राजीव रंजन प्रसाद
वहाँ मैं बहुत देर तक आँखे बंद किये बैठा रहा। भगवान महावीर के निर्वाण स्थल पावापुरी पहुँच कर हृदय को यह सु:खद संतोष था कि मैने उस मील के पत्थर को स्पर्श किया जिन्होंने अहिन्सा शब्द के वास्तविक मायनों से हमें परिचित कराया। निर्वाण कक्ष से उठ कर मैने थोडा समय घाट पर बिताया; एक मनोरम झील का चारो ओर विस्तार था जिसके बीचोबीच स्थित है पावापुरी तीर्थ। सामने ही झील के एक छोर पर मछुआरा नाँव चला रहा था तथा मेरे चारो ओर कमल ही कमल के फूल मुस्कुरा रहे थे। कमल की पत्तियाँ भगवान महावीर की दाता वाली हथेलियों की तरह खुली हुई थी जिनपर मोतियों की तरह बिखरे अनेकोनेक जलविन्दुओं पर शाम के सूरज किरणें पड़ रही थीं। मन असीम शांति से भर उठा।
[भगवान महावीर की निर्वाण स्थली तथा उसके चारो ओर लाखों कमल दलों से सुशोभित ताल]
सत्य और ज्ञान की तलाश मिथकीय अवधारणा नहीं है अपितु मिट्टी और प्रकृति से जुडने की वास्तविक प्रक्रिया है। ज्ञान की तलाश के लिये यायावर होना पडता है। अगर एसा न होता तो गौतम बोधि वृक्ष के नीचे साधनारत हो कर बुद्ध न हो पाते अपितु अपने राजप्रासाद के ग्रंथागार में ही हो गये होते? भगवान महावीर के बारे में कहा जाता है कि वे बारह वर्षों तक कठिन साधनारत तथा खोजी रहे तेरहवें वर्ष उन्हें जम्मियग्राम के निकट ऋतुपालिका नदी के तट पर कैवल्य अर्थात ज्ञान की प्राप्ति हुई। उनकी बलिष्ठ काया थी किंतु उससे बढ कर धैर्य और संकटों का सामना करने का संबल भी था। वे साधनारत रहे तो न कभी अपने घावों को मरहम लगाया न कोई औषधि ली अपितु एक लक्ष्य केवल – ज्ञान। वे धीरजवान हैं इसीलिये तो महावीर हैं। मैं बूझने की कोशिश कर रहा हूँ कि तलवारों-बंदूखों वाली वीरता कितनी खोखली है!! यथार्थ में अहिंसा ही नहीं पराक्रम की भी वास्तविक परिभाषा भगवान महावीर ही हैं। कैवल्य प्राप्ति के पश्चात भगवान महावीर क्रांति की राह पर चल निकले और उस समाज को बदलने का दायित्व अपनी शिक्षाओं में अंतर्निहित कर लिया जो कुंद था, जड़ हो गया था और रूडिवादिता नें जिसके पैरों नें मजबूत बेडियाँ डाल दी थीं।
[भगवान महावीर की निर्वाण स्थली]
महावीर को केवल धर्म से नहीं अपितु राष्ट्र निर्माण से भी जोड कर देखना चाहिये और हमें नहीं भूलना चाहिये कि अहिन्सा की सबसे बारीक और असाधारण परिभाषा महावीर नें ही दी थी। वे कहते हैं – जं किंचि सुहमुआरं पहुत्तणं पयइ सुन्दरम जं च। आरूग्गम सोहग्गम तं तमहिंसा फलं सव्वं॥ अर्थात – संसार में जो कुछ भी श्रेष्ठ सुख, प्रन्हुता, सहज सुन्दरता, आरोग्य एवं सौभाग्य दिखाई देते हैं वे सब अहिंसा के ही फल हैं (भक्त प्रतिज्ञा)। इस बात को समझने में मेरी सहायता महावीर के एक अन्य उपदेश ने भी की जहाँ वे कहते हैं – सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविउं न मरिज्जिउं। तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयंति णं॥ अर्थात – संसार में सभी प्राणी जीना चाहते हैं, मरना नहीं चाहते, इसलिए प्राणिवध को घोर समझ कर निग्रन्ध उसका परित्याग करते हैं (दशवैकालिक)। मुझे लगता है कि महावीर समय शास्वत हैं और उन्होंने जो मार्ग बताया है वह संभवत: आज भी परिवर्तन, वीरता और क्रांति का ही मार्ग है, यही मार्ग जिसे महात्मा गाँधी नें जन आन्दोलन बनाया। स्वयं महावीर नें कम मुश्किल हालातों का सामना नहीं किया अपितु जब वे अपने सिद्धांतो के प्रचार में निकलने लगे तो लोगों नें उन्हें पागल समझा, किसी नें पत्थर फेंके तो किसी नें डंडे से मारा किसी नें उन पर कुत्ते छोड दिये। महावीर नें स्वयं अपना रास्ता बनाया जिस पर लाखों लोग चले और बहुत बडा बदलाव एक कट्टर युग नें देखा था। आज देश में कई जगहों पर क्रांति और जन सरोकारों के नाम पर हिंसा का जो तांडव चल रहा है उसे मैं भगवान महावीर के दिखाये रास्तों के आईने में समझने की कोशिश करता हूँ तो पाता हूँ कि हिंसक क्रांतियाँ एक क्रूर उद्बोधन हैं न तो इससे कोई बदलाव आयेगा न ही कोई एसी सुबह आयेगी जिससे सामाजिक समरस्ता स्थापित हो सके बल्कि लाशों के अम्बार लगते जायेंगे जिनपर बैठ कर एक सत्ता से दूसरी सत्ता हटाने-बदलने का खेल चलता रहेगा। व्यवस्था कैसे सुधारी अथवा बदली जा सकती है उसके लिये बंदूख दिखाती किताबों से पहले कोई महावीर को समझने का ही यत्न कर ले?
