पत्रों में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम

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प्रमोद भार्गव

पाश्चात्य इतिहास लेखकों की स्वार्थपरक और कूटनीतिक विचारधारा से कदमताल मिलाकर चलने वाले कुछ भारतीय इतिहास लेखकों के चलते आज भी इतिहास की कुछ पुस्तकों और ज्यादातर पाठ्य पुस्तकों में यह मान्यता चली आ रही है कि 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम अंग्रेजी मान्यता के खिलाफ बर्बरतापूर्ण संघर्ष था। वह संग्राम तत्कालीन ब्रितानी हकूमत, अपदस्थ राजामहाराजाओं, जमींदारों तथा कुछ विद्राही सैनिकों तक सीमित था। जबकि इसी संग्राम को विद्रोह की संज्ञा देने वाले इतिहास लेखक यह निर्विवाद रूप से स्वीकारते हैं कि उस समय के शक्ति संपन्न राजघराने ग्वालियर, हैदराबाद, कश्मीर, पंजाब,बड़ोदा,इन्दौर, नेपाल के नरेशों और भोपाल की बेगमों ने फिरंगी सत्ता की मदद नहीं की होती, तो भारत 1857 में ही दासता से मुक्त हो गया होता। अंग्रेजी सत्ता के कवच बनने वाले इन नरेशों को अंग्रजों ने स्वामिभक्त कहकर दुलारा भी था।

मध्यप्रदेश के राजकीय अभिलेखागार (भोपाल) में 1857 के संग्राम से संबंधित कुछ पत्र संगृहीत है। ये पत्र महारानी लक्ष्मीबाई, रानी लड़ई दुलैया, राजा बखतबली सिंह, राजा मर्दन सिंह, राजा रतन सिंह और उस क्रांति के महान योद्घा, संगठक एवं अप्रतिम सेनानायक तात्या टोपे द्वारा लिखे गए थे। इनमें कई पत्र ऐसे हैं, जो आम आदमी, किसानों और सैनिकों द्वारा लिखे गए है। इन पत्रों की भावना से यह स्पष्ट होता है कि प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का विस्तार दूरदराज के ग्रामीण अंचलों तक हो रहा था और केवल स्वतंत्रता की इच्छा से आम व्यक्ति क्रांति के इस महायज्ञ में अपने अस्तित्व की समिधा डालने को तत्पर हो रहा था।

1857 के स्वतंत्रता संग्राम से संबंधित इन पत्रों की प्राप्ति का इतिहास भी रोचक है। आजादी की पहली लड़ाई जब चरमोत्कर्ष पर थी, तब तात्या टोपे अपनी फौज के साथ ओरछा रियासत के गांव आष्ठौन में अंग्रेजों से मोर्चा लेने की तैयारी में जुटे हुए थे। तात्या टोपे के आष्ठौन में होने की खबर मुखबिरों से अंग्रेजों को लग गई और अंग्रेजी फौज ने यकायक तात्या के डेरे पर हमला बोल दिया। उस समय तात्या टोपे मोर्चा लेने की स्थिति में नहीं थे। लिहाजा, ऊहापोह में तात्या अपना कुछ बहुमूल्य सामान यथास्थान छोड़कर सुरक्षित भाग निकले।

उस दौरान ओरछा के दीवान नत्थे खां थे। तात्या द्वारा जल्दबाजी में छोड़े गए सामान की पोटली नत्थे खां के एक विश्वसनीय सिपाही ने उन्हें लाकर दी। इस सामान में एक बस्ता था, जिसमें जरूरी कागजात और चिट्ठीपत्री थीं। इसी सामान में एक तलवार और एक उच्चकोटि की गुप्ती भी थी। नत्थे खां के यहां कोई पुत्र नहीं था, इसलिए यह धरोहर उनके दामाद को मिली। दामाद के भी कोई पुत्र नहीं था, लिहाजा तात्या टोपे के सामान के वारिस उनके दामाद अब्दुल मजीद फौजदार बने, जो टीकमगढ़ के निवासी थे।

स्वतंत्र भारत में 1976 में टीकमगढ़ के राजा नरेन्द्र सिंह जूदेव को इन पत्रों की खबर अब्दुल मजीद के पास होने की लगी। नरेन्द्र सिंह उस समय मध्यप्रदेश सरकार में मंत्री भी थे। उन्होंने इन पत्रों के ऐतिहासिक महत्व को समझते हुए तात्या की धरोहर को राष्ट्रीय धरोहर बनाने की दिशा में कदम उठाया। उन्होंने इन पत्रों की वास्तविकता की पुष्टि इतिहासकार दत्तात्रेय वामन पोद्दार से भी कराई। उन्होंने इन पत्रों के मूल होने का सत्यापन किया। प्रसिद्व ऐतिहासिक उपन्यास लेखक डावॢन्दावनलाल वर्मा ने भी इन पत्रों को मौलिक बताते हुए तय किया कि सामान में प्राप्त तलवार तथा गुप्ती भी तात्या टोपे की ही हैं। डॉ वर्मा ने यह भी तय किया कि जिस स्थान और जिस समय इस सामाग्री का मिलना बताया जा रहा है, उस समय वहां तात्या टोपे के अलावा किसी अन्य सेनानायक ने पड़ाव नहीं डाला था।

