूराज में अफसरशाही के जूते की नोक पर है और नेताओं के ठेंगे पर है। यदि उंगलबाज की बातों से सहमत हैं तो इस भाषण के अंत में अपने ठेंगे का निशान लगाएं क्योंकि उंगलबाज जानता है कि आपके बस की इससे अधिक कुछ नहीं है।

उंगलबाज.काम, हमारी विश्वसनीयता संदिग्ध है। 

1 COMMENT

  1. अन्गुलबाज जी बात तो आपने बेलाग कही है,इसकी विश्वसनियता संदिग्ध हो या असंग्दिध.पर कभी आपने एक बात पर ध्यान दिया है या यह बात कभी आपके समझ में आयी है? हम कभी नहीं चाहते की हमारे पुत्र/पुत्री किसी सरकारी स्कूल में पढ़ें.हम यह भी नहीं चाहते कि दुर्भाग्यबस कभी अगर हम बीमार पड़ जाएँ तो हमें किसी सरकारी अस्पताल का मुँह देखना पड़े.पर नौकरी,के मामले में हमारा नजरिया एकदम उलटा क्यों हैं?क्यों हम सरकारी नौकरी को प्राथमिकता देते हैं?सोचिये तो सही.

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