बोल बड़े, बिल अटके पड़े

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congress1हिमांशु शेखर

कांग्रेस दावा करती है कि उसका हाथ आम आदमी के साथ है. लेकिन उसकी अगुवाई वाली केंद्र सरकार ने कई ऐसे विधेयक लटका रखे हैं जिनका सीधा संबंध उसी आम आदमी की भलाई से है.

संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की मुख्य पार्टी कांग्रेस के नेता यह दावा करते हुए नहीं अघाते कि उनकी सरकार के लिए आम आदमी का कल्याण सबसे पहले है. लेकिन मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार के कामकाज और उसकी नीतियों को देखा जाए तो उनके इस दावे के खोखलेपन का एहसास होता है. आम लोगों को लेकर सरकार के लापरवाह रवैये को समझना हो तो इसे नीतियों के स्तर पर भी देखा जाना चाहिए. यह बात सही है कि संप्रग की पहली सरकार ने देश के लोगों को सूचना के अधिकार और रोजगार गारंटी कानून की सौगात दी. खाद्य सुरक्षा को लेकर सरकार काफी समय से हो-हल्ला करती आई है और सर पर सवार चुनाव को देखते हुए उसने इसे अध्यादेश के जरिए लागू किया है. नीतियों की जानकारी रखने वाले लोगों की मानें तो भोजन की गारंटी देने वाले इस कानून में भी कई खामियां हैं, इसके बावजूद वे इसे सरकार का एक ठोस कदम मान रहे हैं. कुछ ऐसा ही भू अधिग्रहण कानून के साथ है जो खबर लिखे जाने तक लोकसभा में पारित हो गया था.

लेकिन कांग्रेस की अगुवाई वाली इस सरकार ने कई ऐसे कानून बनाने की भी बात की थी जो आम आदमी से सीधे तौर पर जुड़े हुए थे, पर आज उन्हें पारित कराने को लेकर सरकार की मंशा पर संदेह के बादल मंडरा रहे हैं.

 

लोकपाल

लोकपाल की मांग को लेकर अन्ना हजारे की अगुवाई में व्यापक अभियान चला था. दिल्ली में अन्ना लोकपाल की खातिर अनशन पर बैठे. पहली बार जब वे अनशन पर बैठे तो लोकपाल कानून का मसौदा तैयार करने के लिए जो समिति बनी उसमें अन्ना और उनके सहयोगियों को जगह दी गई. फिर भी जब सरकार इसे लेकर आगे नहीं बढ़ पाई तो अन्ना को एक बार फिर 2011 के अगस्त महीने में दिल्ली के रामलीला मैदान में अनशन पर बैठना पड़ा. उनके अभियान को जब व्यापक समर्थन मिलने लगा तो पूरी संसद ने एक सुर में कहा कि देश की संसद की भावना यह है कि लोकपाल लाया जाना चाहिए. संसद ने अन्ना से अनशन तोड़ने का आग्रह किया. संसद के वादे पर अन्ना ने अनशन तोड़ा लेकिन आज तक लोकपाल विधेयक को सरकार कानून की शक्ल नहीं दे पाई है.

भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की योजना के तहत लोकपाल को लेकर बातचीत की शुरुआत 60 के दशक में हुई थी.1966 में प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग ने लोकपाल की संस्था स्थापित करने की सिफारिश की थी. आयोग का सुझाव था कि सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायत और इसके निवारण के लिए केंद्र और राज्यों के स्तर पर एक अलग संस्था बनाई जाए. इस भावना के साथ 1968 में पहली बार लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक संसद में पेश किया गया. लेकिन यह पारित नहीं हो सका. इसके बाद इसे सात अलग-अलग मौकों पर संसद में पेश किया गया लेकिन कभी भी यह पारित नहीं हो सका. यहां इस बात का उल्लेख भी जरूरी है कि 2002 में वेंकटचलैया समिति और 2005 में द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी यह सिफारिश की थी कि भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए बगैर किसी देरी के लोकपाल की संस्था स्थापित की जाए. खुद सरकार द्वारा बनाई गई अलग-अलग समितियों और इसे लेकर चले व्यापक आंदोलन से यह बात खुद-ब-खुद साफ हो जाती है कि लोकपाल आम लोगों के लिए कितना जरूरी है. लोकपाल विधेयक के कानून बनने के बाद लोग सरकारी सेवा में काम करने वालों के खिलाफ बेधड़क होकर शिकायत कर सकते हैं. इसमें प्रावधान है कि शिकायत की जांच 60 दिन के अंदर होगी और जांच की प्रक्रिया छह महीने के अंदर पूरी होगी. जाहिर है कि आम लोगों के लिए यह भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में एक मजबूत हथियार बन सकता है.

