जनता पर तेल की मार

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राजीव गुप्ता

महंगाई की मार से जूझ रही जनता पर इस बार यूं.पी.ए. – 2 की अब तक की सबसे बड़ी मार पड़ी है ! इस मंगलवार को यूं.पी.ए. – 2 ने सरकार संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार के सत्ता में तीन साल पूरे होने के उपलक्ष्य में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की ओर से शाम को एक डिनर पार्टी का आयोजन किया गया जिसमे सरकार की तीन वर्षो की उपलब्धियों को गिनाया गया अभी उपलब्धियों का यह जश्न पूरे शबाब पर ही था कि अचानक तेल कंपनियों ने बुधवार की शाम को पेट्रोल की कीमत में 7.50 रुपये प्रति लीटर बढ़ोतरी की घोषणा कर दी ! गौरतलब है कि पेट्रोल के दाम में कभी भी इतनी ज्यादा बढ़ोतरी नहीं की गई ! इससे पहले पिछले साल 2 बार 5-5 रुपये की बढ़ोतरी की जरूर गई थी, जो सबसे ज्यादा थी ! तमाम राजनीतिक दबावों को दरकिनार कर तेल कंपनियों ने पेट्रोल की कीमतों में बड़ी बढ़ोतरी की है ! डीजल और एलपीजी दाम नहीं बढ़ाए गए हैं , गौरतलब है कि डीजल और एलपीजी की कीमतों में बढ़ोतरी के लिए शुक्रवार को मंत्रियों के समूह की बैठक होने वाली है और इसी बैठक में इनके दामों में बढ़ोतरी का निर्णय लिया जाएगा ! वर्तमान समय में तेल रूपी “विश्व – मोहिनी” से प्रभावित होकर महंगाई “सुरसा” की भांति अपना मुंह दिन-प्रतिदिन फैलाकर बढ़ाये जा रही है ! जिसकी मार से आम आदमी त्रस्त है, और सरकार विश्व – पटल पर तेल के दामों में बढ़ोत्तरी को जिम्मेदार ठहराकर अपना पल्ला झाड लेती है ! गौरतलब है कि इस समय कच्चे तेल की कीमतों में कमी हुई है ! परन्तु जबसे यूंपीए सरकार ने पेट्रोल की कीमतों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त किया है आये हर दूसरे – तीसरे महीने निजी कम्पनियाँ मनमानी ढंग से तेल की कीमतों में इजाफा किये जा रही है !

वित्त मंत्री ने पेट्रोल की कीमत में वृद्धि के लिए डॉलर के मुकाबले रुपये के लगातार गिरते स्तर को बताया ! गौरतलब है कि बुधवार को रुपया डॉलर के मुकाबले रेकॉर्ड 56 रुपये के पार पहुंच गया और अर्थशास्त्रियों ने यह आशंका जताई है कि रुपये में और कमजोरी आ सकती है ! यह प्रति डॉलर 60 रुपये के स्तर तक गिर सकता है ! बुधवार को एक वक्त रुपया एक डॉलर के मुकाबले 56.21 रुपये के ऐतिहासिक निचले स्तर पर पहुंच गया था, जो अब तक की रुपये की सबसे बड़ी गिरावट है ! ज्ञातव्य है कि भारत बड़ी मात्रा में पेट्रोलियम पदार्थ का आयात करता है और इसका भुगतान डॉलर में होता है ! डॉलर के मुकाबले रुपया 55 से भी नीचे जाने के कारण तेल कंपनियों का घाटा बढ़ गया है ! अर्थशास्त्रियों का यह तर्क है कि तेल कंपनियों को बढ़ी हुई कीमतों के पहले तक पेट्रोल पर करीब 12 रुपये और डीजल पर 15 रुपये प्रति लीटर का घाटा हो रहा था ! 2011-12 में तेल कंपनियों को 1,38,541 करोड़ रुपये का घाटा हुआ था ! सरकार ने 83,500 करोड़ की भरपाई की !

सरकार का यह तर्क कि पेट्रोलियम मूल्य पर उसका कोई नियंत्रण नहीं है गले नहीं उतरता ! कारण बहुत साफ़ है कि जब राज्यों में चुनाव हो रहे थे तब तेल कंपनियों दाम नहीं बढ़ाये और अभी हाल में ही संसद का बजट सत्र मंगलवार को ही खत्म हुआ है तब भी तेल कंपनियों ने दाम नहीं बढ़ाये ! हालाँकि अटकलों का बाजार पूरे जोर पर था कि अब पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ाने का ऐलान कभी भी हो सकता है ! सरकार कुछ भी तर्क देती रहे पर उसकी मंशा पर भी अब सवाल खड़े हो रहे है ! ऐसा लगता है सरकार परदे की पीछे से राजनीति कर रही है ! क्योंकि मंगलवार को ही संसद का बजट सत्र समाप्ति के बाद पेट्रोलियम मिनिस्टर एस. जयपाल रेड्डी ने तेल की कीमतें तुरंत बढ़ाने की जरूरत बताई, लेकिन कहा कि इससे पहले राजनीतिक दलों से बात करनी होगी ! सरकार ने बात की या नहीं यह तो वही जाने पर तेल की कीमते जरूर बढ़ा दी गयी जिससे उनके अपने ही सहयोगियों आग-बबूला हो रहे है !