तात्या के बस्ते से कुल 255 पत्र प्राप्त हुए थे, जो देवनागरी (हिन्दी) एवं फारसी लिपि में थे। हिन्दी पत्रों की भाषा ठेठ बुंदेली है। इन पत्रों में 125 हिन्दी में और 130 उर्दू में लिखे हुए हैं। पत्रों के साथ एक रोजनामचा भी है।

तात्या की तलवार और गुप्ती भी अनूठी है। तलवार सुनहरी नक्काशी के मूठ वाली है, जो मोती बंदर किस्म की बताई गई। इस तलवार की म्यान पर दो कुंदों में चार अंगुल लंबे बाण के अग्रभाग जैसे पैने हथियार हैं। इन हथियारों पर हाथी दांत के बने शेर के मुंह की आकृतियां लगी हुई हैं। इसी तरह जो गुप्ती प्राप्त हुई, वह भी विचित्र है। गुप्ती की मूठ सोने की है। इसके सिरे पर एक चूड़ीदार डिबिया लगी हुई है, जिसमें इत्रफुलेल रखने की व्यवस्था है। तात्या टोपे की यह अमूल्य धरोहर अब राजकीय अभिलेखागार, भोपाल का गौरव बढ़ा रही है। पत्रों को पढ़ने से पता चलता है कि 1857 का स्वतंत्रता संग्राम किस गहराई से आम जनता का संग्राम बनता जा रहा था और आम आदमी किस दीवानेपन में राष्ट्र की बलिवेदी पर आत्मोत्सर्ग के संस्कार में लह रहा था। समर के इस अछूते अध्याय की बानगी इन पत्रों में दृष्टव्य है

तात्या टोपे के नाम लिखे पत्र में राजा बखतबली सिंह लिखते हैं, एजेंट हैमिल्टन ने गोरी फौज को लेकर राहतगढ़ पर आक्रमण किया है।

खुरई बानपुर में हुई लड़ाई में कानपुर के करीब 700 और अंग्रेजों के 500 सैनिक मारे गए। अंग्रेजों ने बलपूर्वक पन्ना, बिजावर, टेहरी, बरखारी और छतरपुर के राजाओं को अपनी ओर मिला लिया है। अंग्रेज शाहगढ़ और बानपुर के बाद झांसी पर कब्जा करने की योजना बना रहे थे।

अतः अंग्रेज फौज से मुकाबला करने के लिए सहायता भेजी जाए। तात्या टोपे के नाम लिखे पत्र में महाराजा रतन सिंह लिखते हैं, हमने तीन लाख रूपया जमा करा दिया है मगर हमसे कौलनामा किसी पंडित को भेजकर लिखा लिया जाए। हमारी इज्जत रखी जाए। अब हम फौज सहित कूच करते हैं। हमारी ओर से किसी बात पर तकरार नहीं होगी। तात्या टोपे के नाम लिखे पत्र में श्रीराम शुक्ल तथा गंगाराम लिखते हैं, सिरोली के घाट पर अंग्रेज कैप्टन और नवाब बांदा की भीड़ रोकने के लिए सेना की सहायता एवं तोप चाहिए। चांदपुर के थानेदार भी दो सौ बन्दूक लेकर हमारे साथ हैं।

एक अन्य पत्र में मनीराम एवं गंगाराम ने तात्या टोपे को लिखा है, सिरोली चखुरा, भौरा, चांदपुर, गाजीपुर के जमींदार अंग्रेजों से मोर्चा लेने को तैयार हैं। अंग्रेजों द्वारा गोली चलाने पर वे धावा बोलेंगे। गौरी पलटन को कालपी न पहुंचने देने के लिए कम्पू का बंदोबस्त भी किया जाए।

तात्या टोपे को लिखे पत्र में महाराज कुमार गणेश जुदेव ने तात्या टोपे को अपने डेरे पर बुलाया तथा लड़ाई में ठाकुरों के साथ होने का हवाला दिया, जिसमें कुंवर बुध सी, क्षमा जुदेव के नामों का उल्लेख है। उन्होंने लिखा है, इनके सबके मन साफ हैं और मैं बीच में हूं।