अन्ना हजारे और उनके सहयोगी लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री को लाने की मांग भी कर रहे थे. अभी लोकपाल विधेयक का जो स्वरूप है उसमें प्रधानमंत्री को शामिल तो किया गया है, लेकिन वह इसके दायरे में तब आएगा जब वह प्रधानमंत्री पद के दायित्व से मुक्त हो जाए. इसके अलावा विधेयक के कुछ ऐसे प्रस्ताव भी हैं जिन पर अन्ना हजारे और उनके सहयोगियों समेत कई लोगों को आपत्ति है. लेकिन इसके बावजूद विधेयक को मौजूदा स्वरूप में पारित कराने के पक्षधर लोगों की संख्या भी कम नहीं है. ऐसे लोग यह मानते हैं कि ऐसा करने से कम से कम एक ठोस शुरुआत होगी और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई को मजबूती मिलेगी. इसके बावजूद यह सरकार लोकपाल विधेयक को पारित कराने को लेकर संजीदा नहीं दिख रही. यह स्थिति तब है जब पूरी संसद ने एक सुर में इसे पारित कराने की भावना व्यक्त की थी.

लोकपाल कानून का मसौदा तैयार करने के लिए सरकार और सिविल सोसाइटी की नुमाइंदगी में बनी समिति के सदस्य और वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण इस बारे में तहलका को बताते हैं, ‘सरकार लोकपाल विधेयक को पारित ही नहीं करना चाहती. अन्ना जब अनशन पर बैठे थे तो पूरी संसद ने कहा था कि वे इसे पारित करवाएंगे. लेकिन आज इसे कोई भी पारित नहीं होने देना चाहता. भारतीय जनता पार्टी भी नहीं चाहती है कि लोकपाल विधेयक पारित हो.’ नीतिगत मसलों के जानकार भारतीय जनता पार्टी के महासचिव मुरलीधर राव बताते हैं, ‘सरकार लोकपाल को लेकर संसद की पूरी भावना को महत्व नहीं दे रही है. इससे आम लोगों, जिन्होंने टेलीविजन और अखबारों के जरिए पूरी संसद को एक सुर में लोकपाल के पक्ष में खड़ा देखा था, के मन में सरकार और संसद के प्रति अविश्वास पैदा होने का खतरा है.’

 

न्यायिक जवाबदेही

अब भी लोगों को देश के न्यायिक तंत्र पर अपेक्षाकृत अधिक भरोसा है. इसी भरोसे को और मजबूत करने और जजों को और अधिक जवाबदेह बनाने के मकसद से न्यायिक मानक एवं जवाबदेही कानून की परिकल्पना की गई थी. 1997 में सर्वोच्च्प न्यायालय ने इस बारे में एक प्रस्ताव तैयार किया था. इसके बाद 2005 में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने एक राष्ट्रीय न्यायिक आयोग स्थापित करने के मकसद से एक कॉन्सेप्ट पेपर तैयार किया था. इसी को आधार बनाकर जजों को जवाबदेह बनाने के लिए 2005 में एक कानून का मसौदा तैयार किया गया और इसे विधि आयोग के पास भेजा गया. आयोग ने जो भी सुझाव दिए उन्हें मानते हुए सरकार ने विधेयक के मसौदे को 2006 में संशोधित किया लेकिन 2009 में लोकसभा की मियाद खत्म होते ही इस विधेयक के पारित होने की संभावनाओं पर विराम लग गया. अभी जो न्यायिक जवाबदेही विधेयक है इसे पहली बार संसद में एक दिसंबर, 2010 को पेश किया गया था. लेकिन अब तक यह कानून की शक्ल नहीं ले पाया है. इस विधेयक के कानून बनने से न्यायपालिका पर आम लोगों का भरोसा किस तरह से बढ़ेगा, इसे जानने के लिए इसके कुछ प्रावधान जानने जरूरी हैं. यह कानून आने के बाद जजों को न सिर्फ अपनी बल्कि अपनी पत्नी और आश्रितों की संपत्ति की घोषणा भी पदभार लेने के 30 दिनों के भीतर अनिवार्य तौर पर करनी होगी. इसके अलावा इस विधेयक में ऐसे प्रावधान हैं जिससे न्यायिक मानक ऊंचे बने रहें. इसमें राष्ट्रीय स्तर पर एक समिति स्थापित करने का प्रावधान है जहां कोई भी आम आदमी किसी जज के खिलाफ अपनी शिकायत लेकर जा सकता है. शिकायत करने वालों की पहचान गोपनीय रखी जाएगी. अगर किसी ने शिकायत करने वाले की पहचान उजागर कर दी तो उस पर जुर्माना लगाने का प्रावधान भी है. इस विधेयक के जरिए जजों को शेयर बाजार या वायदा कारोबार में पैसा लगाने से भी प्रतिबंधित किया गया है.

