कश्मीर के पंचायत प्रतिनिधि सिर्फ नाम के!

शगुफ्ता वानी

हाल ही में जम्मू-कश्मीर सरकार ने एक महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए पंचायतीराज व्यवस्था को प्रभावी बनाने की कवायद तेज की है। सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों के विकास से संबंधित 14 विभागों के अधिकार पंचायतों को सौंपने का फैसला किया है। जिसमें विकास योजनाओं से लेकर राजस्व वसूली तक के अधिकार शामिल हैं। इससे राज्य के करीब 33 हजार पंच-सरपंच न सिर्फ अपने इलाके के विकास में भागीदार होंगे बल्कि स्थानीय प्रशासनिक कार्यों में भी उनका प्रतिनिधित्व बढ़ेगा। इस संबंध में राज्य के मुख्य सचिव की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय कमिटी का गठन किया गया है। जो पंचायत प्रतिनिधियों को विभिन्न प्रशासनिक अधिकार प्रदान करने व उन्हें इन अधिकारों के इस्तेमाल में समर्थ बनाने की कार्य योजना तैयार करेगा। इसके लिए एक व्यावहारिक पाठ्यक्रम व प्रशिक्षण कार्यक्रम भी तैयार किया जाएगा। जिसमें पंचायत प्रतिनिधियों को उनकी भूमिका से अवगत कराया जाएगा। इसके अतिरिक्त उन्हें फ्लैगशिप परियोजनाओं की मौलिक जानकारी देते हुए बजट आवंटन, योजना निर्माण, वित्त एवं संपत्ति तथा सोशल ऑडिट की भी जानकारी दी जाएगी। प्रशिक्षण कार्यक्रम में विभागीय तौर पर पंचायत प्रतिनिधियों को प्रषिक्षित करने के लिए 400 रिसोर्स पर्सन्स के अलावा 1000 इंडिपेडेंट रिसोर्स पर्सन्स भी शामिल होंगे।

पंचायत चुनाव के एक साल बाद पंच और सरपंचों को उनके अधिकार सौंपने का सरकार का फैसला दरअसल उसके देर से जागने की तरह है। पिछले वर्श संपन्न हुए जम्मू-कश्मी र पंचायत चुनाव की चर्चा मीडिया में काफी सरगर्म रही थी। पंचायत चुनाव का उद्देश्यम यह था कि पंचायती सतह पर आम आदमी को भी विकास का हिस्सेदार बनाया जाए। दो दशक बाद हुए इस चुनाव से राज्य की जनता को भी काफी उम्मीदें थीं। ऐसा लगा था कि देश के अन्य क्षेत्रों की तरह यहां के लोग भी अपनी समस्याओं का स्थानीय स्तर पर निवारण करने के हकदार हो जाएंगे। परंतु चुनाव के एक साल बाद भी अवाम तो क्या, चुने गए प्रतिनिधि तक स्वंय को ठगा हुआ महसूस करने लगे क्योंकि अब तक पंचायत प्रतिनिधियों को उनके अधिकार नहीं दिए गए थे। यही कारण है कि इन लोगों ने राज्य के कई क्षेत्रों में अधिकार की मांग करते हुए प्रदर्षन करना षुरू कर दिया। इसके बावजूद जब इनकी आवाजें राज्य सरकार तक नहीं पहुंची तो इन्होंने अपनी एक कमिटी बना ली और काली टोपियां, बैनरों और नारों के साथ राजधानी की सड़कों पर उतर आए। शायद यही कारण है कि 5 जून 2012 मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की अध्यक्षता में राज्य कैबिनेट की एक मिटिंग हुई जिसमें पंचायतों को अधिकार सौंपने के अमल पर गंभीर चर्चा हुई। इसके लिए एडीसी को 15 दिनों के अंदर पंचायतों को उनके अधिकार सौंपे जाने के आदेश को अमल में लाने का जिम्मा दिया गया। इसके साथ ही पूरे राज्य के पंचायतघरों के निर्माण, मरम्मत और जीर्णाद्धार के लिए 115 करोड़ रूपए भी मंजूर किए गए।

पंचायती राज का मुख्य उद्देष्य ग्रामीण क्षेत्रों में राजनीतिक और सामाजिक जागरूकता को बढ़ावा देना ताकि आम लोग निर्माण और विकास की योजनाओं में समान रूप से भागीदारी निभा सकें। बुनियादी सतह पर लोगों की भागीदारी से आर्थिक खुशहाली के साथ साथ समाज का विकास हो सके। इन उद्देश्यं को देखते हुए पंचायती राज को एक बेहतरीन कदम कहा जा सकता है। जिससे लोगों की बुनियादी समस्याएं हल करने में मदद मिलती है। जहां तक बात जम्मु व कश्मीमर की है तो यहां पंचायतीराज व्यवस्था की परिकल्पना कोई नई नहीं है। बल्कि यह पुरानी बोतल में नई शराब की तरह है। क्योंकि देश के अन्य हिस्सों में भले ही पंचायतीराज व्यवस्था को आजादी के बाद लागू किया गया हो, परंतु जम्मु कश्मीसर में राजा महाराजाओं के दौर में भी पंचायती व्यवस्था सफलतापूर्वक कार्य अंजाम दे रही थी। गुलाम हसन तालिब के अनुसार वर्तमान मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के दादा स्वर्गीय शेख अब्दुल्ला के दौर में ही पंचायत को मजबूत बनाने के लिए ‘ग्रामीण विकास‘ विभाग की स्थापना की गई थी। साथ ही विभाग से एक मासिक पत्रिका ‘देहाती दुनिया‘ भी प्रकाषित हुआ करती थी। जिसका संपादन गंगाधर भट्ट देहाती किया करते थे। इस दौर में पंचायत के फैसलों की बहुत कद्र की जाती थी। आमजन में यह मशहूर था कि पंचों का फैसला ईश्वीर का फैसला होता है। यह और बात है कि देश के अन्य क्षेत्रों में समय समय पर पंचायत चुनाव होते रहे। लेकिन पिछले कुछ दहाईयों से राजनीतिक अस्थिरता के कारण जम्मू-कश्मीचर की जनता पंचायतीराज से महरूम रही है।

