पेड न्यूज के शिकंजे में मध्यप्रदेश  के मंत्री

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संदर्भः पेड न्यूज मामले में पहली बार मंत्री के रूप में नरोत्तम मिश्रा पर दोष साबित

प्रमोद भार्गव

.पेड न्यूज के मामले में भारतीय निर्वाचन आयोग ने बड़ी कार्यवाही करके राजनेताओं के लिए बड़ी मुश्किल खड़ी कर दी है। मध्यप्रदेश  सरकार में जल संसाधन एवं जनसंपर्क मंत्री नरोत्तम मिश्रा को आयोग ने विधानसभा की सदस्यता से आयोग्य घोषित करने के साथ, आगामी तीन साल के लिए कोई भी चुनाव लड़ने पर भी प्रतिबंध लगा दिया है। आयोग का यह आदेश  तत्काल प्रभाव से लागू भी हो गया है। आयोग ने जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 में 10 (ए) के तहत आदेश  जारी होने की दिनांक से 3 साल के लिए चुनाव लड़ने से अयोग्य ठहराया है। वहीं, धारा 7 (बी) के अनुसार विधानसभा की सदस्यता से भी मिश्रा को वंचित कर दिया है। जाहिर है, मिश्रा 2018 में होने वाले मध्यप्रदेश  विधानसभा का चुनाव और 2019 में होने वाले लोकसभा का चुनाव भी नहीं लड़ पाएंगे। यह फैसला कांग्रेस से दतिया में मिश्रा के खिलाफ 2008 में चुनाव लड़ने वाले राजेंद्र भारती द्वारा आयोग को दायर याचिका के सिलसिले में सुनाया गया है। याचिका में सबूतों सहित यह दावा किया गया था कि मिश्रा ने अनेक मदों में जो धन खर्च किया है, एक तो उसका हिसाब नहीं दिया, दूसरे अखबार और समाचार चैनलों में पेड न्यूज के जरिए अपने पक्ष में समाचार देकर माहौल बनाने का काम किया।

हालांकि चुनाव आयोग ने तो केंद्र सरकार से यह अपील की थी कि प्रचार के दौरान समाचार माध्यमों में प्रत्याशियों के पक्ष में धन लेकर प्रकाशित व प्रसारित किए जाने वाले वाले समाचारों,मसलन पेडन्यूज खबरों को चुनावी अपराध घोषित करने का कानून बनाया जाए। क्योंकि पेड न्यूज के चलते दल और उम्मीदवारों को प्रचार का समान धरातल नहीं मिल पाता है। इस फैसले में इस दलील को मुख्य आधार बनाया गया है। लेकिन आयोग के इस प्रस्ताव को डाॅ मनमोहन सिंह सरकार ने तो अनसुना किया ही, नरेंद्र मोदी सरकार ने भी कोई तबज्जों नहीं दी। खैर, अब इस फैसले का लब्बोलुआब यह है कि मिश्रा को जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 11 के तहत निर्वाचन आयोग और उच्च न्यायालय में अपील की गुंजाइष है। सर्वोच्च न्यायालय का भी रास्ता खुला है। गोया, मिश्रा को जल्द ही स्थगन आदेश  मिल सकता है। इस फैसले में इसलिए भी गुंजाइश है, क्योंकि पेड न्यूज की शिकायत 2008 के विधानसभा चुनाव की थी। इस दौरान 2013 के चुनाव हुए और नरोत्तम मिश्रा दतिया से ही चुनाव जीते भी। चूंकि मामला 2008 के चुनाव से संबंधित था और आयोग का फैसला आने के बाद प्रभावित 2013 का चुनाव हो रहा है। यह ऐसी बड़ी विसंगति है, जिसके आधार पर न्यायालय से स्थगन तो आसानी से मिल ही जाएगा, सुनवाई के बाद अदालत आयोग के फैसले को खारिज भी कर सकती है। बहरहाल, विलंब से फैसला आने के कारण मिश्रा का पलड़ा भारी है।

सही सूचना या समाचार स्वयं एक ताकत है। इसलिए समाचार का माध्यम प्रिंट हो इलेक्ट्रोनिक अथवा सोषल मीडिया सटीक और संपूर्ण समाचार के प्रकाशित या प्रसारित होने से पाठक की जागरूकता बढ़ती है और उसका सषक्तीकरण होता है। निर्णय लेने की उनकी सोच परिपक्व होती है। इसलिए मीडिया की विश्वसनीयता बनी रहना लोकतंत्र के लिए जरूरी है। इस साख को बचाए रखने में तब चुनौती पेश आने लगती है,जब समाचार माध्यमों की ‘जगह‘ ;स्पेस किसी भूखंड की तरह बेची जाने लागे। भूखंड का विक्रय प्रति वर्ग फीट की दर से किया जाता है। अखबार अपनी जगह प्रति काॅलम प्रति वर्ग सेंटीमीटर की दर से बेचते हैं। इलैक्ट्रोनिक मीडिया में इसी जगह का नामाकरण ‘स्पेस‘ हो गया है। इसे सामान्य और प्राइम टाइम में प्रति सेकेण्ड की दर से बेचा जा रहा है। गोया, पेड न्यूज पर प्रतिबंध लगना जरूरी है। इस प्रतिबंध की उम्मीद तब ठीक से की जा सकेगी, जब निर्वाचित प्रतिनिधि के साथ स्पेस बेचने वाले मीडिया समूह को भी दंडित करने का कानून बने ?

