पहले तोलें फिर बोलें !

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Syeda Salvaतनवीर जाफ़री
वैसे तो विभिन्न धर्मों के तथाकथित धर्मगुरू जिन्हें प्राय: अपने धर्म तथा अपने ही धर्म से संबंधित धर्मग्रंथों की ही आधी-अधूरी जानकारी रहती है वे आए दिन कोई न कोई ऐसे विवादित तथा बेतुके बयान देते रहते हैं जिन्हें सुनकर समाज में बेचैनी फैल जाती है। परंतु ऐसे धर्मगुरु हैं कि अपनी कथित ‘ज्ञानवर्षा’ करने से बाज़ ही नहीं आते। ख़ासतौर पर पुरुष प्रधान समाज होने के नाते सभी धर्मों के धर्मगुरू प्राय: औरतों के विषय में आए दिन कुछ न कुछ ऊट-पटांग ‘व्याख्यान’ देते ही रहते हैं। खासतौर पर वर्तमान दौर में जब विश्व की महिलाएं काफ़ी हद तक जागरूक होकर अपने अधिकारों की बातें करने लगी हैं तथा विश्व की आधी आबादी की हैसियत से स्वयं को पुरुषों के बराबर समझने लगी हैं तब से इन पुरुष प्रधान मानसिकता रखने वाले लोगों की चिंताएं गोया और बढ़ गई हैं। महिलाओं के मतों की खातिर उन्हें आरक्षण देने की लालच तो दी जाती है परंतु पुरुषों द्वारा आरक्षण नहीं दिया जाता। विभिन्न विभागों में यहां तक कि पुलिस और सेना जैसे विभाग में भी महिलाओं को यह जताने के लिए कि उन्हें भी आगे बढ़ाया जा रहा है,उनकी भर्ती तो की जाती है परंतु वहां भी पुरुषों द्वारा उनका शोषण किए जाने के समाचार आते ही रहते हैं। हमारे देश में कहने को तो देश की संसदीय व्यवस्था में वार्ड तथा पंचायत जैसे छोटे स्तर पर महिलाओं हेतु सीटें आरक्षित कर दी गई हैं। परंतु वहां भी अधिकांशत: उन्हीं महिलाओं को चुनाव मैदान में उतारा जा रहा है जहां उम्मीदवार महिलाओं के पति या परिवार के कोई अन्य पुरुष सदस्य अपना राजनैतिक वर्चस्व रखते हों। गोया यहां भी कठपुतली के रूप में ही महिलाओं का इस्तेमाल किया जा रहा है।
परंतु इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि महिलाओं में योग्यता अथवा प्रतिभा की कोई कमी है। महिलाएं आज से ही नहीं बल्कि सहस्त्राब्दियों से पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर चलती रही हैं और हमेशा से अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाती रही हैं। चाहे धर्मक्षेत्र हो,राजनीति हो,व्यापार हो अथवा युद्ध क्षेत्र हो। इतिहास महिलाओं के जौहर,उनकी प्रतिभा,उनकी योग्यता,शौर्य तथा त्याग व तपस्या से भरा पड़ा है। आज यदि हम भगवान राम का नाम लेते हैं तो वह सीता का नाम लिए बिना अधूरा सा जान पड़ता है। ईसा मसीह के नाम के साथ यदि मरियम का नाम न आए तो ईसाईयत का इतिहास अधूरा रह जाता है। इसी प्रकार हज़रत मोहम्मद के नाम के साथ ख़दीजा या अली के साथ फ़ातिमा का जि़क्र न हो तो गोया इस्लाम के इतिहास को पूरा नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार रणक्षेत्र या राजनीति की बात करें तो बेगम हज़रत महल,नूरमहल,चांद बीबी,रज़िया सुल्तान,महारानी लक्ष्मी बाई जैसे कितने नाम हैं जो महिलाओं के लिए प्रेरणा का स्त्रोत हैं। वर्तमान दौर में भी महारानी एलिज़ाबेथ,इंदिरा गांधी जैसी कई महिलाओं ने राजनीति में अपना लोहा मनवाया है। इसी प्रकार खेल-कूद की दुनिया में मारिया शेरापोवा,सानिया मिजऱ्ा, सायना नेहवाल जैसी महिलाएं समय-समय पर अपनी प्रतिभा का परिचय देती रहती हैं। इन सब के बावजूद यदि कोई यह कहे कि महिलाओं का काम केवल बच्चे पैदा करना है और वह अपनी इस बेतुकी बात के पक्ष में धर्म के नाम का सहारा भी लेने लगे तो इससे बड़ी हास्यास्पद बात और क्या हो सकती है?
