पार्टी है या उपनिवेश

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AAPआखिकार आम आदमी पार्टी के जनरल अरविंद केजरीवाल और उनके लेफ्टिनेंटों की जिद् के हवनकुंड में राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, प्रोफेसर आनंद कुमार और अजीत झा की आहुति चढ़ ही गयी। अभिव्यक्ति पर तानाषाही भारी पड़ी और सत्ता के आगे जुनुन हार गया। अभिव्यक्ति के पेरोकारों को राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बहुमत ने बाहर का रास्ता दिखा दिया। अब उन्हें पार्टी से भी निष्कासित किया जाता है तो अचरज नहीं होना चाहिए। राजनीति की रवायत रही है कि सत्ता मिलने के बाद सियासत का सलीका बदल जाता है। फिर भी राजनीति के उच्च आदर्शका परखा जाना कभी बंद नहीं होता। देर-सबेर अरविंद केजरीवाल को भी उस कसौटी से गुजरना ही होगा जिस पर दूसरों को कसकर निपटा रहे हैं। उन्हें समझना होगा कि वे भले ही अपने वैचारिक विरोधियों को निपटाने में सफल रहे लेकिन उनका यह प्रहार विरोधियों पर कम आम आदमी पार्टी के मूल पर ज्यादा है। इसकी कीमत स्वयं केजरीवाल और उनकी बंधक बन चुकी आम आदमी पार्टी को भी चुकानी होगी। शायद सत्ता के गुमान में उन्हें निंदक नियरे रखने का मर्म का भान नहीं है।

यह व्यवहारिक सच्चाई है कि प्रकाश पाने के लिए ताप के आंच को सहना पड़ता है। लेकिन केजरीवाल को आलोचना का ताप बर्दाष्त नहीं। उन्हें गुणगान का ठंडक चाहिए। जरा याद कीजिए कि किस तरह उन्होंने अन्ना के आंदोलन का चोला उतार फेंक राजनीति का दामन ओढ़ा और उपेक्षित रहे आम आदमी की जरुरतों और आकांक्षाओं से खुद को जोड़कर आम आदमी पार्टी की नींव डाली। भरोसा दिया कि उनकी राजनीति लीक से हटकर होगी और वे निःस्वार्थ ढंग से देश की सेवा करेंगे। यह भी कहा कि उनकी पार्टी का स्वभाव व चरित्र अन्य राजनीतिक दलों से भिन्न होगा। लेकिन उन्होंने साबित कर दिया कि उनकी कथनी और करनी में फर्क है। मसला चाहे अपने साथियों को निपटाने का हो अथवा सत्ता हासिल करने के लिए, वे राजनीति की बुराईयों से सदैव समझौता करते देखे गए। कांग्रेस पार्टी को भ्रश्टाचारी बताया और उसके समर्थन से सरकार चलायी। माना कि किसी भी राजनीतिक दल के लिए सत्ता हासिल करना परम लक्ष्य है। यह बुराई भी नहीं है। राजनीतिक दल के गठन का उद्देष्य ही सत्ता हासिल करना है। लेकिन इसका तात्पर्य यह तो नहीं कि राजनीतिक विचाराधारा व सिद्धांत-मूल्यों का कोई महत्व ही नहीं? ओछी और सिमटी हुई सियासत कभी भी जनतंत्र के विस्तार की शर्तें तय नहीं करती। यह सही है कि दलों के सृजन की प्रक्रिया में सिर्फ सर्जक ही जन्म नहीं लेते बल्कि भस्मासुर भी पैदा होते हैं जो अपने स्वार्थ के लिए सिद्धांतों और मूल्यों को बलि चढ़ाने से हिचकते नहीं हैं। लेकिन केजरीवाल अनुषासन के नाम पर आंतरिक लोकतंत्र की गर्दन मरोड़ देंगे इसकी कल्पना षायद ही किसी को रही हो। देश हतप्रभ है कि जो सदस्य आंदोलन की कोख से निकले पार्टी के संस्थापक सदस्य रहे और जिन्होंने अपने खून-पसीना से पार्टी को सींचा उन्हें धक्के मारकार राश्ट्रीय कार्यकारिणी से बाहर क्यों किया गया? क्या पार्टी अपने सिद्धांतो और आदर्षों को भूल गयी?

अगर नहीं तो फिर योगेंद्र यादव और उनके साथियों ने ऐसा क्या जुर्म किया कि उन्हें गद्दार मान लिया गया? राजनीतिक दलों में विचारों का न मिलना और मुद्दों पर टकराव-विमर्ष दलीय लोकतंत्र का हिस्सा है। यह दल को लोकतांत्रिक और जवाबदेह बनाता है। कार्यकर्ताओं में उत्साह पैदा करता है। राजनीतिक दलों के समक्ष राश्ट्रीय हितों की प्राथमिकता होनी चाहिए न कि उन पर वैचारिक टकराव और श्रेश्ठता हावी होनी चाहिए। पर ऐसा प्रतीत होता है कि आम आदमी पार्टी के नायक अपनी पूरी उर्जा अपनी श्रेश्ठता और सर्वाधिकारवाद सुरक्षित करने में खर्च कर रहे हैं। अन्यथा कोई वजह नहीं कि बहुमत की लाठी से अभिव्यक्ति को हांका जाए और तानाषाही का ऐहतराम किया जाए। यह समझ से परे है कि अगर योगेंद्र यादव और उनके साथियों ने पार्टी को आरटीआई के दायरे में लाने, दिल्ली सरकार में आरोपी मंत्रियों को हटाने, आरोपियों को चुनाव में टिकट न देने, पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र मजबूत करने और पार्टी को जवाबदेह बनाने की मांग की तो यह किस तरह अनर्थकारी, बगावती और पार्टी के साथ गद्दारी है? क्या यह सच नहीं है कि आम आदमी पार्टी की स्थापना के समय अरविंद केजरीवाल ने पार्टी को पारदर्षी और जवाबदेह बनाने की बात कही थी? इसके अलावा उन्होंने यह भी कहा था कि उनकी पार्टी देश में व्यवस्था परिवर्तन का संवाहक बनेगी। लेकिन सच्चाई है कि आम आदमी पार्टी राजनीति के कठोर धरातल पर अपने आदर्षों और उच्च नैतिकता को प्रमाणित नहीं कर पायी। यह अचरज भी नहीं है। सामान्यतः आंदोलन की कोख से उपजने वाले हर राजनीतिक दल अपने राजनीतिक सिद्धांत और दर्षन में मानवीय मूल्य और आमजन की पक्षधरता का एलान तो करते हैं और कमोवेश जनता उस पर विष्वास भी कर लेती है। लेकिन सच्चाई यह है कि सत्ता प्राप्ति के बाद उनके आदर्ष और मूल्य बिखर जाते हैं।