याद रहे 2008-09 ही वह साल था, जब पेड न्यूज के बाबत संपादकों के एक समूह ने निर्वाचन आयोग को शिकायत की थी। इस मुद्दे को प्रखर पत्रकार-संपादक प्रभाष जोशी ने पुरजोरी से उठाया था। इसी शिकायत के बाद 2010 में जब बिहार विधानसभा के चुनाव हुए तो पहली बार आयोग ने पेड न्यूज पर निगरानी के उपायों की शुरूआत की थी। एक अनुमान के अनुसार कुल चुनाव खर्च का 40 प्रतिषत मीडिया प्रबंधन पर खर्च होता है। भारत में इस छिपे बाजार का पेड न्यूज से संबद्ध कारोबार 500 करोड़ रूपए का हो गया है। चुनाव आयोग ने 17 विधानसभा चुनावों में पेड न्यूज के 1400 मामले पकड़े हैं। ‘सही न्यूज लाता है,न कि पेड न्यूज‘ का दावा करने वाले अंग्रेजी के प्रसिद्ध अखबार ‘द हिंदुस्तान टाइम्स‘ को प्रेस परिषद की उप समिति ने दोषी माना था। लेकिन परिषद् को दंड के अधिकार नहीं हैं, इसलिए अन्य मीडिया घरानों ने पेड न्यूज को कारोबार मान लिया। नतीजतन यह बीमारी देश  के नामी-गिरामी भाषाई अखबारों को लग गई।  जिसके फलस्वरूप समाचार माध्यमों की निष्पक्षता प्रभावित हुई। जाहिर है, पत्रकारिता की निष्पक्षता को कलंकित करने वाली पेड न्यूज की महिमा जहां भी है,उसे जड़ मूल से नष्ट करने के लिए इसे अपराध के दायरे में लाना चाहिए। स्व-नियंत्रण के शगलों से मुनाफे की हवस का आदी हो चुका मीडिया बाज आने वाला नहीं है।

चुनाव आयोग और न्यायालयों की सख्ती के चलते इतना तो हुआ है कि पैसा देकर विज्ञापन के रूप में खबर छपवाने वाले  प्रत्याशी तो इस रूप में दंडित होने लगे हैं। उन्हें आरोप सिद्वृ होने पर कुछ साल के लिए चुनाव लड़ने से वंचित किया जाने लगा है। लेकिन समाचार माध्यम किसी भी प्रकार के दंड से बचे हुए हैं। कार्यवाही की इस जद में उत्तर प्रदेश  के बिसौली विधानसभा क्षेत्र की विधायक रहीं श्रीमति उर्मिलेष यादव को भी तीन साल के लिए चुनाव लड़ने से रोक दिया था। किसी निर्वाचित प्रतिनिधि पर यह पहली बड़ी कार्यवाही थी। महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण भी इस जद में आ चुके हैं। किंतु धन लेकर समाचार छापने वाले माध्यमों को अब तक दंडित नहीं किया गया है। भारतीय प्रेस परिषद् और न्यूज ब्राॅडकाॅस्टर्स एसोसियशन भी इस सिलसिले में लाचार दिखाई देते हैं। किसी माध्यम के दोषी पाए जाने पर वे उसके कृत्य की निंदा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। दरअसल हमारे यहां किसी आयोग, परिषद् और निरीक्षण की समानांतर संस्थाओं को दोषी को दंडित करने का अधिकार ही नहीं है, इसलिए इन संस्थाओं द्वारा की गई जांचों की दोषी परवाह ही नहीं करते।

दरअसल, भारतीय मीडिया उद्दण्ड इसलिए है,क्योंकि संविधान प्रदत्त उसकी स्वतंत्रता को किसी एक सीधी रेखा में परिभाषित करना मुश्किल है। संविधान में अनुच्छेद 19 ;1 के अंतर्गत अभिव्यक्ति के अधिकार की गांरटी दी गई है। प्रेस या समाचार माध्यमों की स्वतंत्रता इसी अपरिभाषित अधिकार का हिस्सा है। गोया,संविधान में विस्तार से इसकी कहीं व्याख्या नहीं है। इस कमजोरी का लाभ उठाकर मीडिया अमार्यादित और उच्छृंखल हुआ है। औद्योगिक घरानों के पूंजी निवेष के बाद मीडिया बेलगाम घोड़ा हो गया है। नतीजतन वह पत्रकारिता के मानक आदर्श और उच्च नैतिकता से पृथक होकर पूंजी से स्वयं की स्वार्थ सिद्धी और विस्तार में लग गया है। देखते-देखते ‘देश  में सबसे तेजी में बढ़ता अखबार‘ के श्लोगन अनेक समाचार-पत्रों के प्रगति व विकास के बीज-मंत्र हो गए। बावजूद अभी भी चंद ऐसे अखबार और समाचार चैनल हैं, जो अपनी तटस्थ और ईमानदार खबरों व विश्लेशणों से मीडिया की छवी व साख बनाए रखे हैं और देश  व समाज के व्यापक हितों की चिंता कर रहे हैं। लेकिन ऐसे माध्यमों की प्रसार संख्या न केवल सीमित है,बल्कि निरंतर घट रही है। इसलिए पेड न्यूज के बहाने किए जाने वाले भ्रष्टाचार को अपराध के दायरे में लाकर समाचार माध्यमों को दंडित करने का रास्ता भी खोलना जरूरी होगा।

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