निजी से बुरा नहीं सरकारी मीडिया

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संजय कुमार

सरकारी मीडिया को गरियाने का पुराना रिवाज रहा है। गाहे-बगाहे सरकारी मीडिया को गरियाने वाले लोग भले ही किसी न किसी रूप में सरकारी मीडिया से फायदा उठाते रहते हैं। वर्षों से सरकारी मीडिया के कार्यकलाप को लेकर खिंचाई होती रही है। लेकिन सरकारी बनाम निजी मीडिया की असलियत जनता जान चुकी है। वह जानती है कि कौन कितना सच खबर देता है। निजी मीडिया पर अपुष्ट खबरों के प्रकाशन व प्रसारण पर सवाल उठते रहते हैं लेकिन सरकारी मीडिया के साथ यह नौबत नहीं आती।

सरकारी और गैर सरकारी मीडिया ने आज पूरी तरह से व्यापकता को ले लिया है। देश में सरकारी मीडिया के समानांतर निजी मीडिया ने अपना साम्राज्य कायम कर लिया है। निजी मीडिया वहीं कुछ बकता है जो वह चाहता है। वह बाजार को देखता है और अपना बाजार बनाता है। सरकारी मीडिया सिर्फ और सिर्फ जनहित में अपने कार्यों को करता है। यह अलग बात है कि इसपर सरकार का भोंपू होने का आरोप मढ़ा जाता है।

दैनिक हिन्दुस्तान के 29 जुलाई के संपादकीय पेज पर नजरिया काॅलम में ‘‘एफएम खबरों से क्यों डरती सरकार’’ में जन संचार से जुड़े सहायक प्रोफेसर मुकूल श्रीवास्तव ने वहीं पुराना राग अलापा है। सरकार द्वारा एफएम निची चैनलों पर समाचारों के प्रसारण के लिए आकाशवाणी के समाचारों को प्रसारित करने की जो रियायत दी है उसपर उन्होंने अपने नजरिये में आकाशवाणी के समाचार को नीरस घोषित कर दिया है। समझ में नहीं आता कि जन संचार से जुड़े प्रोफेसर साहब को आकाशवाणी समाचार की नीरसता का आकलन कैसे हो गया। जनसंचार से वे जुड़े हुए है और उन्हें यह भी पता नहीं कि आकाशवाणी के समाचार जनहित का होता हैं । सरकार की नीति-योजना के बारे में दूर दराज के गांव में जहां अखबार भी नहीं पहुंचता वहां पहुंचायी जाती है। जो काम निजी मीडिया नहीं करता। मैं यहां सरकारी मीडिया से जुड़े होने के नाते सरकारी मीडिया की वकालत नहीं कर रहा, बल्कि सच्चाई बताने की कोशिश भर कर रहा हूं कि सरकारी मीडिया, निजी और कारपोरेट मीडिया से कहीं ज्यादा बेहतर विश्वसनीय है। यह अलग बात है कि सरकार ने एफएम चैनलों पर खबरों के प्रसारण के लिए किसे चुना। अगर उनकी बात मान ली जाती और एफएम निजी चैनलों को खबरिया चैनलों की तरह आम खबरों को प्रसारण की छूट दे दी जाती है तो क्या वे खबरिया चैनलों की तरह कथित अपुष्ट समाचारों का प्रसारण नहीं करेगें ? या फिर इस बात की गारंटी कौन लेगा कि एफएम निजी चैनलों पर प्रसारित होने वाले खबरों में वो कुछ नहीं जायेगा जो आज के मीडिया में जा रहा है।