सैद्धांतिक दर्षन का मानवीय पक्ष तिरोहित हो जाता है। राजनीतिक मूल्य स्वार्थ की भठ्ठी में जल जाता हैं। सच्चा कार्यकर्ता खिसककर हाषिए पर चला जाता है और चापलूसों की बन आती है। कुछ ऐसा ही हाल आम आदमी पार्टी के साथ भी हुआ है। निष्चित रुप से आम आदमी पार्टी की राश्ट्रीय कार्यकारिणी को यह अधिकार है कि इसमें कौन रहे और कौन जाए सुनिष्चित करे। पर जिस तरह बैठक में योगेंद्र यादव और उनके साथियों को अपना पक्ष रखने का मौका नहीं दिया गया, उनके साथ मारपीट की गयी, पार्टी के लोकपाल को आने से मना किया गया और बहुमत-दबंगई के जोर से निर्णय सुना दिया गया उससे पार्टी कठघरे में है। खुद केजरीवाल की छवि एक तानाषाह की बनी है। साथ ही आम आदमी पार्टी की सैद्धांतिक मर्यादा और जन जवाबदेही के दावा का पाखंड भी उजागर हो गया है। देश-दुनिया में संदेश गया है कि आम आदमी पार्टी अब लोकतांत्रिक नहीं रही बल्कि अरविंद केजरीवाल की उपनिवेश बन चुकी है। अब देश व दिल्ली की जनता को केजरीवाल को जवाब देना चाहिए कि वे राजनीति में उन गांधीवादी मूल्यों और उदार-लोकतांत्रिक विचारधारा की स्थापना कैसे करेंगे जिसका ढ़िढोरा पीटा था। उन करोड़ों लोगों के सपनों को कैसे पूरा करेंगे जो सड़-गल चुकी राजनीतिक व्यवस्था से तंग आकर आम आदमी पार्टी को वैकल्पिक राजनीति की धुरी माना? उस भरोसे व सपने को कैसे परा करेंगे जो उन्होंने दिल्ली के लोगों को दिखाए हैं? बहरहाल केजरीवाल सरकार दिल्ली के लोगों की अपेक्षाओं को कैसे पूरा करेंगे यह तो वक्त बताएगा। पर राश्ट्रीय कार्यकारिणी का अराजक अखाडे़ में तब्दील होना आम आदमी पार्टी की छवि को धुल-धूसरित कर दिया है। इस बात पर भी मुहर लग गयी है कि अब आदमी पार्टी के लिए राजनीतिक सिद्धांत व मूल्यों को कोई महत्व नहीं। उसके लिए सत्ता सर्वोपरि है।

याद होगा आमचुनाव के बाद योगेंद्र यादव ने अरविंद केजरीवाल पर कटाक्ष करते हुए कहा भी था कि ‘पार्टी व्यक्ति पूजा से घिर गयी है और बड़े-बड़े फैसलों में एक व्यक्ति की ही इच्छा झलकती है। जब उसका दिमाग बदलता है तो पार्टी अपने कदम बदल लेती है।’ उन्होंने यह भी कहा था कि ‘जब सभी फैसलों और सफलताओं का श्रेय एक व्यक्ति को दिया जाता है तो सभी आरोप भी एक ही व्यक्ति पर जाएंगे।’ उनका इषारा अरविंद केजरीवाल की तानाषाही को लेकर था। ऐसा नहीं है कि सिर्फ योगेंद्र यादव या प्रषांत भूशण ने ही अरविंद की तानाषाही को उद्घाटित किया हो। अभी तक जितने भी लोगों ने पार्टी छोड़ी है, सभी ने एक सुर में केजरीवाल की तानाषाही को जिम्मेदार बताया है। यही नहीं तमाम स्टिंग आॅपरेशन से भी अरविंद का असली चेहरा सामने आया है। पिछले दिनों एक आॅडियो में वे कांग्रेस को तोड़कर सरकार गठन की बात कहते हुए सुने गए। इससे अंजलि दमानिया क्षुब्ध हुई और पार्टी से इस्तीफा दे दिया। राश्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक से दो दिन पहले सामने आए एक अन्य स्टिंग आॅपरेशन में वे अपने साथियों को भद्दी-भद्दी गालियां देते सुने गए। सवाल लाजिमी है कि क्या अरविंद का असली चेहरा यही है? क्या आम आदमी पार्टी उनका उपनिवेश बनने की ओर है? षायद कुछ ऐसा ही प्रतीत हो रहा है।

 

–अरविंद जयतिलक

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