साफ है कि अगर यह कानून बनता है तो आम लोगों में न्यायपालिका को लेकर भरोसा काफी बढ़ेगा और इससे अंततः लोकतंत्र को मजबूती मिलेगी. हालांकि ऐसा नहीं है कि न्यायिक जवाबदेही को लेकर जो कानून सरकार बना रही है उसमें कोई कमी ही नहीं है. सेंटर फॉर गवर्नेंस ऐंड पॉलिसी रिसर्च के मनोज राय कहते हैं, ‘राष्ट्रीय स्तर पर जिस न्यायिक समिति के गठन का प्रावधान इस विधेयक में है उसमें यह साफ है कि इसकी अध्यक्षता उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश करेंगे. इसके चार और सदस्य होंगे.

उच्चतम न्यायालय से एक जज, किसी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, भारत के अटार्नी जनरल और राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत कोई प्रमुख व्यक्ति. यहां ध्यान देने वाली बात है कि पांचवें सदस्य के चयन का अधिकार राष्ट्रपति पर छोड़ दिया गया है. यह राष्ट्रपति पर निर्भर करता है कि वे पांचवें सदस्य के तौर पर किसी को विधायिका से भेजते हैं या फिर कहीं और से. जबकि होना यह चाहिए था कि विधायिका से कम से कम एक स्थायी सदस्य का प्रावधान किया जाना चाहिए था क्योंकि हम एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में जी रहे हैं और अंततः अगर किसी जज को हटाना पड़ा तो मामला विधायिका के पास ही आएगा.’ इन खामियों के बावजूद मौजूदा प्रावधानों के साथ भी यह विधेयक न्यायपालिका में लोगों का विश्वास बढ़ाने में अहम भूमिका निभा सकता है. प्रशांत भूषण कहते हैं, ‘फिर भी सरकार की दिलचस्पी इसे पारित कराने में नहीं है. दरअसल वह कोई भी ऐसा कानून नहीं लाना चाहती है जिससे पारदर्शिता बढ़े. सरकार की दिलचस्पी तो खाद्य सुरक्षा जैसे उन विधेयकों को पारित कराने में है जिससे उसे उम्मीद है कि चुनावों में उसे वोट मिलेंगे.’

 

सिटिजन चार्टर

जब अन्ना हजारे लोकपाल को लेकर अभियान चला रहे थे तो उनकी मांगों में सिटिजन चार्टर भी शामिल था. अन्ना के अलावा अन्य कई सामाजिक संगठन भी इसकी मांग समय-समय पर उठाते रहे हैं. सबसे पहले सिटिजन चार्टर 1991 में ब्रिटेन में लागू हुआ था. इसके बाद बेल्जियम ने इसे 1992, मलेशिया ने 1993 और ऑस्ट्रेलिया ने 1997 में लागू किया. इसका मकसद एक तय समय सीमा में सरकारी सुविधाएं हासिल करने की गारंटी दी जाए और इससे संबंधित शिकायतों का एक निश्चित समय सीमा के भीतर निपटारा किया जाए. इस विधेयक को मनमोहन सिंह सरकार ने 20 दिसंबर, 2011 को संसद में पेश किया था. इसके बाद इसे 13 जनवरी, 2012 को स्थायी संसदीय समिति के पास भेजा गया था. समिति ने 28 अगस्त, 2012 को यह विधेयक अपनी सिफारिशों के साथ वापस भी कर दिया. तब से तकरीबन साल भर का वक्त गुजर गया है लेकिन इस विधेयक को पास कराने को लेकर सरकार के स्तर पर कोई सुगबुगाहट नहीं दिख रही है.

इस विधेयक के प्रावधानों पर निगाह डालने से यह पता चलता है कि इसके कानून बन जाने से आम लोगों की जिंदगी कितनी आसान हो सकती है. सिटिजन चार्टर को सेवा का अधिकार कानून के नाम से कुछ राज्यों ने अपने यहां लागू किया है. इनमें मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, दिल्ली और पंजाब प्रमुख हैं. इन राज्यों में इस कानून का सकारात्मक असर भी दिख रहा है. लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर इस कानून के नहीं होने से अब भी लोगों को समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है.

इस विधेयक के कानून बन जाने के छह महीने के अंदर हर सरकारी विभाग को एक सिटिजन चार्टर तैयार करना होगा और इसमें स्पष्ट तौर पर इस बात का उल्लेख करना होगा कि कौन-सी सेवा कितने दिन के अंदर मिलेगी. विधेयक में प्रावधान है कि अगर आम लोगों को तय समय में संबंधित सुविधा नहीं मिलती है तो इसकी शिकायत की जा सकेगी और ऐसी शिकायतों का निपटारा 30 दिन के अंदर करना होगा. किसी अधिकारी को दोषी पाया जाता है तो उस पर 50,000 रुपये तक का जुर्माना लगाया जा सकता है.

