हमारा गणतन्त्र और समाज

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गणतन्त्र दिवस के अवसर पर

हम सब भारत के नागरिक हैं। हमारा देश 15 अगस्त, 1947 को विगत सैकड़ों वर्षों की दासता के बाद स्वतन्त्र हुआ था। विदेशी दासता से मुक्ति से एक दिन पहले देश के एक तिहाई भाग से अधिक भाग को भारत से अलग कर दिया गया। जिन कारणों से भारत का विभाजन हुआ, उसके बाद भी प्रायः वैसी ही अनेक धार्मिक व सामाजिक समस्यायें आज भी विद्यमान हैं। आजादी से पहले हम अंग्रेजों के गुलाम थे और इससे पूर्व हमें मुसलमानों की दासता और भीषण अत्याचार सहन करने पड़े थे। वैदिक व हिन्दू धर्म के धार्मिक अन्धविश्वासों व तदनुरूप सामाजिक व्यवस्था के कारण मुख्यतः यह पराधीनता व दुःख आये थे। मुसलमानों के देश के बड़े भूभाग पर आधिपत्य से पूर्व भारत में भारतीय आर्य-हिन्दू राजा राज्य करते थे। चाणक्य व विक्रमादित्य के काल में भारत संगठित था और इसकी सीमायें वर्तमान से भी अधिक दूरी तक फैलीं हुईं थीं। किसी समय में अफगानिस्तान, श्रीलंका, नेपाल व बर्मा या म्यमार आदि भी भारत के ही अंग हुआ करते थे। इन सब देशों में एक ही वैदिक धर्म और वैदिक संस्कृति हुआ करती थी। धार्मिक अन्धविश्वास, सामाजिक विषमता व विदेशी दासता का मुख्य कारण महाभारत का महायुद्ध और उसके प्रभाव से देश में अव्यवस्था का उत्पन्न होना था। महाभारत के युद्ध में बहुत से लोग मारे गये थे तथा जो बचे थे उन्हें आलस्यजनित अकर्मण्यता ने अपने नियंत्रण में ले लिया था। महाभारत काल तक व उसके बाद चाणक्य व विक्रमादित्य के काल तक सुदूर पूर्व का भारत वैदिक धर्म और संस्कृति की छत्रछाया में उन्नत व विकसित था। वैदिक धर्म का प्रादुर्भाव सृष्टि के आरम्भ काल, 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हजार 115 वर्ष पूर्व हुआ था। तब से पांच हजार वर्ष पूर्व हुए महाभारत युद्ध तक विश्व में एक ही धर्म व एक ही संस्कृति थी जिसका आधार वेद, वैदिक ग्रन्थों सहित हमारे पारदृष्टा ऋषि-मुनियों के वचन व मान्यतायें होती थी।

 

