पंचायती व्‍यवस्‍था ने बदला कश्‍मीरी समाज का नजरिया

मो. अनीसुर्रहमान खान 

आंतकवाद से ग्रसित कश्‍मीर की फिज़ा में धीरे-धीरे बदलाव के संकेत आ रहे हैं। अवाम बदूंक की बजाए लोकतंत्र का समर्थन करने लगी है। इसका सबूत देने के लिए करीब तीन महीने पहले संपन्न हुए पंचायत चुनाव और उसके बाद के सामाजिक बदलाव ही काफी हैं। लगभग दस साल के लंबे अर्से बाद हुए इस चुनाव में बड़ी संख्या में लोग घरों से निकलकर वोट डालने आए थे। इसका एक प्रमुख कारण यह भी था कि कश्‍मीरियों का यह विश्‍वास हो चला है कि इसके माध्यम से उनकी समस्याओं का हल हो सकता है। खास बात यह रही कि घाटी के कुछ मुस्लिम बहुल इलाकों में मुस्लिम उम्मीदवारों के बावजूद लोगों ने पंच और सरपंच जैसे महत्वपूर्ण पदों पर हिंदु उम्मीदवार को चुना। जो इस बात का संकेत था कि कश्‍मीरी भी बिना भेदभाव के अपने जन्नत नजीर का विकास चाहते हैं। शांतिपूर्ण और भारी मतदान कर घाटी के अवाम ने गेंद राज्य सरकार के पाले में डाल दिया। जो लगातार दावा कर रही थी कि ग्रामीण क्षेत्रों की समस्याओं का समाधान पंचायत में ही निहित है और अगर पंचायत चुनाव सफल हुए तो उन्हें अधिकार प्रदान किए जाएंगे। हालांकि चुनाव से पहले इस बात का जमकर दुश्प्रचार किया गया कि पंचायत अधिकारविहीन होगी और लोगों को मायूसी के अलावा कुछ हासिल नहीं होगा। लेकिन चुनाव के कुछ माह बाद मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने पंचायत को अधिकार देने का वादा पूरा कर अपनी सरकार की मंशा साफ कर दिया।

 

बहरहाल पंचायत चुनाव के तीन महीने बाद हालात का जायजा लें तो कहीं न कहीं यह साफ होता जा रहा है कि कश्‍मीरी समाज को लोकतंत्र रास आने लगा है। उन्हें इस बात का अंदाजा होने लगा है कि हर मुद्दे का समाधान बंदूक और पत्थर में नहीं बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में है। वास्तव में पंचायत चुनाव ने कश्‍मीर के ग्रामीण क्षेत्रों की दशा और दिशा को बदल दिया है। इसके माध्यम से अब अपने अधिकार के प्रति उनमें जागरूकता आ चुकी है। पहले जहां लोग सरकारी कामों में कोई खास दिलचस्पी नहीं लेते थे। वहीं अब स्थानीय स्तर पर होने वाले कार्यों में उनकी भागीदारी देखी जा सकती है। आंगनबाड़ी, जनवितरण प्रणाली, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र तथा स्कूली कामों में बढ़चढ़ कर भाग लेते हैं और अपने पंचायत प्रतिनिधि से हिसाब किताब भी मांगने में संकोच नहीं करते हैं। इसका एक ताजा उदाहरण कुपवाड़ा जिला अंतर्गत सलामतवाड़ी गांव है जहां कुछ दिनों पहले खबर आई थी कि गांव के एक चौकीदार की तत्परता से आंगनबाड़ी केंद्र में हो रहे घपले का पर्दाफाश हुआ। जो सुपरवाइजर की मिलीभगत से पिछले कई सालों से धड़ल्ले से चल रहा था। खास बात यह है कि अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं होने के कारण इस छोटे से गांव के अंदर हो रहे घपले की तरफ पहले कभी किसी ने ध्यान नहीं दिया था। इसी तरह दर्दपूरा जिसे अक्सर ”विधवाओं का गांव” के नाम से भी जाना जाता है, यहां बुनियादी सुविधाओं का भी घोर अभाव था। पाकिस्तानी सीमा से सटे इस आखिरी मानव बस्ती में न तो परिवहन का कोई साधन था और न ही गांव वाले जनवितरण प्रणाली का लाभ उठा पाते थे। लेकिन अब पंचायत चुनाव के बाद यहां का मंजर कुछ और हो चुका है। पंचायत के माध्यम से लोगों को सरकारी सुविधाओं का लाभ पहुंचने लगा है। विधवाओं को भत्ता तथा बुढ़ों को पेंशन मिलने लगी है जो पहले कभी मयस्सर नहीं था। इतना ही नहीं स्वंय गांव वाले न सिर्फ सरकारी स्कीमों का फायदा उठा रहे हैं बल्कि अपने अधिकारों के उपयोग के प्रति भी जागरूक हो चुके हैं। पंचायत की कोशिशों से पहली बार इस गांव से सीधे राजधानी श्रीनगर तक बस सर्विस षुरू हो गई तथा लोगों को जनवितरण प्रणाली का भरपूर लाभ भी मिलने लगा है।