मुरलीधर राव कहते हैं, ‘इस विधेयक में जिन आयोगों के गठन की बात की गई है उनके आयुक्तों को सरकार बगैर किसी न्यायिक जांच के हटा सकती है. ऐसा प्रावधान इस विधेयक में है. इसका मतलब तो यही है कि सरकार की नीयत में ही खोट है और वह एक प्रभावी सिटिजन चार्टर नहीं लाना चाहती.’

 

व्हिसल ब्लोअर

भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण में बतौर परियोजना निदेशक काम करने वाले सत्येंद्र दुबे ने जब 2003 में उस समय के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को उनकी महत्वाकांक्षी स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना में चल रही गड़बड़ियों की जानकारी उन्हें पत्र लिखकर दी तो दुबे को इसकी कीमत 27 नवंबर, 2003 को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी. दुबे ने सोचा था कि वे प्रधानमंत्री को शिकायत कर रहे हैं और उनकी पहचान गोपनीय रहेगी लेकिन उनकी पहचान सार्वजनिक हो गई थी. माना जाता है कि उनकी हत्या उन लोगों ने करवाई जिनके हित दुबे की शिकायत से प्रभावित हो रहे थे. दुबे की हत्या के बाद जब भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वालों या यों कहें कि व्हिसल ब्लोअर्स की सुरक्षा का मसला उच्चतम न्यायालय में पहुंचा तो अदालत ने कहा कि जब तक इसके लिए विशेष कानून नहीं बन जाता है तब तक के लिए सरकार एक प्रस्ताव तैयार करे.

सरकार ने 2004 में ऐसा एक प्रस्ताव तैयार करके केंद्रीय सतर्कता आयोग को व्हिसल ब्लोअर की शिकायतों की सुनवाई के लिए अधिकृत कर दिया. दुबे हत्याकांड से पहले 2001 में ही विधि आयोग ने अलग से व्हिसल ब्लोअर कानून बनाने की सिफारिश की थी. 2004 के उस प्रस्ताव के बाद इसे एक विधेयक की शक्ल में संसद में पेश करने में संप्रग सरकार को छह साल लग गए. इसे 26 अगस्त, 2010 को संसद में पेश किया गया. स्थायी संसदीय समिति ने इसे अपनी सिफारिशों के साथ नौ जून, 2011 को लौटा भी दिया.

लेकिन विधेयक पेश करने में छह साल लगाने वाली सरकार सब कुछ होने के दो साल बाद भी इस विधेयक को पारित नहीं करा पाई है. इस विधेयक के कानून बनने से वैसे लोगों को बल मिलेगा जो भ्रष्टाचार को उजागर करना चाहते हैं. अभी ज्यादातर मामलों में ऐसा होता है कि सब कुछ जानते हुए भी लोग डर के मारे चुप रह जाते हैं. विधेयक में प्रावधान है कि हर शिकायत में शिकायतकर्ता की पहचान से संबंधित सूचनाएं होंगी, लेकिन यह सतर्कता आयोग की जिम्मेदारी होगी कि शिकायत करने वाले की पहचान सार्वजनिक नहीं हो. अगर ऐसा होता है तो इसके लिए संबंधित अधिकारी को सजा दिए जाने का प्रावधान भी विधेयक में किया गया है. इसके लिए 50,000 रुपये तक का जुर्माना या तीन साल तक की जेल हो सकती है. मुरलीधर राव कहते हैं, ‘पिछले कुछ सालों में निजीकरण बढ़ा है.

इसलिए द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने व्हिसल ब्लोअर्स कानून के दायरे में उन लोगों को भी लाने की सिफारिश की थी जो कॉपोरेट सेक्टर के वैसे भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाना चाहते हैं जिससे आम लोगों के हित प्रभावित होते हों. लेकिन नए प्रस्तावित कानून के दायरे से निजी क्षेत्र को बाहर रखा गया है.’ बकौल प्रशांत भूषण, ‘संप्रग सरकार नहीं चाहती कि यह विधेयक पारित हो ताकि उसके नौ साल के कार्यकाल में जो भी भ्रष्टाचार हुआ है उस पर पर्दा पड़ा रहे. वैसे भी ऐसी सरकार से व्हिसल ब्लोअर की सुरक्षा के लिए कानून बनाने की उम्मीद कैसे की जा सकती है जो उन लोगों को हर तरह से प्रताड़ित करती है जो उसके खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले उजागर करते हैं.’