gantantrदेश की आजादी में प्रमुख योगदान महर्षि दयानन्द, उनके द्वारा स्थापित आर्यसमाज और इनके द्वारा किये गये धार्मिक और समाज सुधार के कार्यों को सर्वाधिक है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ही आजादी के प्रणेता थे। सन् 1874 में सत्यार्थ प्रकाश की रचना हुई। इसका संशोधित संस्करण सन् 1883 में तैयार हुआ। इस ग्रन्थ के आठवे समुल्लास में महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि कोई कितना ही करे किन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मत-मतान्तर रहित, प्रजा पर माता, पिता के समान कृपा न्याय और दया के साथ भी विदेशियों का राज्य पूर्ण सुखदायक नहीं होता। सम्पूर्ण भारत के साहित्य में स्वराज्य का सर्वोपरि उत्तम होना सबसे पहले सत्यार्थप्रकाश ने ही देशवासियों को बताया। महर्षि दयानन्द के आर्याभिविनय व संस्कृत वाक्य प्रबोध आदि ग्रन्थों के कुछ अन्य वाक्य भी इसी प्रकार से आजादी के आन्दोलन का मुख्य आधार कहे जा सकते हैं। स्वराज्य सर्वोपरि उत्तम होने का अर्थ है परराज्य या विदेशी राज्य निकृष्ट व बुरा होता है और इसका अनुभव अंग्रेजी राज्य और उससे पूर्व मुस्लिम राज्य में भारत के लोगों ने किया वा भोगा है जो कि इतिहास के पन्नों पर अंकित है। महर्षि दयानन्द जी की एक अन्य बहुत बड़ी देन है कि उन्होंने मत-मतान्तरों किंवा धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन किया और वेद व वैदिक धर्म को सत्य की कसौटी पर सिद्ध पाया। उन्होंने इसी कारण वेदों का प्रचार किया और अन्य सभी मतों में विद्यमान असत्य व अविद्याजन्य विचार, मान्यताओं, सिद्धान्तों, आस्थाओं, कर्मकाण्डों, कुरीतियों आदि का दिग्दर्शन कराया और मनुष्य जाति की उन्नति के लिए उनका खण्डन किया। इससे यह सिद्ध हुआ कि विश्व में सुख व शान्ति धर्म व समाज संबंधी सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों के द्वारा और इसके पर्याय वैदिक धर्म की स्थापना से ही लाई जा सकती है। ऐसा होने पर ही सभी मनुष्यों में एक भाव व परस्पर एक सुख-दुःख की उत्पत्ति अर्थात् समाजिक समरसता होनी सम्भव है।

 

महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों व विचारों ने स्वतन्त्रता की भावना को उद्बुध व प्रदीप्त किया। देश में स्वतन्त्रता के लिए आन्दोलन चला। कुछ देशवासियों का विचार था कि आजादी अंहिसक आन्दोलन से मिल सकती है और कुछ विद्वानों व चिन्तकों का विचार था कि क्रान्तिकारी कार्यों को अंजाम देकर ही विदेशी हुकमरानों को देश को स्वतन्त्र करने के लिए बाध्य किया जा सकता है। दोनों ही आन्दोलन देश में चले। दोनों का अपना महत्व है। क्रान्तिकारियों को अधिक कुर्बानियां देनी पड़ी व असह्य कष्ट उठाने पड़े। क्रान्तिकारियों के कार्यों से अंग्रेज शासक अधिक विचलित, भयभीत व परेशान होते थे और उन्हें दण्ड के रूप में कठोर यातनायें व मृत्यु दण्ड आदि बहुत कड़े दण्ड देते थे। हमें लगता है कि केवल अहिंसात्मक आन्दोलन से ही अंग्रेजों को देश छोड़ने के लिए विवश नहीं किया जा सका था। अतः क्रान्तिकारी आन्दोलन का अपना विशेष महत्व और योगदान है और इस आन्दोलन के सभी नेता व अनुयायी देशवासियों के पूज्य व आदर्श हैं। इन आन्दोलनों व अंग्रेजों की अपनी परिस्थितियों के कारण देश 15 अगस्त, 1947 को स्वतन्त्र हुआ। एक दिन पूर्व देश का विभाजन इस आधार पर किया गया कि हिन्दू और मुसलमान दो अलग कौमें हैं और यह साथ मिलकर नहीं रह सकतीं। देश का विभाजन देशभक्तों के लिए दुःखद स्थिति थी। कुछ वरिष्ठ क्रान्तिकारी तो इस सदमे को सहन न कर सके और इस दुःख से पीडि़त होकर कुछ समय बाद उनकी मृत्यु हो गई।

 