[निर्वाण स्थली को घेरे हुए स्थित कमल सरोवर]
इस सोच तक पहुँचने में मेरी एक जैन कथा नें बहुत सहायता की। “जैन इतिहास की प्रसिद्ध कथायें” शीर्षक के केवल डेढ रुपये की यह पुस्तक मुझे नालंदा में मिली थी जिसका प्रकाशन समय है 1974, इसी से कथा उद्धरित कर रहा हूँ। कहते हैं मगध जनपद की राजधानी राजगृह में एक समय पुष्पाराम नाम का बागीचा था जिसमें अर्जुन नाम का माली कार्य करता था। इसी बागीचे के निकट एक यक्ष का मदिर भी था जिसपर अर्जुन को आस्था थी। एक दिन वह यक्ष के मंदिर में प्रार्थना कर रहा था तथा वहीं निकट उसकी पत्नी बन्धुमती फूल तोड रही थी तभी कुछ लोगों नें बदनीयती से वहाँ धावा बोल दिया। माली को यक्ष के मंदिर में ही एक स्तम्भ से बाँध दिया गया और उसके सामने ही उसकी पत्नि के साथ दुराचार किया जाने लगा। एक निरीह, दुर्बल तथा असहाय माली के सामने पहला रास्ता यक्ष ही था जिससे उसने गुहार लगाई किंतु पत्नी की आर्तनाद असह्य होते ही उसके भीतर एसी कसमसाहट नें जन्म लिया जिससे वह अपरिचित था। गुस्से से पागल माली ने स्वयं को बंधन से आजाद करने के लिये हाँथ पाँव मारे और वह रस्सियों को तोडने में सफल हो गया। पास ही यक्ष का मुद्गर रखा था, किसी अनजान शक्ति के वशीभूत उसनें मुद्गर उठाया और अत्याचारियों पर टूट पडा। कुछ धराशाही हो गये कुछ भाग गये। यहाँ तक कहानी उचित है और अन्याय का प्रतिकार करने के वैकल्पिक मार्ग की अनुपस्थिति में एक असहाय व्यक्ति के भीतर के संबल का जगना बताती है। इसके बाद संभवत: अर्जुन में मनोवैज्ञानिक बदलाव हुए उसे अपने भीतर एक अनोखी ताकत का आभास हुआ और लगा कि इस शक्ति से वह कुछ भी कर सकता है। अर्जुन नें आतंक प्रसारित करने का रास्ता चुना। उसे हत्या अथवा प्रताडना में आनंदानुभूति होने लगी। वह मुद्गर उठाये जंगल में भटकता और राहगीर को लूट लेता अथवा उनकी हत्या कर देता। उसे लोगों की आँखों में अपने लिये भय तथा नाम सुन कर थर थर काँपते लोग प्रिय थे। हरा भरा पुष्पाराम बागीचा रक्तरंजित और लाल हो गया था। इसी दौरान महावीर की शिक्षाओं से प्रभावित एक युवक सुदर्शन पुष्पाराम से गुजरा। तभी उसके सामने क्रूर अर्जुन आ गया। अर्जुन आश्चर्य चकित था कि सुदर्शन की आँखों में मृत्यु का भय नहीं था। उसनें मुद्गर दिखाया, धमकाया लेकिन व्यर्थ? यह कैसा व्यक्ति है जो मरने को प्रस्तुत है लेकिन भागता नहीं डटा हुआ है? यह कैसा व्यक्ति है जो कहता है शस्त्र छोडो अहिंसा एक सुन्दर रास्ता है? यह कैसा व्यक्ति है जिसे अपने रास्ते पर इतना भरोसा है जिसके लिये स्वयं कुर्बान होने को तो प्रस्तुत है किंतु अन्य किसी की कुर्बानी अथवा नुकसान पहुँचाने की चेष्टा नहीं? कहते हैं अर्जुन के भीतर का दैत्य उसी क्षण परास्त हो गया और विचार की एक लहर दौड पडी। वह बदल गया था और बदलाव के रास्ते पर चलना चाहता था। निकल पडा महावीर की खोज में उसी राह पर जिस ओर सुदर्शन नें इशारा किया था। महावीर नें अपने चरणों पर गिर पडे अर्जुन को क्षमा-अहिंसा और