 

पब्लिक प्रोक्योरमेंट

पूरे देश भर में होने वाली सरकारी खरीद में भ्रष्टाचार एक बहुत बड़ी समस्या है. सरकार आम लोगों के लिए चलाई जा रही योजनाओं या फिर अपने कामकाज के लिए जो चीजें खरीदती है, उसको लेकर कोई स्पष्ट नीति नहीं है. अलग-अलग विभागों ने अपने लिए अलग-अलग नीतियां बना रखी हैं. इनमें आपस में कोई तालमेल नहीं है. इसलिए सरकारी स्तर पर खरीद करने का अधिकार जिस अधिकारी के पास होता है, उसके बारे में भ्रष्टाचार को लेकर तरह-तरह की शिकायतें अक्सर अखबारों की सुर्खियां बनती हैं. कई बड़े घोटालों की जड़ में सरकारी खरीद प्रक्रिया की खामी रही है. इस प्रक्रिया में खामी रहने की वजह से सरकारी योजनाओं में जिन चीजों की आपूर्ति होती है, उनकी गुणवत्ता पर भी सवाल उठते रहे हैं. इस बात को लेकर लोगों में एक आम सहमति है कि किसी भी सरकारी आपूर्ति का ठेका अगर चाहिए तो कुल रकम का एक ठीक-ठाक हिस्सा संबंधित विभाग के अधिकारियों को चढ़ावा देना पड़ता है.

इस पृष्ठभूमि के साथ जब 14 मई, 2012 को सरकार ने संसद में जब पब्लिक प्रोक्योरमेंट विधेयक, 2012 संसद में पेश किया तो काफी उम्मीद जगी. लगा कि इस विधेयक के कानून बनने से न सिर्फ सरकारी खरीद प्रक्रिया के भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा बल्कि सरकारी योजनाओं के तहत होने वाली आपूर्ति की गुणवत्ता भी सुधरेगी. इस विधेयक के दायरे में हर उस खरीद को लाया गया है जो 50 लाख रुपये से अधिक की हो. भारत में होने वाली सरकारी खरीद के लिए कोई भी नोडल एजेंसी नहीं है. लेकिन इस विधेयक के आने के बाद यह उम्मीद जगी कि यहां भी अमेरिका की तरह एक नोडल एजेंसी होगी जो हर स्तर पर होने वाली सरकारी खरीद का नियमन करेगी. इस विधेयक में सरकारी खरीद में पारदर्शिता सुनिश्चित करने के मकसद से राष्ट्रीय स्तर पर एक पोर्टल स्थापित करने का प्रस्ताव किया गया है. इसमें सरकारी ऑर्डर पाने के लिए बोली लगाने से संबंधित सारी जानकारियां उपलब्ध कराने का प्रस्ताव है. इसके अलावा इस विधेयक में सूक्ष्म एवं लघु उद्यमों को बढ़ावा देने के मकसद से उनसे विशेष तौर पर सरकारी खरीद का प्रस्ताव भी है.

मनोज राय कहते हैं, ‘यह कानून बनने से आम लोगों के जीवन पर काफी असर पड़ेगा. मिड डे मील से लेकर राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन और जनवितरण प्रणाली जैसी न जाने कितनी योजनाओं की सफलता सरकारी खरीद पर ही टिकी हुई है. अगर खरीद में गड़बड़ होती है तो इन योजनाओं के लिए अपने लक्ष्य को हासिल करना असंभव है. इसलिए अगर खरीद प्रक्रिया को ठीक कर लिया गया तो कई समस्याओं का समाधान हो जाएगा. विधेयक में अच्छी बात यह है कि कुछ साल पहले बनाई गई विनोद ढाल समिति की सिफारिशों को इसमें जगह दी गई है.’

 

रियल एस्टेट नियमन

रियल एस्टेट सेक्टर में पसरी अराजकता से शहरों में एक मकान का ख्वाब संजोने वाले लाखों लोग परेशान हो रहे हैं लेकिन ऐसा लगता है कि सरकार रियल एस्टेट लाॅबी के दबाव में इस क्षेत्र के नियमन के लिए कानून नहीं ला पा रही है. कुछ समय पहले एक प्रमुख समाचार समूह द्वारा करवाए गए सर्वे में 97 फीसदी लोगों का मानना था कि रियल एस्टेट सेक्टर में पारदर्शिता का अभाव है जिसके चलते बहुत-से सवालों का ठीक-ठीक जवाब ही नहीं मिल पाता. इसकी सबसे ज्यादा मार आम आदमी पर पड़ रही है. सरकार द्वारा इस क्षेत्र के लिए अभी तक कोई नियामक इकाई नहीं बनाई गई है. इसका नतीजा यह है कि उपभोक्ता को यदि बिल्डर से कोई परेशानी हो तो उसके पास करने के लिए कुछ खास नहीं होता. सरपट भागती कीमतों के बावजूद अगर आदमी जमीन-आसमान एक करके कुछ पैसा जुटा ले या बैंक से लोन का इंतजाम कर ले तो भी यह गारंटी नहीं कि उसे तय समय पर अपने फ्लैट की चाबी मिल जाएगी क्योंकि परियोजनाओं का समय पर पूरा न होना भी एक बड़ी समस्या है.