तात्या टोपे को मूरती सिंह, शिवप्रसाद और गौरीशंकर अवस्थी लिखते हैं, हमीरपुर व सिरोली को मदद के लिए दो तोंपें, एक कम्पनी तथा राजा लोगों की 500 फौजी जल्दी भेजें। गोरे सिरोली के उस पार पांच तोपें लगाकर गोलाबारी कर रहे हैं। तात्या टोपे को लिखे एक पत्र में जानकारी दी गई है कि करीब एक सौ अंग्रेज अधिकारी व सिपाही ग्वालियर के किले मे घुस गए हैं और उन्हें बेदखल करने के लिए हजारों लोग किले के अंदर पहुंच गए हैं। तात्या टोपे की जीत पर एक पत्र में जैतपुर के फौजदार सवाई माधोसिंह ने खुशी जाहिर की है।

रानी लड़ई दुलैया द्वारा राजा बखतबली सिंह के नाम लिखे पत्र में कहा गया है, पन्ना की जो फौज हटादमोह में थी, उसने नदी पार करके यहां के इलाके पर तोपें चला दी हैं। फतेहपुर को जब्त करने का विचार है, जबलपुर में गुरबियों की फौज अंग्रेजों से बिगड़ गई है। पलटन अब हटा खाली कराना चाहती है, कई जगह लड़ाई चल रही है इसलिए पचाससाठ मन बारूद, शोरा और गंधक की जरूरत है। तात्या टोपे को लिखे एक पत्र में रानी लड़ई दुलैया ने सूचित किया है, पेश्वा के पास उन्होंने कुछ लोग भेजे हैं और वे पेशवा के सूबा जलालपुर में ठहरे हुए हैं।

महारानी लक्ष्मीबाई ने रानी लड़ई दुलैया को एक पत्र लिखकर याद ताजा कराई है, दोनों ओर से अच्छे संबंधों की परंपरा रही है, इसलिए आपसी फौज की ओर से कोई वारदात नहीं होनी चाहिए।

तात्या टोपे को लिखे एक पत्र में राजा मर्दनसिंह ने लिखा है, फौज समेत फौरन आएं। बुंदेलखंड के राजा अंग्रेजों से मिल गए हैं। अंग्रेज बानपुर शाहगढ़ और झांसी पर कब्जा करने की योजना बना रहे हैं। 1857 में ही हमीरपुर से निकलने वाले हमीर नामक एक समाचार पत्र में पत्रकार जलील अहमद ने खबर छापी है कि तात्या टोपे की कोठी में दो षड्यंत्रकारी, जो बंधूकधारी थे, मौजा रमेली खालपुर में तात्या टोपे की हत्या की साजिश रचते हुए पकड़े गए। इन्हें तात्या के सामने पेश किया गया।

तात्या टोपे के नाम लिखे पत्र में मनफूल सुकूल ने जानकारी दी है, गोरों ने मुनादी पिटवाई है कि विद्राहियों को जो कोई रसद्मदद देगा, उसे बच्चों समेत फांसी पर लटका दिया जाएगा। ओरछा के दीवान नत्थे खां ने एक विशेष पत्र हरकारे द्वारा भेजकर रानी झांसी को सूचित किया है कि मोर्चाबंदी की तैयारी की जाए।

पंडित मोहनलाल ज्योतिषी ने तात्या टोपे को लिखे एक पत्र के साथ अतीन्द्रिय शक्तियों द्वारा रक्षा किए जाने के लिए एक जंत्र भी भेजा। इस पत्र में उल्लेख है हम फकीर साहब के साथ बैठकर दो जंत्र तैयार कर आपके पास भेज रहे हैं। जो छोटा जंत्र है, वह आप बांध लें और बड़ा जंत्र निशान पर बांध देना। ईश्वर अच्छा करेगा।

इन पत्रों से यह उजागर होता है कि भारतीयों के अंतःकरण में दासता से मुक्ति के लिए जोश और अंग्रेजों के खिलाफ जबरदस्त आक्रोश पैदा हो गया था उस समय आम आदमी ने अपने राष्ट्रीय धर्म का अहसास किया और अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तत्पर हुआ। 1857 के इन बलिदानियों ने ही राष्ट्रीय चरित्र की अवधारणा को अभिव्यक्ति दी। यह संग्राम हिन्दू मुस्लिम एकता का भी अनूठा उदाहरण था।

 

1 COMMENT

  1. इस प्रकार की जानकारी स्थान स्थान पर बिखरी पड़ी है. अफ़सोस ये है की सत्त्धारियों की निगाह में केवल एक परिवार और एक दल के कुछ नेताओं ने ही देश को आज़ादी दिलाई है. अतः आज़ादी की लड़ाई के इन बिखरे दस्तावेजों को बटोरकर देश की नयी पीढ़ी के सामने रखने की आवश्यकता उन्हें नहीं लगती. लेकिन आप के द्वारा इस सम्बन्ध में रिपोर्ट प्रकाशित करके इतिहास शोधकों को अच्छा मौका दिया है.आवश्यकता इस बात की है की देश भर में बिखरे इन सूत्रों को संकलित करके देश के इतिहास के पुनर्लेखन का काम करना चाहिए. ये काम देशभक्त संगठनों को करना होगा.

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