औपनिवेशिक ढांचा खत्म हो

विमल कुमार सिंह

‘आइएएस’ की व्यवस्था को जितना जल्दी समाप्त कर दिया जाए, उतना अच्छा। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आइएएस की व्यवस्था समाप्त होते ही देश में खुशहाली छा जाएगी। वास्तविकता यह है कि ‘आइएएस’ हमें विरासत में मिले औपनिवेशिक ढांचे का एक हिस्सा भर है। देष में खुशहाली तब आएगी जब हम अविश्वास और केन्द्रीयकरण की बुनियाद पर खड़ी सम्पूर्ण औपनिवेशिक व्यवस्था को ध्वस्त करके उसकी जगह एक ऐसी देशी व्यवस्था निर्मित करें जिसकी नींव आपसी विश्वास और विकेन्द्रीकरण पर टिकी हुई हो।

अखबारों की सुर्खियों और टीवी चैनलों की ब्रेकिंग न्यूज में आजकल नेताओं के साथ-साथ नौकरशाहों का भी खूब नाम आ रहा है। नीरा यादव जो कभी उत्तर प्रदेश की मुख्य सचिव थीं, एक घोटाले में जेल हो आई हैं। छत्तीसगढ़ के आइएएस अधिकारी बीएल अग्रवाल जी के नाम से 220 बैंक खाते और करोड़ों की संपत्ति का पता चला है। मध्यप्रदेश की आइएएस दंपति अरविंद जोशी और टीनू जोशी के घर से सूटकेस में 3 करोड़ रुपए मिले हैं। कानूनी प्रक्रिया में ये लोग दोषी या निर्दोष कब साबित होंगे पता नहीं, लेकिन नौकरशाहों के बारे में आम धारणा यही है कि इनमें से ही कुछ लोग नेताओं को भ्रष्टाचार की शिक्षा-दीक्षा देते हैं और बदले में अपनी जेब गर्म करने का उपाय कर लेते हैं।

प्रशासनिक सेवाओं में जाने के लिए जो विद्यार्थी दिन-रात एक कर देते हैं, उनकी तीन श्रेणियां हैं। पहली श्रेणी में वे नवयुवक-नवयुवतियां हैं, जिनके मन में देश के लिए कुछ करने की ललक होती है। दूसरी श्रेणी में वे आते हैं, जिनके लिए अफसर बनने का मतलब पैसा कमाने के अनगिनत अवसर मिलना है। इन दोनों श्रेणियों के लोग बहुत अल्पसंख्यक होते हैं। बहुसंख्यक वे लोग होते हैं, जो सिविल सेवाओं में रुतबे और आराम की जिंदगी की आशा में आते हैं। इन लोगों के लिए नौकरी सबसे ऊपर होती है। अगर कोई खतरा न हो तो ये लोग कुछ काम भी करते हैं और कुछ ‘पैसे’ भी कमाते हैं।

संविधान निर्माताओं को इन प्रशासनिक अधिकारियों से बड़ी उम्मीद थी। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि अपने तैनाती वाले राज्यों में इन्हें बेवजह परेशान न किया जाए। इसलिए नियम बना कि राज्य सरकारें बिना केन्द्र की अनुमति के इन अधिकारियों को दंडित नहीं कर सकतीं। उन्हें अधिक से अधिक ट्रांसफर किया जा सकता है। संविधान निर्माताओं को आशा थी कि ऐसा करने से अधिकारी अपने कर्तव्य का निर्वाह निर्भय हो कर कर सकेंगे। लेकिन पिछले साठ-बासठ वर्षों में ऐसा कुछ नहीं हो सका है। राज्य सरकारों ने ट्रांसफर के डंडे से ही इन केन्द्रीय अधिकारियों को डराया-धमकाया है। कमाऊ और आरामदायक पोस्टिंग की लालच में अधिकतर अधिकारी समझौता करते दिखे हैं। भ्रष्ट नेताओं पर लगाम कसने में वे नाकाम रहे हैं। केन्द्रीय योजनाओं के क्रियान्वयन और देश की एकता अखंडता बनाए रखने में भी उनकी विशेष भूमिका बेमानी हो गई है। इस मामले में भी उनकी भूमिका निराशाजनक रही है।

हमें नहीं भूलना चाहिए कि हमारी केन्द्रीय प्रशासनिक सेवाओं की स्थापना अंग्रेजों ने की थी। एक समय था, जब इन सेवाओं में कुलीन अंग्रेज ही भर्ती किए जाते थे। धीरे-धीरे इसमें भारतीय लोग भी शामिल किए जाने लगे। लेकिन इन सेवाओं की प्रकृति नहीं बदली। स्वतंत्रता के बाद भी इन सेवाओं का अभिजात्य स्वरूप बना रहा। आज देश में प्रशासनिक सेवाओं की कई श्रेणियां हैं, लेकिन आइएएस की तुलना किसी से नहीं की जा सकती। सरकार में आइएएस की तूती बोलती है। सरकार चाहे किसी राज्य की हो, केन्द्र की हो, एक पार्टी की हो या दूसरी पार्टी की, आइएएस का झंडा हमेशा बुलंद रहता है। दुर्भाग्यवश सरकारी मशीनरी पर अपनी पकड़ का इस्तेमाल आइएएस ने देश हित की बजाए अपना हित साधने में किया है। आइएएस एक जाति हो गई है। एक ऐसी जाति जो अपने को ऊंची और दूसरों को नीची मानती है। सरकार में इनकी जबर्दस्त लाबी है। अगर सरकार में कोई नया विभाग या नया काम शुरू होता है तो यह लाबी पूरी कोशिश करती है कि उसका नियंत्रण इसके हाथ में रहे। योग्यता के पैमाने को आईएएस लोग स्वीकार नहीं करते। उनका मानना है कि दूसरी सेवा का कोई अधिकारी उनसे योग्य हो ही नहीं सकता।

