संसद पर टिकी निगाहें

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संदर्भः राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण

 

oppositionप्रमोद भार्गव

भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के केंद्र की सत्ता में काबिज होने के बाद यह लगातार दूसरा ऐसा अवसर दिखाई दे रहा है,जब संसद में सरकार की डगर बेहद कठिन है। शायद इसीलिए राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा दोनों सदनों की संयुक्त बैठक को संबोधित करते हुए कहना पड़ा है कि संसद जनता की सर्वोच्च अदालत होने के कारण अकांक्षाओं का प्रतिबिंब है। इसलिए सांसदों का बुनियादी कर्तव्य बनता है कि वे अवरोध पैदा करने की बजाय लोक-तांत्रिक तरीका अपनाते हुए चर्चा करें और समस्याओं के हल खोंजे। साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि सवा अरब देशवासियों की निगाहें संसद की कार्यवाही पर टिकी हैं और विश्व का ध्यान भी इस मौजूदा बजट-सत्र पर कुछ ज्यादा ही है,लिहाजा सरकार की अलोचना हो,लेकिन महत्वपूर्ण मुद्दों पर सार्थक चर्चा भी हो। इन दो संवैधानिक पदों पर बैठे हुए देश के नायकों की इन नसीहतों को लोकतंत्र की आत्मा कहा जा सकता है। इसलिए विपक्ष और सभी सांसदों का दायित्व बनता है कि वे संसद को हुल्लड़ में बदलने की बजाय सद्भाव से काम लें और परस्पर सहयोग व सद्भाव से बहस का अनुकूल माहौल बनाने में अपना योगदान दें।

यदि राजग के कार्यकाल में चले अब तक के लोकसभा व राज्यसभा सत्रों का हिसाब लगाएं तो निराशा ही हाथ लगेगी। पिछला पूरा सत्र गैर विधायी बहसों में होम हो गया था और अब एक बार फिर हरियाणा में आरक्षण को लेकर हुए जाट आंदोलन और देश के दो केंद्रीय विश्वविद्यालयों में राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के परिप्रेक्ष्य में फिर से माहौल गरम है। राहुल को प्रत्यक्ष राजनीति में हस्तक्षेप करते हुए डेढ़ दशक का समय बीत गया है,लेकिन अभी वे विधायी मुद्दों पर नीतिगत बहस करने से बचते हैं। इसीलिए वे विवि से जुड़े उन दोनों मुद्दों को हवा-पानी दे रहे हैं,जिन्हें देशद्रोही गतिविधियों से जुड़े होने के कारण उकसाने की कतई जरूरत नहीं थी। बावजूद राहुल गांधी जवाहरलाल नेहरू विवि गए और वहां उन छात्रों को उकसाने का काम किया,जो सांस्कृतिक कार्यक्रम के बहाने संसद के हमलावर अफजल गुरू को याद करते हुए राष्ट्रभक्त कहा और देश के टुकड़े करने के नारे लगाए। इसके पहले राहुल हैदराबाद उन छात्रों के बीच भी गए जो याकूब मेमन की फांसी को गलत ठहरा रहे थे। इस हद तक राजनीति के स्तर को ले आने वाले राहुल से यह उम्मीद करना नामुमकिन है कि वे राष्ट्रपति की नसीहत को कान देंगे। जाहिर है,देशद्रोही गतिविधियों जैसे मुद्दों पर भी टकराव के हालात की मानसिकता उत्पन्न करने की स्थिति में यह असंभव है कि पेश किए जाने वाले विधेयक और अन्य समस्याओं पर करगर बहस होगी ?

जबकि राष्ट्रपति ने राजग सरकार के 20 महीनों के कार्यकाल का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हुए उपलब्धियों की जो फेहरिष्त गिनाई है,उनपर तार्किक आलोचना करने का विपक्ष का फर्ज बनता है। राष्ट्रपति ने भ्रष्टाचार खत्म करने के उपायों,प्रशासन को सरल बनाने के कदमों और भारत-पाकिस्तान संबंधों को सुधारने की पहल का विशेष उल्लेख किया है। साथ ही भारत की आर्थिक रूप से मजबूत होती स्थिति का भी जिक्र किया है। यही वह स्थिति है,जिससे आम आदमी के जीवन-स्तर में बदलाव आने की उम्मीद है। राष्ट्रपति ने सरकार के संकल्प को दोहराया है कि ‘सबका साथ,सबका विकास‘ अवधारणा में सरकार का विश्वास है और वे इस नाते सशक्त व आत्मनिर्भर भारत के निर्माण में जुटी है। ‘मेक इन इंडिया‘ का स्वप्न इन्हीं अवधारणओं में अंतर्निहित है।

