स्वामी स्वतन्त्रानन्द महर्षि दयानन्द के एक प्रमुख योग्यतम शिष्य

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Swami Swatantranandमनमोहन कुमार आर्य

स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज आर्यसमाज के अनूठे संन्यासी थे। आपने अमृतसर के निकट सन् 1937 में दयानन्द मठ दीनानगर की स्थापना की और वेदों का दिगदिगन्त प्रचार कर स्वयं को इतिहास में अमर कर दिया। आपके बाद आपके प्रमुख शिष्य स्वामी सर्वानन्द सरस्वती इसी मठ के संचालक व प्रेरक रहे। आपके जीवन पर स्वामी सर्वानन्द जी ने एक लेख के माध्यम से बहुत महत्वपूर्ण जानकारी दी है। उसी को हमने आज के इस लेख की विषय वस्तु बनाया है। स्वामी सर्वानन्द जी लिखते हैं कि पूज्यपाद सन्त शिरोमणि स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज इतिहास के एक जाने-माने विद्वान् थे। प्रो. राजेंद्र ’जिज्ञासु’ ने पूज्य स्वामी जी महाराज का जीवन-चरित लिखा है और ‘इतिहास दर्पण’ नाम से स्वामी जी महाराज के प्रेरणाप्रद लेखों की खोज, संकलन व सम्पादन किया है। स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज प्रतिवर्ष तीन बार दीनानगर मठ में कथा किया करते थे। सदा नई-नई घटनाएं और नये-नये उदहरण दिया करते थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दिनों में स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने हरियाणा का भ्रमण किया। हरियाणा सैनिक भरती का बहुत बड़ा क्षेत्र है। श्री स्वामीजी ने हरियाणा के जवानों को देश के प्रति अपना कर्तव्य निभाने की प्रेरणा दी थी। उनके देश-प्रम को उबारा। तब देश के अन्दर ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन चल रहा था और देश से बाहर आजाद हिन्द सेना देश को गुलामी के बन्धन से मुक्त करने के लिए लड़ रही थी। श्री महाराज की इस ऐतिहासिक यात्रा में श्री जगदेवसिंह सिद्धान्ती व आचार्य भगवान्देव जी, परवर्ती नाम स्वामी ओमानन्दसरस्वती उनके साथ रहे। इनका कहना था कि स्वामी जी महाराज प्रतिदिन नया-नया इतिहास और नई-नई घटनाएं सुनाते थे।

 

विख्यात शिक्षाविद् विद्यामार्तण्ड आचार्य प्रियव्रतजी कहा करते थे कि स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी को आर्यसमाज के इतिहास की छोटी-बड़ी घटनाओं का जितना ज्ञान था उतना और किसी को नहीं। आश्चर्य इस बात पर होता था कि यह सारा ज्ञान उन्हें स्मरण वा कंठस्थ था। डायरी या नोट बुक देखने की कभी आवश्यकता नहीं पड़ती थी। भारत के प्राचीन इतिहास की बातें भी स्वामीजी महाराज यदा-कदा सुनाया करते थे। एक बार प्रसिद्ध इतिहासकार श्री जयचन्द्र विद्यालंकार दीनानगर मठ, निकट अमृतसर में आये। आपने स्वामीजी महाराज से प्राचीन भारत के नगरों व प्रदेशों के नाम पूंछें। स्वामीजी ने उनकी सारी समस्या का समाधान कर दिया और एतद्विषयक एक लेख भी पत्रों में प्रकाशित करवाया। पं. चमूपति जी आर्यजगत् के एक अद्भुत लेखक, कवि व विचारक थे। आपकी स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज के प्रति असीम श्रद्धा थी। आप लाहौर में स्वामीजी महाराज से इतिहास-विषय पर घण्टों चर्चा किया करते थे। आपने लिखा है कि स्वामीजी को इतिहास की खोज का चस्का है। स्वामीजी महाराज को विभिन्न प्रदेशों, वर्गों व जातियों के इतिहास व रीति-नीति का सूक्ष्म ज्ञान था।

 

किस मत की कौन-सी बात कैसे आरम्भ हुई, कौन-सा मत कैसे पैदा हुआ, उसने संसार का क्या व कितना हित-अहित किया, विश्व पर कितना प्रभाव छोड़ा, इन सब बातों की विस्तृत विवेचना स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी किया करते थे। श्रोता व पाठक स्वामी जी महाराज के गम्भीर ज्ञान को देख, सुन व पढ़कर आश्चर्य करते थे। सिख इतिहास के भी स्वामीजी मर्मज्ञ थे। सिखमत किन परिस्थितियों में उत्पन्न हुआ, क्या कारण थे, सिखपंथ कैसे बढ़ा, इसने देश के लिए क्या किया, कहां भूल की–सिख गुरुओं का वास्तविक मन्तव्य क्या था, लोगों ने इसे कितना समझा और देश पर इसका क्या प्रभाव पड़ा, इन सब बातों का उन्हें गहरा व प्रामाणिक ज्ञान था। जाने-माने सिख विद्वान् प्रिंसिपल गंगासिंहजी की प्रार्थना पर आपने सिख मिशनरी कालेज में सिख इतिहास पर एक सप्ताह तक व्याख्यान दिये। व्याख्यानमाला की समाप्ति पर जब प्रिंसिपल गगासिंह जी ने प्रश्न पूछने को कहा तो सबने यह कहा कि हमें कोई शंका नहीं है। हमें स्वामीजी ने तृप्त कर दिया है। प्राचार्य जोधासिंह जी तो दयानन्द मठ, दीनानगर में आकर आपसे बहुत विषयों पर चर्चा किया करते थे।