धोखाधड़ी भी रियल एस्टेट क्षेत्र की सामान्य समस्या है. लेकिन कोई नियामक नहीं है इस वजह से लोगों के सामने कहीं शिकायत दर्ज कराके न्याय पाने का विकल्प भी नहीं है. वैसे कई और भी चीजें हैं जिनके चलते मकान बुक कराने वाला एक आम ग्राहक खुद को ठगा हुआ महसूस करता है. इसकी व्यवस्था उसी दस्तावेज के जरिए हो जाती है जिस पर फ्लैट खरीदते वक्त ग्राहक और बिल्डर दस्तखत करते हैं. यह दस्तावेज बिल्डर पूरी तरह से अपने हितों को ध्यान में रखकर तैयार करते हैं. नोएडा में रिहाइशी परियोजना विकसित कर रही एक कंपनी के बिक्री एग्रीमेंट से यह पता चला कि अगर कोई ग्राहक तय समय पर पैसा चुकाने में देर करेगा तो कंपनी उससे 18 फीसदी सालाना की दर से ब्याज वसूलेगी और अगर इसमें वह तीन महीने की देरी करता है तो उसके मकान का आवंटन रद्द हो जाएगा. जबकि अगर बिल्डर फ्लैट की चाबी देने में देरी करता है तो उसे छह महीने का अतिरिक्त समय मिलेगा और इसके बाद भी यदि वह फ्लैट नहीं सौंपता तो महज पांच रुपये प्रति माह प्रति वर्ग फुट की दर से ग्राहक को मुआवजा देगा.

इन समस्याओं को देखते हुए रियल एस्टेट के नियमन के लिए एक कानून की मांग समय-समय पर उठती रही है. संसद के मॉनसून सत्र में इस विधेयक को राज्य सभा में पेश किया गया. प्रस्तावित कानून का जो मसौदा मंत्रालय ने तैयार किया है उसमें कई ऐसे प्रावधान हैं जिनसे लगता है कि मकान खरीदने वाले लोगों को राहत मिल सकती है. लेकिन बुनियादी शर्त यही है कि यह कानून की शक्ल ले. मसौदे में अपार्टमेंट, काॅमन एरिया, कार्पेट एरिया जैसे तकनीकी शब्दों को परिभाषित किया गया है. अब तक हर कंपनी अपनी सुविधा के अनुसार इन शब्दों की अपनी परिभाषा गढ़ते आई है. इसके अलावा मसौदे में इस क्षेत्र के नियमन के लिए एक नियामक स्थापित करने का प्रस्ताव भी किया गया है ताकि ग्राहकों की शिकायतों का निवारण जल्द से जल्द और प्रभावी ढंग से हो सके. इसके अलावा इसमें यह प्रावधान भी है कि रियल एस्टेट क्षेत्र में काम करने वाले हर एजेंट को अनिवार्य तौर पर अपना रजिस्ट्रेशन कराना होगा. समय पर रिहाइशी परियोजनाएं पूरी हों, इसके लिए इसमें प्रावधान है कि संबंधित परियोजनाओं से आने वाली रकम का 70 फीसदी हिस्सा कंपनी को एक अलग बैंक खाते में जमा करना होगा. अभी होता यह है कि कंपनियां अपना कारोबार बढ़ाने के मकसद से एक परियोजना का पैसा दूसरी परियोजना में लगा देती हैं और इस वजह से कोई भी परियोजना समय से पूरी नहीं होती.

प्रमुख रियल एस्टेट कंसल्टेंट जोंस लांग लासाले इंडिया के चेयरमैन और कंट्री हेड अनुज पुरी कहते हैं, ‘इस विधेयक के कानून बनने से आम ग्राहकों को राहत मिलेगी. अभी ऐसे ग्राहकों से ठगी के कई मामले सामने आते हैं. विधेयक में यह सुनिश्चित करने के लिए प्रावधान किया गया है कि समय पर निर्माण कार्य पूरा हो और ग्राहकों को उनकी प्रॉपर्टी तय समय पर मिल जाए. यह भी प्रावधान है कि परियोजना पूरी होने के बाद खरीदार को वे सारी सुविधाएं मिलें जिनका वादा बुकिंग के वक्त बिल्डर ने किया था.’ वे आगे कहते हैं, ‘विधेयक में बिल्डरों को उन विज्ञापनों के प्रसार से भी प्रतिबंधित किया गया है जो भ्रामक हों. जब तक किसी परियोजना से संबंधित सभी मंजूरी हासिल नहीं हो जाती है तब तक बिल्डर उस परियोजना की मार्केटिंग नहीं कर पाएंगे और न ही उससे संबंधित विज्ञापन दे पाएंगे.’ मुरलीधर राव कहते हैं, ‘इसमें वैसी परियोजनाओं को शामिल नहीं किया गया है जो 4,000 वर्ग मीटर से कम में हों.