आइएएस अधिकारी का यह मिथ्याभिमान कोई और नहीं बल्कि हमारी केन्द्र सरकार ही पुष्ट करती है। औपनिवेशिक विरासत को संजोए केन्द्र सरकार को लगता है कि राज्य सरकारें उसके अधीन इलाके हैं, जिनके कर्मचारियों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। इसलिए वहां शासन संभालने के लिए केन्द्र से अधिकारी भेजे जाते हैं।

जरा सोचिए कि जब युवावस्था में कदम रख रहे नौजवान, युनिवर्सिटी की पढ़ाई खत्म करने के बाद सीधे जिले में सरकार के सर्वेसर्वा हो जाते हैं, तो क्या वे सहज रह पाएंगे? अपने ‘अतिविशिष्ट’ होने के एहसास से वे कैसे बच पाएंगे?

जो परीक्षा किसी विद्यार्थी को आइएएस, आपीएस या और अधिकारी बनाती है, उसकी विश्वसनीयता भी अब संदिग्ध हो गई है। उसकी चयन प्रक्रिया की अवैज्ञानिकता को लेकर पहले से ही कई सवाल उठाए जाते रहे हैं। सच पूछा जाए तो परीक्षा में दिखाई गई योग्यता का एक अच्छे लोकप्रशासक होने से कोई संबंध नहीं है।

आइएएस को अत्यधिक महत्व दिए जाने का सबसे बड़ा नुक्सान स्थानीय प्रशासन को हुआ है। आम जनता का जिस सरकार से पाला पड़ता है, वह आइएएस के कब्जे में होती है। यहां उसे अपने प्रतिनिधि की सबसे अधिक जरूरत महसूस होती है। लेकिन यहां उसके लिए नौकरशाह बिठा दिए गए हैं जो अपने को जनता का सेवक नहीं बल्कि ‘साहब’ समझते हैं। यही कारण है कि जनता आज भी अपने जिले के डीएम या एसपी से मिलने में झिझकती है, डरती है। यह झिझक और डर ऐसे ही नहीं है। इसके पीछे लंबा अनुभव है।

देश के प्रशासन के लिए प्रधानमंत्री को जिम्मेदार माना जाता है। राज्यों के लिए मुख्यमंत्री जिम्मेदार होते हैं। ये दोनों जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों के प्रति जवाबदेह हैं। इनका प्रदर्शन ठीक रहा तो जनता इन्हें पुन: मौका देती है, अन्यथा समर्थकों सहित उनकी अगले चुनावों में छुट्टी हो जाती है। प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बनना किसी भी राजनीतिक व्यक्ति के लिए शिखर पर पहुंचने जैसा होता है। इन पदों को देश और राज्यों के संदर्भ में उच्चतम पद माना जाता है। लेकिन केन्द्र और राज्य के बाद जब हम जिले के स्तर पर आते हैं तो वहां एक अलग ही व्यवस्था दिखती है।

जिले में आज भी सबसे ताकतवर व्यक्ति जिलाधिकारी अर्थात डीसी या डीएम होता है। यह अधिकारी जब जिले को संभालने के लिए आता है तो उसकी उम्र 35 वर्ष के आसपास होती है। वह सिविल सेवा के कनिष्ठ अधिकारी के रूप में जिलों से अपनी नौकरी शुरू करता है। जिले के बारे में उसकी जानकारी बहुत सतही होती है। उसका कोई निश्चित कार्यकाल नहीं होता। उसकी जवाबदेही भी जिले के लोगों की बजाय राज्य की राजधानी में बैठे मुख्यमंत्री के प्रति होती है।

सवाल उठता है कि जो व्यवस्था केन्द्र और राज्यों के लिए ठीक समझी गयी, उसे जिले में क्यों नहीं लागू किया गया? जिले में कार्यपालिका के सारे अधिकार जनता के प्रतिनिधि की बजाए नौकरशाह को क्यों दिए गए? यदि नौकरशाह बेहतर प्रशासक होते हैं तो राज्यों एवं केन्द्र में मुख्यमंत्री एवं प्रधानमंत्री की व्यवस्था क्यों की गयी?

निष्कर्ष यह है कि ‘आइएएस’ नामक व्यवस्था ने देश का फायदा कम, नुक्सान अधिक किया है। इसलिए इस ‘सेवा’ को जितना जल्दी समाप्त कर दिया जाए, उतना अच्छा। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आइएएस की व्यवस्था समाप्त होते ही देश में खुशियाली छा जाएगी। वास्तविकता यह है कि ‘आइएएस’ हमें विरासत में मिले औपनिवेशिक ढांचे का एक हिस्सा भर है। देश में खुशहाली तब आएगी जब हम अविश्वास और केन्द्रीकरण की बुनियाद पर खड़ी संपूर्ण औपनिवेशिक व्यवस्था को ध्वस्त करके उसकी जगह एक ऐसी देशी व्यवस्था का निर्माण करें जिसकी नींव आपसी विश्वास और विकेन्द्रीकरण के सिध्दांतों पर टिकी हुई हो।(भारतीय पक्ष)

1 COMMENT

  1. क्या आय ए एस के कारण अंग्रेजी का वर्चस्व बहुत समय तक सहा गया या नहीं ?

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