देश को चलाने के लिए संविधान की आवश्यकता थी। अतः एक संविधान सभा का निर्माण किया गया। भारत के प्रथम कानून मंत्री डा. भीमराव रामजी अम्बेदकर संविधान आलेखन (drafting) सभा के सभापति बनाये गये। संसार के प्रमुख देशों के संविधानों का अध्ययन कर भारत का संविधान बनाया गया जिसे 26 जनवरी, 1952 से लागू किया गया। भारत के संविधान की अनेक विशेषतायें हैं। लोगों को समान अधिकारी दिए गये हैं तथा देशवासियों को किसी भी मत व धर्म को मानने की स्वतन्त्रता दी गई है। इसी के साथ नेताओं द्वारा कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा, कुछ मत व वर्गों को विशेष दर्जा या अधिकार व कुछ के लिए अपना कानून आदि का अधिकार दिया गया जो कि विचारणीय है। जैसा भारत में है, ऐसा शायद विश्व के अन्य किसी देश में नहीं होगा। हमारे देश में अनेक पूर्वाग्रहों से युक्त बुद्धिजीवी हैं। यह अपने-अपने प्रकार से विचार करते हैं। कुछ जो कह देते हैं, उनकी बात सुनी जाती है, कुछ की अनसुनी या सही बातों को भी दबा दिया जाता है। यह सब कुछ प्रायः सत्तारूढ़ दल के मुख्य नेताओं पर निर्भर करता है। हम सब नागरिकों के लिए एक समान रूप से स्वतन्त्रता की बात करते हैं परन्तु कई बार यह बहुत से मामलों में दिखाई नहीं देती। आज देश में एक धनिक और एक निर्धन वर्ग पैदा हो गया। निर्धन वर्ग भी ऐसा कि जिसके पास दो समय का भोजन, अपनी छत व अच्छे वस्त्र व शिक्षा के लिए आवश्यक न्यूनतम धन भी नहीं है और वहीं कुछ लोगों के पास इतना अधिक धन है कि वह उसका दुरुपयोग व कर चोरी करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। कहा जाता है कि संविधान ने सबको समान अधिकार दिये हैं परन्तु समाज में यह देखने को कम ही मिलता है। शिक्षा व चिकित्सा निःशुल्क होनी चाहिये परन्तु यह आज करोड़ो लोगों की क्षमता से बहुत दूर है। सुरक्षा भी ईश्वर के भरोसे है। कई बार बड़े-बड़े हादसे हो जाते हैं, जनता विरोध करती है, कुछ कानूनों में परिवर्तन किया जाता है परन्तु अपराधों में रोक नहीं लगती। समस्याओं के हल करने में भी राजनीतिक दलों की वोट बैंक की नीति आड़े आती है। देश की आजादी को स्वतन्त्रता दिवस से 67 वर्ष से अधिक और गणतन्त्र बनने से 63 वर्ष बीत चुके हैं परन्तु आज का समाज अनेक असमान मान्यताओं वाले मत-मतान्तरों, अन्धविश्वासों, पाखण्डों, अशिक्षा, अज्ञान, शोषण, अन्याय, असुविधाओं, अपराधों, निर्धनता, असमानता व अनेक दुःखों से युक्त है। सभी देशवासी एक विचार, एक भाव, एक सुख दुःख, एक हानि-लाभ, परस्पर भाई बहिन के समान व्यवहार आदि गुणों से युक्त नहीं हो सके और शायद कभी हो भी नहीं सकेंगें।

 