ऐसा होने से बड़े और घने बसे शहरों में अपना मकान लेने वाले लोगों की समस्याएं तो जस की तस बनी रहेंगी. अब अगर दिल्ली का उदाहरण लें तो नोएडा, ग्रेटर नोएडा, गाजियाबाद और गुड़गांव जैसे बाहरी इलाके में विकसित हो रही परियोजनाएं तो नए कानून के दायरे में आ जाएंगी लेकिन अगर कोई परियोजना दिल्ली में विकसित हो रही हो और यह 4,000 वर्ग मीटर से कम में हो तो यह नए प्रस्तावित कानून के दायरे में नहीं आएगी. अगर सरकार वाकई सभी लोगों के हितों को लेकर गंभीर है तो इन्हें भी नए कानून के दायरे में लाया जाना चाहिए.’ कहना गलत न होगा कि इन मामूली संशोधनों के साथ अगर नया कानून आ जाता है तो शहरों में अपने आशियाने का ख्वाब बुनने वाले लोगों को काफी राहत मिलेगी.

 

खेल विकास

हर समाज के विकास में खेलों का अपना एक अहम स्थान होता है. भारत में भी खास तौर पर क्रिकेट को लेकर दीवानगी है. ऐसे में जब इसका संचालन करने वाली संस्था में गड़बड़ी की बात सामने आती है तो लोगों को आघात पहुंचता है. खेल संस्थाओं के संचालन के नियमन की जरूरत इसलिए भी है कि ये संस्थाएं जो भी टीमें अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धाओं के लिए भेजती हैं, वे वहां भारत का प्रतिनिधित्व करती हैं.

ऐसे में एक खेल विकास कानून लाने की कोशिश लंबे समय से चल रही है, लेकिन यह अब तक रंग नहीं लाई. माना जा रहा है कि खेल संघों की राजनीति इसे आगे नहीं बढ़ने दे रही है. हालांकि, खेल संगठनों के कामकाज में सुधार के लिए 1989 में भी संविधान संशोधन विधेयक संसद में पेश किया गया था. इसमें कहा गया था कि खेलों को राज्य सूची से निकालकर समवर्ती सूची में लाना चाहिए ताकि केंद्र सरकार खेलों को सही ढंग से चलाने का काम कर सके. 2007 में अटाॅर्नी जनरल ने यह राय दी है कि खेलों को समवर्ती सूची में लाए बगैर भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के प्रतिनिधित्व को आधार बनाकर राष्ट्रीय खेल संघों के लिए कानून बनाया जा सकता है. इसके बाद 1989 के प्रस्ताव को वापस लिया गया और खेल मंत्रालय इस नए विधेयक का मसौदा तैयार करने में लगा है. नया कानून लाने की कोशिश तब तेज हुई जब अजय माकन को खेल मंत्रालय का जिम्मा सौंपा गया.

प्रस्तावित नीति में यह प्रावधान है कि देश के सभी खेल संगठनों को राष्ट्रीय खेल संगठन के तौर पर नए सिरे से मान्यता लेनी होगी. कोई भी खेल संघ निजी तौर पर काम नहीं कर सकेगा. सभी खेल संगठन सूचना का अधिकार के तहत आएंगे. उन्हें अपने आय-व्यय का ब्यौरा देना होगा. यह नीति कई स्तर पर पारदर्शिता बढ़ाने की बात करती है. खेल संघों के प्रशासन में खिलाड़ियों की 25 फीसदी भागीदारी सुनिश्चित की जाएगी. खेल संगठनों के पदाधिकारियों की चुनाव प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने की बात भी प्रस्तावित विधेयक में की गई है. पदाधिकारियों के लिए 70 साल की उम्र सीमा तय करने की बात भी प्रस्तावित नीति में है. साथ ही एक स्पोर्ट्स ट्रिब्यूनल के गठन की बात भी की गई है. इस ट्रिब्यूनल में न सिर्फ खेल संघों के झगड़ों का निपटारा होगा बल्कि खिलाड़ी भी अपनी समस्याएं यहां उठा सकते हैं. खेल मंत्रालय ने न्यायमूर्ति मुकुल मुदगल की अध्यक्षता में इस मसौदे की जांच के लिए जो तीन सदस्यीय समिति बनाई थी उसने यह सिफारिश की है कि खेल संगठनों को सूचना का अधिकार कानून के दायरे में लाया जाना चाहिए. देश में क्रिकेट चलाने वाली संस्था भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को इस प्रावधान से काफी आपत्ति है.