ब्रेकिंग न्यूज और आगे निकलने की होड़ में खबरों के साथ खिलवाड़ करके चैनल खबर की सच्चाई पर नहीं जाते और प्रसारित कर देते हैं। जब खबर असत्य हो जाता है तो खंडन तक भी नहीं देते। रेडियो एक ऐसा सशक्त माध्यम है जो खबर को जंगल की आग की तरह फैलाता है और क्षण भर में ऐसा असर छोड़ जाता है कि हालात के बिगड़ने से रोक पाना असंभव प्रतीत होता है। इसके लिए उदाहरण रखने की जरूरत नहीं है। इसलिये इसके प्रसारण को लेकर नियम बने हैं। जिसका पालन होने से सरकारी भोंपू सा आरोप चिपका दिया जाता है। लोकतंत्र है सब को कुछ भी कहने का हक है ? ऐसे में सरकारी फैसला कहां तक सही है इसपर अध्ययन करने की जरूरत है। सरकार नतीजे को जानती है। जहंा तक नेपाल से प्रसारित एफ.एम रेडियो चैनल पर समाचार प्रसारण की बात श्री मुकूल श्रीवास्तव ने की है। लगता है शायद वे सुनते नहीं होंगे ? भोजपुरी में प्रसारित ये समाचार भी कई बार पुष्ट व अपुष्ट के बीच पिसते मिल जाते हैं।

रेडियो के समाचार भले ही एकाध लोगों को नीरस लगता हो लेकिन उसका अपना वजूद है। अपनी पकड़ है। अपना विश्वास है। राज्यों से प्रसारित प्रादेशिक सामचार बात करना चाहूंगा। करोड़ों श्रोत्रा हैं इसके, इसपर जितना भरोसा करते है, शायद ही किसी अन्य माध्यम पर नहीं करते ? इसकी नीरसता का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि रेडियो ने कभी भी अपुष्ट खबरें नहीं दी। पुष्टता इसकी पहचान है।

सबसे अहम् बात ये है कि जो आरोप सरकारी मीडिया पर लगता रहा है। वह बड़े हदतक सही नहीं है। रेडियो पर प्रसारित होने वाले समाचारों पर भले ही कथित तौर पर कभी कभी यह कह दिया जाए कि सरकार का भोंपू है, तो एक सवाल यहां पर उठता है क्या कोई मीडिया हाउस अपने खिलाफ खबर का प्रकाशन या प्रसारण करता है। भडास4मीडिया, मीडियाखबर, मीडियामोरचा, मोहल्लालाइव, सहित कई अंतरजालों पर अक्सर निजी मीडिया के अंदर की खबर आती रहती है। जो कभी प्रिंट या खबरिया चैनल पर नहीं आ पाता। बिहार के पटना से छपने वाले अंग्रेजी समाचार पत्र टाइम्स आॅफ इंडिया ने अपना प्रैस अचानक बंद कर दिया और कर्मचारी हड़ताल पर बैठ गये तो किसी मीडिया ने एक लाइन की खबर तक नहीं लगायी। हां, अंतरजालों पर यह खबर जरूर आयी। उदाहरण बहुत है नजरिया बदलना हो गया। हर का अपना महत्व है।

जहां तक खबर का सवाल है तो हालात बदले हैं। सरकार के अंदर और बाहर की खबरें अब सरकारी मीडिया पर भी आने लगी हैं । रेडियो समाचारों को ध्यान से देखा जाए तो उसमें साफ है कि मुद्दों को/ सवालों को/ उसके लिमिट तक में ही उठाकर रखा जाता है। ऐसा कोई मौका नहीं जहां पक्ष और विपक्ष को बराबरी का मौका नहीं दिया जाता। यह संपादक पर निर्भर करता है कि बुलेटिन का स्वरूप कैसा हो पूरा का पूरा ध्यान जनहित पर होता है। खबरों में सांप, बिच्छू, सेक्स और उठा पठक की खबरों को रेडियो तरजीह कतई नहीं देता। ऐेसे में सवाल तो उठना ही है।