 

इतिहास की घटनाओं के कारणों व परिणामों को स्वामीजी महाराज बहुत अच्छे ढंग से समझाया करते थे। एक बार उदार विचार के एक मौलाना ने जो आर्य विद्वानों के सम्पर्क में थे, स्वामी जी के सामने कुछ शंकाएं रखीं। आपने मौलवीजी के सब प्रश्नों के उत्तर दिये। आपके विचार सुनकर उस मौलाना ने कहा इस्लाम-विषयक आपके गहरे ज्ञान से मैं बहुत प्रभावित हूं। मैंने ऐसी युक्तियुक्त प्रमाणिक बातें कभी नहीं सुनी। हमारे मौलवी इतनी गहराई में जाते ही नहीं।

 

स्वामी स्वतन्त्रतानन्द जी के इतिहास विषयक विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित इतिहास विषयक लेखों का एक संलकन ‘इतिहास दर्पण’ नाम से सन् 1997 में प्रकाशित हुआ जिसका सम्पादन प्रसिद्ध विद्वान, लेखक, विचारक और इतिहासकार प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु ने किया है। स्वामी सर्वानन्द जी ने इस पुस्तक और प्रा. जिज्ञासु जी के परिचय में लिखा है कि आपने इस ‘इतिहासदर्पण’ ग्रन्थ के लिए बहुत परिश्रम किया है। इस अद्भुत पुस्तक में विभिन्न समयों में लिखे गये स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी के लेखों का संग्रह किया गया है। इस पुस्तक का पाठ करने से आर्यसमाज के इतिहास के सम्बन्ध में ऐसी-ऐसी बातों का ज्ञान होगा जो बातें लोगों ने कभी न सुनी हों और धर्म-कर्म के बारे में बहुत-सी शंकाओं का भी इतिहासदर्पण पुस्तक से समाधान होगा। श्री जिज्ञासु जी ने इन लेखों के लिए बहुत दूर-दूर के विद्वानों से सम्पर्क करने के साथ अनेक संस्थाओं एवं समाजों में जाकर खोज की है। स्वामी सर्वानन्द जी बताते हैं कि उन्हें बड़ा आश्चर्य होता है कि जो बातें धर्म और इतिहास के बारे में हमने कभी सुनी ही नहीं थी, वे बातें जिज्ञासु जी ने खोज निकाली हैं जो इतिहासदर्पण पुस्तक में संग्रहीत हैं।

 