लेकिन अफसोस की बात है कि विभिन्न धर्मों के धर्मगुरू विभिन्न देशों में कभी-कभी ऐसी ही अनर्गल बातें करते सुने जाते हैं। अभी पिछले दिनों केरल के एक सुन्नी मुस्लिम नेता कंथापुरम एपी अबूबकर मुस्लियर जोकि ऑल इंडिया सुन्नी जमीयतुल उलेमा के प्रमुख भी बताए जा रहे हैं, उन्होंने कोच्चिकोड में मुस्लिम स्टूडेंटस फेडरेशन को संबोधित करते हुए महिलाओं के संबंध में कई विवादित बातें कहीं। उन्होंने कहा कि महिलाएं कभी भी दुनिया को नियंत्रित नहीं कर सकतींं। मौलाना के अनुसार महिलाएं केवल बच्चे पैदा करने के लिए ही होती हैं। उनका मत है कि औरतों को कोई भी उच्च पद प्रदान नहीं किया जाना चाहिए। आप फरमाते हैं कि विश्व में लैंगिक समानता कभी भी कायम नहीं हो सकती। उन्होंने महिलाओं के प्रति अपना यह नज़रिया रखते हुए पूरे विश्व का आह्वान किया कि दुनिया लैंगिक समानता के विरुद्ध एकजुट हो। अपने इस फतवे को वज़न देने के लिए उन्होंने यह भी कहा कि महिलाओं को पुरुष के बराबर का मर्तबा देना यहां तक कि लैंगिक समानता की कल्पना करना भी इस्लाम तथा मानवता के विरुद्ध है। इस विषय पर आगे उन्होंने यह भी कहा कि महिलाएं काफ़ी भावनात्मक होती हैं और वे मानसिक रूप से मज़बूत नहीं होतीं। इसलिए दुनिया को नियंत्रित करने की शक्ति उनके पास नहीं होती। उनके अनुसार यह शक्ति केवल पुरुषों के पास ही होती है।
अब मौलाना के इन विचारों के बाद किसी और धर्म की महिलाओं की बात क्या करनी केवल इस्लाम धर्म के ही इतिहास में यदि झांकें तो महिलाएं पुरुषों की बराबरी करती दिखाई देती हैं। और यह सिलसिला आज तक जारी है। ठीक है प्रकृति ने महिला को इस योग्य भी बनाया है कि वह बच्चों को जन्म देने की क्षमता रखती है। हालांकि यह क्षमता प्रकृति ने पुरुषों में नहीं दी है। महिला ही किसी पुरुष या उसके बच्चे का पालन-पोषण करती है तथा उसे इस योग्य बनाती है कि वह आगे चलकर अपने परिवार व खानदान का नाम रौशन कर सकें तथा धर्म,देश अथवा समाज की सेवा कर सके। यही क्या कम है कि महिला के अस्तित्व के बिना किसी पुरुष के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती। परंतु मौलाना का यह कहना कि महिलाएं केवल बच्चा पैदा करने के लिए ही होती हैं या उनमें पुरुषों जैसे साहस की कमी है तो यह तो कतई न्यायसंगत नहीं है। हां इससे ऐसा कहने वालों की रूढ़ीवादी पुरुष मानसिकता ज़रूर झलकती है। सारा हमीद अहमद बंगलौर की एक मुस्लिम महिला का नाम है जिसने देश की पहली मुस्लिम महिला पायलेट के रूप में महिलाओं का नाम रौशन किया। उसके पश्चात बारामूला कश्मीर की आयशा अज़ीज़ भी महिला पायलेट बनकर मुस्लिम महिलाओं के समक्ष एक आदर्श प्रस्तुत कर चुकी हैं। इसके अतिरिक्त हैदराबाद की फातिमा सल्वा सईदा कमर्शियल पायलेट बन चुकी हैं। मुस्लिम महिलाओं द्वारा विमान उड़ाकर अपने शौर्य व साहस का परिचय देना कोई नई बात नहीं है। हिजाब इम्तियाज़ अली