सरकार का कहना है कि आरबीआई रुपये की कमजोरी को रोकने की कोशिश कर रहा है, लेकिन उसकी कोशिश नाकाफी साबित हो रही है ! तमाम कोशिशों के बावजूद रुपये की गिरावट थमने का नाम नहीं ले रही है ! अगर रुपये की गिरावट इसी तरह जारी रही, तो घटते औद्योगिक उत्पादन के बीच आयात आधारित उद्योग बर्बाद हो सकते हैं ! सिर्फ पेट्रोलियम पदार्थ ही नहीं खाने पीने के तेलों की कीमत बढ़ सकती है ! साथ ही दाल की कीमतें भी काफी बढ़ सकती हैं ! आम जनता के किचन का बजट बिगड़ सकता है ! इन सबकी मार आखिरकार आम जनता पर ही पड़ेगी ! कांग्रेस पार्टी का चुनाव के समय एक प्रसिद्द नारा था कि “कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ” परन्तु अब यह नारा बेमानी सा लगने लगा है क्योंकि लाख टके का यही सवाल है कि आम आदमी जाये तो कहा जाय ?

वर्तमान भारत के प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह जो कि एक विश्व विख्यात अर्थशास्त्री भी है जब 1991 में पी.वी. नरसिम्हा राव की सरकार में वित्त मंत्री थे तब इन्होने अपनी दूरदर्शिता का परिचय दिया और उस समय की इनकी आर्थिक सुधार की पहल से पिछले दो दशको में भारत की अर्थव्यवस्था की गिनती चुनिन्दा शक्तिशाली देशो में होने लगी ! इसका अंदाजा हम वर्ष 2010 में अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा से भी लगा सकते है जिसमे उनके भारत आने का एक उद्देश्य अमेरिका व्यापार के लिए भारतीय -बाजार को खोलना भी शामिल था ! गत तीन वर्ष की उपलब्धियों का चाहे जितना नगाड़ा बजाया जाय परन्तु सरकार की अब साख बची भी है या नहीं इसका अंदाज़ा लगाना बड़ा मुश्किल है क्योंकि देश इनसे आर्थिक सुधार के मुद्दों पर हर भारतीय कुछ करिश्माई जरूरी कदम लेने की आस से देखता था !

अब हर तबके के लोग सरकार की किरकिरी कर रहे है ! गौरतलब है कि अभी हाल ही में एनएसएसओ के ताजा आंकड़ो के आधार पर यह कहा गया कि लगभग 60% जनता गरीबी में रहती है ! इतना ही नहीं अभी हाल में ही अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी स्टैडर्ड एंड पूअर्स ने राजकोषीय घाटे की बिगडती स्थिति तथा नीति-निर्णय के स्तर पर चलते राजनीतिक दिशाहीनता को देखते हुए भारत की रेटिंग को नकारात्मक कर दिया है ! इतना ही नहीं एक अन्य रेटिंग एजेंसी मूडीज ने भारत की ख़राब होती अर्थव्यवस्था के लिए श्री मनमोहन सिंह को ही जिम्मेदार ठहराया था ! इन एजेंसिया की विश्वव्यापी इतनी बड़ी साख है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इनकी रिपोर्टो के आधार पर ही विदेशी अन्य देशो में निवेश करते है ! सरकार अभी भी अपनी बची हुई साख को भी दांव पर लगाने से नहीं बाज आ रही है ! जब किसी भी सरकार की साख लगातार कम हो रही हो , महंगाई रोकने में नाकाम हुई हो और तेल – मूल्यों में ऐसी बेतहासा बढ़ोत्तरी हो रही हो जिसकी मार आम आदमी पर पड़ रही हो वर्तमान सरकार के कामकाज के तौर तरीको पर प्रश्न चिन्ह तो खड़ा होगा ही !

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  1. आयातित तेलम के मूल्यों में वृद्धि न की जाए तो इसके लिए क्या उपाय है?अगर सब्सिडी दी जाए तो इसका भार कौन सहेगा?डीजल पर सब्सिडी के हिमायतियों को मैंने इकबाल हिन्दुस्तानी के लेख में देश द्रोही करार दिया था.इस बात में कतई मतभेद नहीं है कि सरकारी नीतियाँ हर जगह असफल रही हैं और देश भ्रष्टाचार से जूझ रहा है.पर उसका दोषारोपण तेल की कीमतों की वृद्धि पर मढ़ना गलत हैकच्चे तेल का दाम जब अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बढेगा तो उसके उत्पादों का मूल्य बढना लाजिमी है.अगर उस मूल्य वृद्धि को रोकना है तो सरकार को उसकी भरपाई करनी पड़ेगी यानि आम जनता पर बोझ बढेगा.यह कहाँ का न्याय है कि पेट्रोल और डीजल जिससे समाज के नीचले स्तर को कोई लेना देना नहीं है, को ऊसका बोझ उठाना पड़े.

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