यह विधेयक देश में खेलों के विकास के लिए कितना महत्वपूर्ण है, इस बारे में अजय माकन ने खेल मंत्री के पद पर रहते हुए तहलका को दिए एक साक्षात्कार अपनी बात इस तरह रखी थी, ‘देश में खेलों के विकास के लिए तीन प्रमुख समस्याओं का समाधान करना पड़ेगा. पहला तो यह है कि खेलों का दायरा बढ़े और खेल संस्कृति विकसित हो. इसके लिए खेलों को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए. दूसरी बात प्रशिक्षण से जुड़ी हुई है. इसके लिए खेल ढांचा और दुरुस्त करना होगा. तीसरी समस्या है पारदर्शिता की. कई खेल संगठनों में लोग दशकों से कब्जा जमाकर जमींदारी की तरह चला रहे हैं. अब क्रिकेट का ही उदाहरण लें तो यहां कार्यक्षमता तो है लेकिन पारदर्शिता नहीं है. इस वजह से कई अनैतिक चीजें खेल में घर कर गई हैं जैसे यौन उत्पीड़न, डोपिंग और उम्र को लेकर गड़बड़ी. इन्हीं गलत चीजों को दूर करने के लिए हम नया कानून लाने की कोशिश कर रहे हैं.’

 

आगे की राह

सरकार की हीलाहवाली की वजह से संसद से पारित होकर कानून बनने की बाट और भी कई अहम विधेयक जोह रहे हैं. इनमें महिला आरक्षण विधेयक, स्ट्रीट वेंडर विधेयक, उच्च शिक्षा एवं शोध विधेयक, पेंशन फंड रेगुलेटरी विधेयक, वस्तु एवं सेवा कर संबंधी विधेयक, प्रत्यक्ष कर संहिता आदि प्रमुख हैं. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली इस सरकार के पास अब समय काफी कम है. माॅनसून सत्र के बाद उसके पास सिर्फ दो संसद सत्र हैं. इसके बाद आम चुनाव होंगे. ऐसे में अगर सरकार या कांग्रेस चुनावों में अगर यह कहते हुए जाना चाहती है कि उसका हाथ आम आदमी के साथ है तो उसे इन विधेयकों को संसद से पारित कराना होगा. अगर ऐसा नहीं हुआ तो आम लोग भी कांग्रेस के इस दावे के खोखलेपन को समझ जाएंगे.

हालांकि, सत्ता पक्ष यानी कांग्रेस के नेता इन विधेयकों के नहीं पारित होने के लिए विपक्ष को ही जिम्मेदार ठहरा रहे हैं. कांग्रेस महासचिव मोहन प्रकाश तहलका को बताते हैं, ‘जिन विधेयकों की बात आप कर रहे हैं, सरकार और कांग्रेस पार्टी उन्हें पारित कराने को लेकर गंभीर है. लेकिन यह सब देख रहे हैं कि संसद कौन नहीं चलने दे रहा. विपक्ष के नेता बाकायदा एलान करके संसद नहीं चलने दे रहे हैं. ऐसा दुनिया में किसी भी लोकतंत्र में नहीं होता.’ चुनाव में कुछ ही महीने बचे हैं तो फिर कैसे कांग्रेस इन विधेयकों को पारित करा पाएगी? जवाब में मोहन प्रकाश कहते हैं, ‘अगर विपक्ष सकारात्मक रुख अपनाए तो इन विधेयकों को पारित कराया जा सकता है. अगर विपक्ष ने नहीं पारित होने दिया तो हम लोगों के बीच जाएंगे और उन्हें समझाएंगे कि विपक्ष ने आम लोगों को मजबूत करने वाले विधेयकों को नहीं पारित होने दिया. हम जब भी कोई ऐसा कानून लाना चाहते हैं जिससे गरीबों का भला हो, उसमें भाजपा जरूरी अड़ंगा डालती है.’

मुरलीधर राव कहते हैं, ‘इन विधेयकों को लेकर विपक्षी पार्टियों को भी कोई आपत्ति नहीं है. कुछ प्रावधानों को लेकर किसी-किसी पार्टी की आपत्ति है जिन्हें दूर किया जा सकता है. संसद सत्र शुरू होने से पहले कांग्रेस को विपक्षी पार्टियों के नेताओं के साथ बैठकर इन विधेयकों पर चर्चा करनी चाहिए. इस बातचीत में विपक्षी दलों के नेताओं की शंकाओं का समाधान सरकार को करना चाहिए. अगर सरकार ऐसा करे तो मुझे पूरा यकीन है कि ये सारे महत्वपूर्ण विधेयक पारित हो सकते हैं. लेकिन फिर से मैं यही बात दोहराना चाहता हूं कि सरकार की नीयत ही साफ नहीं है इसलिए वह तानाशाह की तरह काम करना चाहती है.’

 

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