प्रेम का बोध थमा दिया। कहानी यहाँ समाप्त नहीं होती अपितु गंभीर हो जाती है। बदला हुआ अर्जुन राजगृह पहुँचता है तो वही लोग जिन पर् उसने अत्याचार किये पत्थर मारने लगते हैं, गालियाँ देते हैं…। अर्जुन महावीर के पथ का अब अनुगामी है वह बदलाव का रास्ता जान गया है इसलिये सब धर्य से सहता है। वह स्वयं बदलने के बाद फिर सबसे पहले बदलता है अपने उस बागीचे को जिसका कभी वह माली हुआ करता था। उद्यान सुन्दर फूलों से महक उठता है, माली की सौम्यता और क्षमा की खुशबू फैलती है राजगृह में और उसके अपराध बुला दिये जाते हैं। बदल जाता है एक पूरा परिवेश।
[पावापुरी में घाटों के निकट बने द्वार]
बदलाव हो हल्ला नहीं है, बदलाव सोच और प्रतिपादन की लम्बी प्रक्रिया है। भगवान महावीर की शिक्षायें इतनी गूढ और दार्शनिक हैं कि संभवत: उन्हें आत्मसात करने में जीवन छोटा पडे। इसका अर्थ यह भी है कि वे इतने पक्के दार्शनिक विचार हैं कि यदि ठहर कर उन्हें सोचा भर जाये तो कितनी ही वर्तमान की समस्याओं का विश्लेषण उपलब्ध हो जाता है। मैं उपसंहार में जैन मतानुसार सृष्टि की नित्यता, अनीश्वरवाद, आत्मवाद, कर्मवाद, ज्ञानवाद, उल्लेखित पाँच महाव्रतों अथवा अठारह पापों आदि की चर्चा नहीं करूंगा अपितु स्याद्वाद से अपनी बात पूरी करना चाहता हूँ। वर्तमान में हम किसी भी समस्या का विश्लेषण केवल दो बातों को सामने रख कर करते हैं – पक्ष अथवा विपक्ष; जिन्दाबाद अथवा मुर्दाबाद; हार अथवा जीत। महावीर किसी विषय के विष्लेषण का मार्ग बताते हैं कि उस पर ज्ञान सात प्रकारो से हो सकता है – है; नहीं है; है और नहीं है; कहा नहीं जा सकता; है किंतु कहा नहीं जा सकता; नहीं है किंतु कहा नहीं जा सकता; है, नहीं है और कहा जा सकता है। एक की समस्या, विषय अथवा वस्तु को इन सात पैमानों में तौल कर देखने के कई मंथन पावापुरी की झील के किनार बैठे हुए मैंने किये। महावीर आपकी इस सोच में तो विचारधाराओं को ही विचार थमा देने की क्षमता है।
[कमल सरोवर का एक और विहंगम दृश्य]
नमन!! पूरी श्रद्धा से नमन महावीर आपको भी, मगध की माटी को भी और मेरी भारत भूमि को भी जहाँ आपनें जन्म लिया। पावापुरी में जब भगवान महावीर नें देहत्याग किया तब उनकी राख को ले जाने वाले याचक लाखों में थे। जब वह भी नहीं बचा तो कहते हैं श्रद्धालुओं नें पावापुरी की मिट्टी ही मुट्टी भर भर कर यादगार के तौर पर रखनी आरंभ कर दी और उसी से कालांतर में पवित्र कुंड बन गया। पावापुरी का अंतिम पड़ाव समावशरण (समोशरण) है जो संगमरमर से बना जैन वास्तुकला का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। इसे भगवान के अंतिम प्रवचन स्थल पर निर्मित बताया जाता है। पावापुरी में झील के पानी को पर्याप्त एयरेशन की आवश्यकता है।…..। सूरज डूब चला और न चाहते हुए भी मुझे उठना पडा अपनी यात्रा के अगले पडाव के लिये।
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प्रवक्ता .काम पर स्यादवाद के सम्बन्ध में प्रकाशित यह आलेख अच्छा है.