अपनी संसदीय परंपराओं को ध्वस्त करने में जुटे हैं सत्तापक्ष और विपक्ष के नेता
संजय द्विवेदी
संसद को चलता न देखकर भी आखिर देश में कोई हलचल क्यों नहीं हैं ? वे कौन से लोग और कारण हैं जिनके लिए संसद का चलना या न चलना कोई मायने नहीं रखता? आखिर हमारी संसद क्यों इस तरह ठप पड़ी है? क्या इससे सांसदों का मान बढ़ रहा है या लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति का? ऐसे तमाम सवाल हमें मथ रहे हैं। किंतु इन सवालों का उत्तर यही है इस प्रसंग से इन संस्थाओं की गरिमा गिर रही है। संवाद और बातचीत के लिए बनायी गयी संस्थाओं की गरिमा का क्षरण हो रहा है। शायद इसीलिए आज ये संस्थाएं बेमानी भी साबित हो रही हैं। यहां होने वाली बातचीत भी अगर इस तरह अप्रासंगिक करार की जाएगी तो हमारे लोकतंत्र के पास क्या बचेगा। सदन को चलाने की जिम्मेदारी दरअसल सत्ता पक्ष की है, किंतु जाने किस मद में सत्ता पक्ष ने एक जिद पकड़ रखी है और यह हठ देश पर भारी पड़ रहा है। देश की जनता आज अवाक है कि हठ देश पर भारी हैं और नैतिकता के सारे तकाजे भुलाए जा चुके हैं। ऐसे में हमारी संसदीय परंपराओं और उनकी गौरवशाली स्मृतियों पर पानी फेरने का काम हो रहा है।
जाहिर तौर पर सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों को इस पाप से मुक्त नहीं किया जा सकता कि वे संसद को ठप रखने के अपराधी हैं। क्या जिदें देश और हमारी संसद से बड़ी होनी चाहिए, निश्चित ही इसका जवाब नकारात्मक ही होगा। देश के सामने जो सवाल है निश्चय ही बहुत बड़ा है। हमारी संसदीय व्यवस्था में हमारे पास जांच के जो दो तरीके हैं वे है- जेपीसी (संयुक्त संसदीय समिति) या पीएसी (लोकलेखा समिति)। किंतु किसी एक पर दोनों पक्षों का सहमत न होना उनके अहंकार का ही प्रकटीकरण है। यूं लगता है कि संसद को चलाने में दोनों पक्षों की सीमित रूचि है। इससे निश्चय ही लोकतंत्र आहत हो रहा है। संवाद की परंपराएं जिससे लोकतंत्र जीवंत बनता है, आहत हो रही हैं। आज हम देखें तो सत्तापक्ष और विपक्ष की सदन को न चलाने को लेकर एक समझ नजर आती है। क्योंकि बहस और संवाद से रास्ते निकलते हैं किंतु राजनीति प्रभावित होती है। संसद न चलने देने में दोनों को सुख है। शीतकालीन सत्र सही मायने में एक ऐसा सत्र है जो सबसे महत्व का है क्योंकि इस सत्र में बजट पर बात होती है। जनता के पैसे का क्या होगा वह भी इस सत्र में तय होता है। अद्भुत कि हमारी सरकार ने बिना बहस के एक्सेस बजट स्वीकृत करवा लिया। सरकार इसी सत्र में पूरक अनुदान मांग का प्रस्ताव रखती है। लेकिन सारा कुछ बिना के बहस पास हो गया। यह कैसी राजनीतिक नैतिकता है। आखिर हमारी राजनीति देश को कहां ले जा रही है। दिल्ली की संसद में मचे धमाल से राज्यों की विधानसभाएं भी प्रभावित हैं। वे भी वैसा ही माहौल बनाने की कोशिशें करती दिखती रही हैं। मध्यप्रदेश विधानसभा का शीतकालीन सत्र ऐसी ही स्थितियों का शिकार दिखा। कई राज्यों में इसी तरह के चित्र देखे गए। आप देखें तो संसद और हमारी विधानसभाएं निरंतर महत्वहीन हो रही हैं। उनके सत्र लगातार छोटे होते जा रहे हैं। इसमें सत्तापक्ष अपनी सुविधा देख रहा है। ऐसे में हमारा लोकतंत्र बेमानी साबित हो रहा है। संसद के संचालन के दौरान भी जिस तरह की रूचि सदन की कार्यवाही में लेनी चाहिए, आमतौर पर सांसद नहीं लेते। यह एक दूसरी बड़ी चिंता है। हंगामे, हो-हल्ले और विधेयकों को फाड़ने, कागजों को छीनने का उत्साह, गंभीर बहसों में लापता दिखता है। मीडिया भी संसद के असली कामकाज पर कम नजर रखता है। जाहिर तौर पर यह स्थितियां चिंता में डालने वाली हैं। हमें देखना होगा कि आखिर हम किस तरह संसदीय परंपराओं को जीवंत बना सकते हैं। हमारे पास एक शानदार अतीत है। जहां एक लोकतांत्रिक चेतना से लैस सांसद दिखते थे। विरासत ऐसी कि पं. जवाहरलाल नेहरू जैसे लोकतंत्र के अनुरागी और बहसों में भरोसा रखने वाले प्रधानमंत्री का देश को नेतृत्व मिला था। आज हालात यह हैं कि बहसों से हमारे बड़े नेता ही भागते नजर आते हैं। ऐसी स्थितियां लोकतंत्र को कमजोर ही कर रही हैं। हमारी संसद अगर अपना महत्व खो रही है तो हम लोकतंत्र पर गर्व करते हुए बैठे नहीं रह सकते। इसलिए संसद को ठप करने का पाप सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों के सिर पर है। देश में हो रहे घोटाले और बेलगाम सरकारों पर लगाम लगाने के लिए ही संसद सबसे उपयुक्त मंच है किंतु अगर हमने सारा कुछ सड़कों पर तय करने का फैसला किया है तो इसे उचित नहीं कहा जा सकता। इससे हम अपने लोकतंत्र का सौन्दर्य ही खो रहे हैं, जो असहमति के स्पेस से ही पुष्पित और पल्लवित होता है। वरना देश की सबसे बड़ी पंचायत, सत्तापक्ष की मनमानियों पर मुहर लगाने वाली संस्था के अलावा क्या बचेगी। लोकतंत्र के मुखौटे में क्या यह अधिनायक तंत्र की वापसी नहीं है, इस पर विचार जरूर कीजिएगा ।