स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी का संक्षिप्त परिचय भी जान लेते हैं। स्वामी जी का जन्म लुधियाना के मोही ग्राम में एक प्रतिष्ठित सिख जाट परिवार में पौष मास की पूर्णिमा को सन् 1877 में हुआ था। स्वामीजी के माता-पिता ने आपको ‘केहर सिंह’ नाम दिया था। आपके पिता सेना में सूबेदार मेजर थे। माता समयकौर जब दिवंगत हुई तब केहरसिंह बहुत छोटी अवस्था के बालक थे। आपका पालन आपकी नानी माता महाकौर जी ने आपके ननिहाल लताला में बड़े लाड़-प्यार से किया। आपने स्कूली शिक्षा मिडल तक प्राप्त की। आपके ननिहाल में उदासीन साधुओं के डेरे से आपका सम्पर्क हुआ। उसके महन्त पं. विशनदास जी की प्रेरणा से आपने संस्कृत पढ़ी। फरीदकोट, ऋषिकेश व अमृसर आदि नगरों में भी कई विद्वानों के पास अध्ययन किया। यूनानी व आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति का भी आपने गहन अध्ययन किया था। प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने लिखा है कि कई बड़े-बड़े हकीमों ने दयानन्द मठ, दीनानगर में आपके चरणों में बैठकर आपसे यूनानी व आयुर्वेदिक चिकित्सा की शिक्षा प्राप्त की। सन् 1898 में आपने अपनी लाखों की सम्पत्ति पर लात मार कर महर्षि दयानन्द के वेद प्रचार मार्ग को अपनाया।  सन् 1901 में आपने परवरनड़ ग्राम में स्वामी पूर्णानन्द जी से संन्यास-दीक्षा लेकर प्राणपुरी नाम पाया और कालान्तर में आप स्वामी स्वतन्त्रानन्द के नाम से प्रसिद्ध हुए। सन् 1901 में ही आपने दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों की धर्म प्रचारार्थ यात्रा की और इसका आरम्भ कलकत्ता के बन्दरगाह से जलपोत से किया। इस यात्रा में आपने मलयेशिया, फिलिपीन्स द्वीपसमूह, हिन्देशिया व चीन आदि कई देशों का भ्रमण कर वहां वेदों के अमृतमय ज्ञान की वर्षा की और सन् 1904 में स्वदेश लौटे। प्रा. जिज्ञासु जी ने स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी के पूर्णरूपेण आर्यसमाज के प्रचार से जुड़ने पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि स्वामी जी भ्रमण करते हुए वैदिक धर्म का ही प्रचार करते थे, परन्तु भारत-भ्रमण से जब पंजाब लैटे तो पं. विशनदास जी ने आपको लताला बुलाकर आर्यसमाज के साथ जुड़कर धर्मप्रचार करने की आज्ञा दी। आपने इसे प्रवृत्ति का बखेड़ा कहकर ऐसा करने में संकोच दिखाया परन्तु पं. विशनदास जी का आदेश मानते हुए आर्यसमाज के साहित्य के विशेष अध्ययन में लग गए। आपकी स्मरण शक्ति बहुत अच्छी थी। पन्द्रह दिनों में ही आपने गीता के सात सौ श्लोक कण्ठस्थ कर लिये। अब थोड़े से समय में आपने आर्यसमाज के सब महत्वपूर्ण छोटे-बड़े ग्रन्थों का स्वाध्याय करके आर्यसमाज की सेवा के लिए समर्पित हो गये। आपने पं. विशनदास जी के साथ पहली बार आर्यसमाज मोगा के वार्षिकोत्सव में भी भाग लिया। अपनी दूसरी वेद प्रचार यात्रा में आपने मारीशस में तीन वर्षों तक वेदों का प्रचार किया। वहां से लौटने के समय तक मारीशस में 58 आर्य समाजें स्थापित हो चुकी थीं। आपके जाने से पूर्व यह संख्या 13 थी और वर्तमान में यह संख्या एक सौ से अधिक है। स्वामीजी ने देश की आजादी के आन्दोलन में भी सक्रिय भाग लिया था। पराधीनता के काल में हैदराबाद में हिन्दुओं को धार्मिक आजादी नहीं थी। पाकिस्तान व बंगलादेश में हिन्दुओं पर जो प्रतिबन्ध व दमघोटू वातावरण है, वैसा ही वातावरण तब हैदराबाद के हिन्दुजगत में था। कांग्रेस व इसके प्रमुख नेताओं को हिन्दुओं के धार्मिक अधिकारों के इस हनन पर कोई सहानुभूति नहीं थी। अतः आर्यसमाज को सन् 1939 में वहां एक अभूतपूर्व व्यापक सत्याग्रह करना पड़ा जिसके फील्ड मार्शल स्वामी स्वतन्त्रतानन्द जी थे। यह आन्दोलन पूर्ण सफल रहा। देश की आजादी के बाद भारत के प्रथम उपप्रधानमंत्री और गृहमन्त्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने हैदराबाद का भारत में विलय कराया और यह स्वीकार किया कि इस हैदराबाद रियासत के भारत गणराज्य में विलय की भूमिका आर्यसमाज के सत्याग्रह ने तैयार की थी। स्वामी जी ने विश्व के अनेक देशों में प्रचार करने के साथ भारत में राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रचार, दलितोद्धार कार्य व गोहत्या निवारण के अनेक प्रशंसनीय कार्य किये। आपका जीवन अनेक पे्ररणाप्रद घटनाओं से पूर्ण है। धर्म प्रचार में आपने अपने धर्म पिता महर्षि दयानन्द के जीवन के अनुसार ही अपने जीवन व चरित्र को ढ़ाला था। प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने आपका जीवनचरित लिखकर एक अभूतपूर्व कार्य किया है। 3 अप्रैल, 1955 को 78 वर्ष की आयु में आपने नश्वर शरीर छोडा। जिज्ञासु जी ने लिखा है कि स्वामीजी गोधन की रक्षा के लिए वीरगति को प्राप्त हुए अर्थात् शहीद हुए।

 

स्वामी स्वतन्त्रानन्द महर्षि दयानन्द की परम्परा के उनके योग्यतम शिष्यों में से एक थे। उनका यशस्वी जीवन देशवासियों की एक आध्यात्मिक एवं सामाजिक धरोहर व पूंजी है। उनसे मार्गदर्शन लेकर देश और समाज को उन्नत किया जा सकता है। हम इस महापुरुष को उनके यशस्वी कार्यों के लिए अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

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