 

वास्तव में पंचायत के गठन के बाद कश्‍मीर के ग्रामीण क्षेत्रों में हो रहे बदलाव के पीछे अन्य कारणों में एक जो सबसे अहम है वह है युवाओं की भागीदारी। इस बार के पंचायत चुनाव में बड़ी संख्या में नौजवानों ने हिस्सा लिया और जीते। जिनकी आंखों में अपने क्षेत्र के विकास का सपना पलबढ़ रहा था। उनके इसी जोश और जज्बे ने राज्य में पंचायत को सशक्त बना दिया है। उदाहरण के तौर पर कुपवाड़ा जिला अंतर्गत सलामतवाड़ी से चुने गए पंच बषीर अहमद पीर और सरपंच अहमद मीर दोनों ही जनप्रतिनिधि 24-25 साल के युवा हैं। यही कारण है कि आज इस गांव के लोग सरकारी स्कीमों का भरपूर फायदा उठा रहे हैं। यहां तक कि गांव में होने वाले छोटे मोटे झगड़ों का निपटारा भी पुलिस थानों की बजाए पंचायत में ही कर लिया जाता है। इन नौजवान जनप्रतिनिधियों की कोषिषों की बदौलत मनरेगा के तहत लोगों को पहले से ज्यादा काम मिलने लगा है।

 

हालांकि पंचायतों को दिए जाने वाले अधिकारों को सीमित करने का राज्य सरकार पर विधायकों की तरफ से ही दबाब था जो अपने अधिकारों को उनके साथ बांटने के लिए तैयार नहीं थे। अधिकारों के इस विकेंद्रीयकरण के साथ उन्हें अपने क्षेत्र में अपना ही दबदबा खत्म होने का खतरा नजर आने लगा था। बहरहाल पंचायत को अधिकार प्रदान कर उमर अब्दुल्ला सरकार और जनता के बीच रिष्ते मजबूत हुए हैं। जनता के इसी विश्‍वास ने ही उन्हें अपनों और विपक्षों के बनाए चक्रव्यूह से बाहर निकाला है जो उन्हें राज्य का कमजोर और जनता का विश्‍वास खो देने वाला मुख्यमंत्री साबित करने के सारे अस्त्र इस्तेमाल कर चुके थे। लेकिन कुल मिलाकर एक बात सच साबित हुई है कि पंचायती व्यवस्था से कश्‍मीर की ग्रामीण जनता का जहां सरकार पर विश्‍वास बढ़ा है वहीं सरकारी अफसरों को भी अपने फर्ज का बखूबी अहसास हो चुका है। (चरखा फीचर्स)

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