रिटायरमेंट की पीड़ा …!!

imageतारकेश कुमार ओझा

मि. खिलाड़ी और लक्ष्मीधर दोनों की आंखों में आंसू थे। क्योंकि दोनों संयोग से एक ही दिन रिटायर हो गए या यूं कहें कि कर दिए गए। हालांकि रिटायर दोनों ही नहीं होना चाहते थे। बल्कि रिटायरमेंट का ख्याल भी दोनों को डरा देता था। मि. खिलाड़ी पिछले तीन साल से टीम में नहीं थे। हालांकि उन्हें भरोसा था कि एक न एक दिन टीम में उनकी वापसी हो जाएगी। मीडिया वाले उनसे अक्सर पूछते … तो आप रिटायरमेंट कब हो रहे हैं … बदले में मुस्कुराते हुए उनका एक ही रटा – रटाया जवाब होता… अभी रिटायरमेंट का मेरा कोई इरादा नहीं है। अपने पूर्ववर्ती दूसरे कथित महान खिलाड़ियों की तरह मन मारते हुए जब उन्होंने अपने रिटायरमेंट की घोषणा की तो उनके साथ ही उनके लाखों चाहने वालों की आखों से भी आंसू निकल पड़े। अरे अभी उम्र ही क्या हुई थी… अभी तो पट्ठे के भीतर कई साल का क्रिकेट भरा था… वगैरह – वगैरह। एक रिटायरमेंट ने उन्हें गुमनामी की दुनिया से निकाल कर सुर्खियों में ला दिया था। कोई भी चैनल खोलो… एक ही दावा मि. खिलाड़ी का रिटायरमेंट के बाद का पहला एक्सक्लूसिव इंटरव्यू… फलां ने सिर्फ हमसे बात की। इससे मैं चकरा जाता हूं। अरे भईया … रोज तो देख रहा हूं इंटरव्यू, फिर एक्सक्लूसिव कैसे हो गया। चैनल पर एंकर मि. खिलाड़ी से सवाल कर रहा है… रिटायरमेंट के बाद कैसा लग रहा है… आफ कोर्स … मैं इंज्वाय कर रहा हूं…। क्या आपको अफसोस है कि आपको समय से पहले रिटायर कर दिया गया … मि. खिलाड़ी इसका बड़ी चतुराई से गोलमोल जवाब दे रहा है… मानो कोई मंजा हुआ राजनीतिज्ञ हो… देखिए जब रिटायर हो ही गया… तो अब गड़े मुर्दे उखाड़ने का क्या फायदा…। सवाल… अब भविष्य का इरादा है… आफ कोर्स मैं नई पीढ़ी के लिए ट्रेनिंग सेंटर खोल कर देश में खेल का विकास करुंगा। बातचीत के दौरान मि. खिलाड़ी के करियर व शानदार पारियों को महिमामंडित कर बार – बार दिखाया जा रहा है। दूसरी ओर लक्ष्मीधर की पीड़ा दूसरी है। जनाब जन्म से अंधे नाम नयनसुख वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए सिर्फ लक्ष्मीधर नाम लिए ही घूमते रहे। रहे तो पुलिस महकमे में होमगार्ड। साथी जवानों की तरह खाकी भी पहनते थे। लेकिन उन जैसों सी बेचारे की किस्मत कहां। पुलिस की नौकरी बजाते हुए एक तरह से दैनिक मजदूर ही बने रहे। लिहाजा उनके साथी जवान जहां चांदी कूटते रहे। हाथ गंदे करते रहने के बावजूद बेचारे के हाथ ज्यादा कुछ नहीं लग पाया। कई बार नौकरी जाते – जाते बची। अधिकारी गीदड़ भभकी देते हुए चेतावनी देते रहते… जानता हूं … तुम लोगों की तनख्वाह कम है इसलिए इस बार छोड़ रहा हूं… लेकिन अगली बार नहीं छोड़ूंगा। मि. खिलाड़ी की तरह ही एक दिन न चाहते हुए भी रिटायर कर दिए गए। जमा – पूंजी के नाम पर हाथ कुछ नहीं आया। कल्याण के मद में जो रकम कटती थी, उसकी वापसी के लिए भी अधिकारियों के दरवाजे – दरवाजे मत्था टेकते रहे। लेकिन सफलता नहीं मिल पाई। अब बेचारे की आंखों में आंसू है। बाल – बच्चे उलाहना दे रहे हैं कि जिदंगी भर खाकी पहन कर क्या किया। हर पहचान वाले से लक्ष्मीधर पूछता है… अब आगे की जिंदगी कैसे कटेगी। क्योंकि मुझे तो कोई पेंशन मिलेगा नही… न कोई जमा सर्विस ही मिली है। बुढ़ापे में भी चार पैसे कमाने के लिए लक्ष्मीधर ने कई लोगों से मुलाकात की। समय काटने का हवाला देते हुए कुछ काम देने की अपील की। बदले में चंद हजार रुपए के बदले 12 -12 घंटे की चौकीदारी के आफर ने उसे तोड़ कर रख दिया। लेकिन मि. खिलाड़ी की पीड़ा उससे कहीं ज्यादा गहरी है। भले ही कुछ साल खेल कर वह अकूत धन – संपित का मालिक बन गया हो। लेकिन उसका विषाद चेहरे पर साफ नजर आता है। इससे पहले अनेक महान खिलाड़ियों को इस दौर से गुजरते देख चुका हूं। सचमुच बड़ी त्रासद स्थिति है यह किसी भी खेल प्रेमी के लिए। अपने पसंदीदा खिलाड़ी को इस तरह रोते – बिलखते देखना भला कौन चाहेगा।ऐसे में रिटायर होने वाले खिलाड़ियों के भले के लिए सरकार को तुरंत बूढ़े खिलाड़ियों की एक टीम बना देनी चाहिए। जिससे वे अवसाद से बच सके

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तारकेश कुमार ओझा
पश्चिम बंगाल के वरिष्ठ हिंदी पत्रकारों में तारकेश कुमार ओझा का जन्म 25.09.1968 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में हुआ था। हालांकि पहले नाना और बाद में पिता की रेलवे की नौकरी के सिलसिले में शुरू से वे पश्चिम बंगाल के खड़गपुर शहर मे स्थायी रूप से बसे रहे। साप्ताहिक संडे मेल समेत अन्य समाचार पत्रों में शौकिया लेखन के बाद 1995 में उन्होंने दैनिक विश्वमित्र से पेशेवर पत्रकारिता की शुरूआत की। कोलकाता से प्रकाशित सांध्य हिंदी दैनिक महानगर तथा जमशदेपुर से प्रकाशित चमकता अाईना व प्रभात खबर को अपनी सेवाएं देने के बाद ओझा पिछले 9 सालों से दैनिक जागरण में उप संपादक के तौर पर कार्य कर रहे हैं।

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