इस नाते विपक्ष का कर्तव्य बनता है कि वह अनर्गल वार्तालाप की बजाय उन विधेयकों पर बारीकी से बहस करे,जिन्हें सरकार संसद के दोनों सदनों से पारित कराना चाहती है। इस दृष्टि से वस्तु एवं सेवा कर,श्रम सुधार,जल मार्ग और भूमि अधिग्रहण विधेयक लंबित हैं,उन पर बहस करके विपक्ष को जनता के सामने अपनी बौद्धिक तर्किकता दिखाने की जरूरत है। जीएसटी पर संविधान संशोधन विधेयक पिछले सात वर्ष से लंबित है। हालांकि संसदीय कार्यमंत्री वेंकैया नायडू ने जाताया है कि वे विपक्षी दलों के उपयोगी सुझावों को प्रारूप में शामिल करके इसे संसद में मंजूरी के लिए पेश करेंगे ? इस विधेयक के संदर्भ में दावा किया जा रहा है कि यदि यह लागू हो जाता है तो इससे एकल कर प्रणाली अस्तित्व में आएगी और राज्यों द्वारा लगाए जाने वाले एक दर्जन से भी अधिक प्रकार के कर इसमें समाहित हो जाएंगे ? विधेयक पारित हो जाता है तो इसे अप्रैल 2016 से अमल में भी ला दिया जाएगा।

इसी कड़ी में भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक लंबित है। इसका पारित होना भी असंभव है,क्योंकि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जुलाई 2015 में नीति आयोग की बैठक बुलाई थी,तब संप्रग सरकार के कार्यकाल 2013 में लाए गए इस विधेयक पर भी चर्चा प्रस्तावित थी। केवल इस वजह से कांग्रेस शासित नौ राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने बैठक का बहिष्कार किया था। इसके अलावा तमिलनाडू,ओडिशा,उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री भी नहीं आए थे। जयललिता और ममता बनर्जी ने तो लिखित रूप में विधेयक पर अपनी असहमति जताई थी। भाजपा शासित राज्यों को छोड़,जो वहां अन्य मुख्यमंत्री उपस्थित थे,उन्होंने संप्रग सरकार में बने विधेयक को ही किसान हितैशी बताते हुए,इसमें परिवर्तन की गुजांइश को नकार दिया था। यही वजह थी कि, शीत सत्र में संशोधित विधेयक तनिक भी आगे नहीं खिसक पाया था। दरअसल इस विधेयक में संशोधन की पहल भाजपा के लिए बर्र का छत्ता साबित हो रही है। खेती-किसानी से जुड़े लोगों ने संशोधन को अपने हितों पर कुठाराघात माना है। जिसका सिला मतदाताओं ने भाजपा को दिल्ली और बिहार के विधानसभा चुनावों में दिया भी है। इन दो महत्वपूर्ण विधेयकों के अलावा,रियल स्टेट रेग्युलेशन बिल,भ्रष्टाचार रोधी विधेयक,अनुसूचित जाति और जनजाति अत्याचार निवारण संशोधित विधेयक,मानसिक स्वास्थ्य देखभाल विधेयक और बालश्रम संशोधित विधेयक अटके हुए हैं। महिला आरक्षण और समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दों को इस सत्र में छूना ही मुश्किल है। जाहिर है,संसद में सरकार की डगर इस सत्र में कांटों पर चलने जैसी दिखाई देगी।

हालांकि यह बात अपनी जगह सही है कि संसद को चलाने की जबावदेही सत्ता पक्ष की होती है। विपक्ष का रोड़े अटकाना एक स्वाभविक प्रक्रिया के अंतर्गत है। बावजूद ऐसा विरोध नहीं होना चाहिए,जिसका लक्ष्य केवल संसद को ठप करना हो ? दूसरी तरफ सत्ता पक्ष की भी यह जिम्मेबारी बनती है कि वे अपने मंत्री और सांसदों के बड़बोलेपन पर अंकुश लगाए। क्योंकि सत्ता पक्ष के लोगों की ओर से ऐसे भड़काने वाले बयान लगातार आ रहे हैं,जो जाति और धर्म से जुड़ी भावनाओं को आहत करते ही हैं,संविधान की मर्यादा का भी उल्लंघन करते हैं। ऐसी लोकतंत्र शर्मसार होता है और जनता में संदेश अच्छा नहीं जाता। इसलिए अब जरूरत यह है कि सत्तापक्ष और संपूर्ण विपक्ष अपने दलगत हितों से ऊपर उठकर देशहित को देखें और विधायी कार्यों से जुड़ी कार्यवाहियों को अंजाम तक पहुंचाएं। देश के व्यापक हित से जुड़े जो विधेयक और मुद्दे हैं,उनपर आम सहमति बनाएं और संसद को चलने दें। क्योंकि व्यर्थ की बहस और टकराव से राष्ट्रीय हित तो प्रभावित हो ही रहे हैं,विभिन्न दलों के बीच कटुता भी बढ़ रही है। यदि बढ़ती कटुता को,यह सत्र भी होम हो जाता है तो तय होगा कि दलों और नेताओं को राष्ट्र के बुनियादि हितों की परवाह नहीं है।

 

 

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