हमें यह भी लगता है कि परिस्थितियोंवश हमारे संविधान का निर्माण करते समय वेदों, दर्शनों, मनुस्मृति व नीति ग्रन्थों का अध्ययन कर उनकी अच्छी बातों को संविधान में सम्मिलित नहीं किया गया, यदि किया जाता तो अच्छा होता। अच्छे विचार व बातें तो कहीं से भी मिलें, ग्रहण की जानी चाहिये। वेदों और दर्शनों का सिद्धान्त है कि जिससे यह संसार बना और चल रहा है, वह एक सत्ता ईश्वर है जो निराकार, सूक्ष्मातिसूक्ष्म, चेतन-तत्व, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान है। इस शत प्रतिशत सही बात को भी न तो संविधान में स्थान प्राप्त हुआ और न ही देशवासी इसके अनुसार व्यवहार करते हुए दिखाई देते हैं। वैदिक काल में शिक्षा निःशुल्क, अनिवार्य व एक समान होती थी। सबको समान सुविधायें दिये जाने का विधान था तथा किसी के साथ भेदभाव नहीं किया जाता था। यह उच्च आदर्श व नियम मध्यकाल में भुला देने के कारण ही देश का पतन हुआ और पराधीनता का कारण बना। आज हमारे निर्धन देशवासी शिक्षा के अभाव से ग्रस्त है। ईश्वर ने उन्हें मनुष्य जीवन तो दिया परन्तु अनेक व्यक्ति ऐसे भी हैं जो देश व समाज की व्यवस्था के कारण पशुओं जैसा जीवन जीने के लिए बाध्य हैं। बुन्देलखण्ड के आज भी निर्धन किसान व भूमिहीन साधनों के अभाव में घास की बनी रोटी बिना दाल व सब्जी तथा चावल के खाने के लिए मजबूर हैं। यह कैसा देश है जहां अरबपति व खरब पति लोग रहते हैं और अपने ही देश के बन्धुओं के प्रति उनमें दया, प्रेम, करूणा का भाव नहीं है। इसका अर्थ है कि वह स्वयंभू विचार वाले संवेदनाहीन मनुष्य हैं और अन्य मनुष्यों को अपना परिवार और ईश्वर की सन्तान नहीं मानते। अतः आज आवश्यकता है कि एक स्वस्थ, शिक्षित, शोषण व अन्याय मुक्त, सभी के लिए घर, वस्त्र, भोजन, चिकित्सा, सामाजिक सुरक्षा व सत्य वैदिक ज्ञान से युक्त समाज व देश बनाने की दिशा में हमारे सभी श्रेष्ठ व अन्य बुद्धिजीवी विचार करें और एक आदर्श भारत के निर्माण की रचना व संगठन में अपना योगदान दें।

 

जनतन्त्र व लोकतन्त्र इसी लिए आदर्श माने जाते हैं कि इसमें वैचारिक व क्रियात्मक रूप से जनता को शिक्षा, ज्ञान, पक्षपात व अन्याय मुक्त वातावरण मिलता है। सभी को अपनी आजीविका मिलती है जिससे वह अपने जीवन को स्वस्थ व निरोग रखते हुए धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर हो सकें। इसे अभ्युदय और निःश्रेयस प्राप्त करने में संलग्न जीवन भी कह सकते हैं। हम जितना भौतिकवादी बनेंगे, जो कि आज बन गये हैं, उतना ही हम जीवन के लक्ष्यों से दूर होते जायेंगे और हमारा यह मनुष्य जीवन उद्देश्य व लक्ष्य से भटका हुआ जीवन ही कहा व माना जायेगा। हम चाहते हैं कि गणतन्त्र दिवस पर समाज में निर्धनता दूर करने, सबको समान, निःशुल्क, अनिवार्य शिक्षा प्राप्त कराने तथा सबके लिए निःशुल्क चिकित्सा, न्याय व सुरक्षा की गारण्टी युक्त वातावरण के निर्माण का प्रयास होना चाहिये। इन विषयों पर बहस हो, योजनायें बनें और सभी देशवासी इस कार्य में जुट जायें। अमीरी व गरीबी की खाई कम होनी चाहिये। अधिक सम्पत्ति वालों पर अधिक कर लगाकर उसे निर्धन जनता के दुःख व दर्द दूर करने में, बिना भ्रष्टाचार किये, व्यय करना चाहिये। सरकार की ओर से ऐसी योजना बने जिससे वेदों और वैदिक साहित्य पर अनुसंधान व उसके मानव जीवन पर प्रभावों का अध्ययन कर उससे लाभ उठाने के लिए प्रभावशाली प्रयत्न किये जायें। हम आशा करते हैं कि पाठक लेख पर सदभावपूर्ण रीति से विचार करेंगे।

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