सभी जानते हैं कि पंचायतीराज सिस्टम अन्य राजनीतिक पहलूओं से कहीं अधिक फायदेमंद होता है। यह लोकतंत्र का एक ऐसा हिस्सा है जिससे लोगों की बुनियादी समस्याएं उनके घर में ही हल हो जाती हैं। विधानसभा और पंचायत में फर्क यह है कि विधानसभा चुनाव में पूरे क्षेत्र से सिर्फ एक उम्मीदवार सदस्य बनता है लेकिन पंचायत में एक ही क्षेत्र में कई लोग सदस्य बनते हैं जो विकास के लिए मिलकर फैसला लेते हैं। इसके अलावा एक अहम चीज जो इसके फायदे को बढ़ाता है वह है आम आदमी की और आम आदमी तक पंचायत प्रतिनिधि की पहुंच। दूसरी बात यह भी है कि एक विधानसभा सदस्य से लेकर मंत्री तक के क्षेत्र में सड़क, बिजली, पानी और शिक्षा जैसे बुनियादी कार्यों को जमीनी स्तर पर क्रियान्वित करवाने में पंचायत की भूमिका सर्वोपरि होती है। साथ ही स्थानीय झगड़ों का निपटारा करने में भी पंचायत का रोल काफी महत्वपूर्ण होता है। जिससे पुलिस और अदालत का बोझ कम हो जाता है।

जहां तक बात जम्मू व कश्मी र के वर्तमान पंचायतीराज की है तो यह यहां की जनता के लिए घाटे का सौदा साबित हो रहा है। क्योंकि सरकार ने इसके चुनाव में काफी जल्दबाजी दिखाई थी। पहले से जनता को पंचायतीराज के फायदे और इससे समाज के विकास में होने वाली मदद के संबंध में कोई विशेष जानकारी नहीं दी गई थी। जल्दबाजी के पीछे प्रमुख कारण राज्य में हो रहे पत्थरबाज़ी को रोकना था। बेहतर तो यह था कि सरकार पहले लोगों को इससे संबंधित संपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराती। तब जाकर अवाम विशेषकर चुने गए शिक्षित और युवा प्रतिनिधि आगे बढ़कर समाज के विकास में योगदान देते और किसी सकारात्मक परिणाम की उम्मीद की जाती। इस बार के पंचायत में निर्वाचित कुछ ऐसे प्रतिनिधि भी हैं जिन्होंने प्राथमिक शिक्षा भी हासिल नहीं की है। ऐसे अप्रशिक्षित जनप्रतिनिधि अक्सर अपने पद का दुरूपयोग करते हुए आम आदमी के साथ साथ सरकारी विभागों पर भी रौब झाड़ते मिल जाएंगे। ऐसा लगता है कि जनप्रतिनिधि न होकर दंबग हैं। कुछ पंचायत प्रतिनिधि ऐसे भी हैं जिनके खिलाफ पुलिस थानों में आपाराधिक केस दर्ज हैं। हाल ही में राज्य के कुछ हिस्सों से पंचायत प्रतिनिधियों को धमकियां मिलने के बाद इस्तीफा देने की खबरों ने पंचायती व्यवस्था के क्रियान्वयन की राज्य सरकार की कोशिशों को धक्का पहुंचाया हैं। अपनी सुरक्षा को देखते हुए कई पंच और सरपंचों ने पद से न सिर्फ इस्तीफा दे दिया है बल्कि इसे समाचारपत्र में भी इश्तेऔहार के रूप में प्रकाशित करवाना आरंभ कर दिया है। हालांकि सरकार की ओर से ऐसे तत्वों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की बात भी की जा रही है। लेकिन इस्तीफे रूके नहीं हैं।

वर्तमान में पंचायत प्रतिनिधियों को अधिकार सौंपने में एक वर्ष लगने के पीछे भले ही सरकार कोई भी कारण गिनाए। परंतु सच यही है कि स्वंय राज्य के विधानसभा सदस्य अपना अधिकार पंचायत स्तर पर बांटने को तैयार नहीं थे। बहरहाल एक वर्ष बाद ही सही सरकार द्वारा उठाए गए कदम से राज्य की आम जनता की उम्मीदें फिर से जगी हैं। बुनियादी समस्याओं के हल के लिए उन्हें अपना अधिकार प्राप्त जनप्रतिनिधि मिल गया है। लेकिन उनकी उम्मीदें कितनी पूरी होंगी यह चुने गए पंचायत प्रतिनिधियों की भूमिका पर निर्भर करेगा। गेंद अब उनके पाले में है। (चरखा फीचर्स)

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