ने इंग्लैंड में 1936 में एक पायलेट की हैसियत से अपना कैरियर शुरु किया था। उसके बाद यही महिला इम्तियाज़ अली, पायलेट का पेशा छोडऩे के बाद जब लेखन के क्षेत्र में उतरीं तो एक मशहूर लेखिका भी बनीं। उन्होंने अपने कई मशहूर नावेल लिखे जिसमें लैलो निहार, सनोबर के साए में,मेरी नातमाम मोहब्बत और तस्वीरे बुतां के नाम ख़ासतौर पर उल्लेखनीय हैं। आयशा फारूख पाकिस्तान के पंजाब की लड़ाकू विमान उड़ाने वाली एक दूसरी पायलेट का नाम है। पाकिस्तान में इस समय 316 महिलाएं पायलेट अथवा सेना के उच्चाधिकारी के रूप में अपनी सेवाएं दे रही हैं। यहां तक कि अंबरीन गुल नामक पायलेट पाकिस्तान के एफ-7 सुपर सोनिक फाईटर जहाज़ तक उड़ा रही हैं। अपने ही देश में सैकड़ों महिला आईएएस व आईपीएस अधिकारी देश की सेवा में लगी हुई हैं। हज़ारों डॉक्टर महिलाएं देखी जा सकती हैं।
क्या उपरोक्त प्रमाणों के बावजूद कोई रूढ़ीवादी पुरुष प्रधान मानसिकता रखने वाला व्यक्ति यह कह सकता है कि महिलाओं में साहस की कमी होती है या वे पुरुष जैसा साहसिक काम नहीं कर सकतीं? हमारे देश में आज कई महिलाएं ऐसी हैं जिन्होंने पहलवानी,बॉक्सिंग यहां तक कि एवरेस्ट पर चढ़ाई करने जैसे जोखिम भरे अभियानों में भी अपनी सफलता का परचम लहराया है। मौलाना शायद कल्पना चावला और सुनीता विलियम जैसे नामों से नावािकफ हैं जिन्होंने उस भारतीय समाज की महिला होने के बावजूद जहां मौलाना जैसी मानसिकता के लोग रहते हों तथा जहां गांव व पंचायतों में भी महिलाओं को संकुचित नज़रों से देखा जाता हो, पूरे विश्व में महिलाओं के लिए एक आदर्श प्रस्तुत किया। लिहाज़ा अपनी बातों के समर्थन में धर्म या किसी धर्मग्रंथ का हवाला देने के बजाए आज ज़रूरत इस बात की है कि महिलाओं पर विश्वास किया जाए। उन्हें आगे बढऩे हेतु प्रेरित किया जाए। उनकी प्रतिभाओं को और निखरने का अवसर दिया जाए। आधी आबादी को निश्चित रूप से आधे अधिकारों की भी ज़रूरत है। आज यदि महिलाएं कहीं पीछे हैं या कमज़ोर हैं अथवा शोषण का शिकार हैं तो इसके लिए महिलाएं कम पुरुष की पुरुष प्रधान सोच ज़्यादा जि़म्मेदार है। लिहाज़ा महिलाओं के संबंध में आए दिन नए फतवे देने या उनके मंदिर-मस्जिद में प्रवेश पर प्रतिबंध लगाने जैसे गैरज़रूरी निर्देश देने के बजाए उन्हें बराबरी का दर्जा दिए जाने की ज़रूरत है। आज यदि विश्व का नियंत्रण महिलओं के हाथों में होता तथा राजनीति में महिलाएं अपनी वर्चस्वपूर्ण भूमिका निभा रही होतीं तो संभवत: आज दुनिया बारूद के ढेर पर न बैठी होती और दुनिया में भ्रष्टाचार व लूट-खसोट जैसा वातावरण देखने को न मिलता। लिहाज़ा महिलाओं के संबंध में अनर्गल बातें करने से पहले यह सोच लेना बहुत ज़रूरी है कि किसी भी व्यक्ति ख़ासतौर पर किसी धर्मगुरु या राजनेता द्वारा जो बोला जा रहा उसका अर्थ व उसकी व्याख्या क्या है?

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