आलेख में एक और गंभीर बात लिखी गयी है जो पचता नहीं दिखता कि टेलीविजन में तो यह हाल है कि अगर दूसरे चैनल उपलब्ध हो तो कोई भी दूरदर्शन के समाचार नहीं देखना चाहता। पिछले ही दिनों एक चर्चित पत्रिका ने जाने माने मीडिया विश्लेषक की रिपोर्ट प्रकाशित की थी कि लोगों का रुझान दूरदर्शन समाचार के प्रति बढ़ा है। दूरदर्शन समाचार भी अन्य खबरिया चैनलों की राह पर नहीं चलता। ऐसे में खबरों को लेकर कोई सवाल ही नहीं उठते। दस-दस घंटें तक किसी खबर को रबर की तरह नहीं खींचता। सबसे ज्यादा नेटवर्किंग वाले दूरदर्शन को हमेशा कम आंका गया है। इसकी वजह है इसका सरकारी होना। बात वहीं पर आ जाती है कि कैसे कोई अपने ही संस्थान के खिलाफ जा सकता है। क्या कभी किसी मीडिया हाउस ने अपने ही खिलाफ कोई खबर छापी या प्रसारित की है ? शायद हाल ढूंढ़ते रह जाओगे वाला हाल हो जाये। जो घटनाएं घटती है जिसमें जनहित से जुड़ी खबरें बनती है उसे दूरदर्शन जरूर दिखाता है ऐसा नहीं की खबरों पर आंखें बंद कर लेता है।

यह एक अलग बात है कि एफएम निजी रेडियो पर खबरों का अपना प्रसारण हो। स्वतंत्रता स्वायत्ता मिले लेकिन इसकी कौन गारंटी लेगा कि अगर सरकार निजी एफएम चैनलों पर उनके द्वारा तैयार खबरों के प्रसारण की अनुमति दे देती है तो खबरों के साथ वे न्याय कर पायेंगे ? जहां तक मेरा अपना मानना है कि रेडियो की सशक्तता को देखते हुए ही सरकार खबरों के प्रसारण निजी चैनलों को नहीं देना चाहती ताकि खबरों के बिगड़ते मिजाज के आगोश में रेडियो कहीं बदनाम न हो जाय। एक सवाल यह उठाया जाता रहा है कि अगर निजी टी.वी. चैनलों को खबर प्रसारण की छूट है तो निजी रेडियो को क्यों नहीं ? इसका एक जबाव है कि निजी टी.वी चैनलों की पहुंच इतनी नहीं, जितनी कि निजी रेडियो की हो सकती है। ऐसे में चैनलों के गलत खबर का असर उतना नहीं पड़ता जितना कि निजी रेडियो की पहुंच का हो सकता है। साथ ही चैनलों को मानीटर किया जा सकता है जबकि रेडियो को मानीटर करना आसान नहीं होगा।

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संजय कुमार
पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा।समाचार संपादक, आकाशवाणी, पटना पत्रकारिता : शुरूआत वर्ष 1989 से। राष्ट्रीय व स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में, विविध विषयों पर ढेरों आलेख, रिपोर्ट-समाचार, फीचर आदि प्रकाशित। आकाशवाणी: वार्ता /रेडियो नाटकों में भागीदारी। पत्रिकाओं में कई कहानी/ कविताएं प्रकाशित। चर्चित साहित्यिक पत्रिका वर्तमान साहित्य द्वारा आयोजित कमलेश्‍वर कहानी प्रतियोगिता में कहानी ''आकाश पर मत थूको'' चयनित व प्रकाशित। कई पुस्‍तकें प्रकाशित। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् द्वारा ''नवोदित साहित्य सम्मानसहित विभिन्न प्रतिष्ठित संस्थाओं द्वारा कई सम्मानों से सम्मानित। सम्प्रति: आकाशवाणी पटना के प्रादेशिक समाचार एकांश, पटना में समाचार संपादक के पद पर कार्यरत।

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  1. प्रस्तुत आलेख से मैं पूरी तरह सहमत हूँ. इसमें ये भी जोड़ना चाहूँगा कि हमारे देश के राजनेतिक अतीत में सरकारों ने सरकारी मीडिया का भरपूर दोहन किया है.जनता के निरंतर संघर्ष और राजनीतिक चेतना के परिणाम स्वरूप शशक वर्गों को बाध्य होकर अपने नियंत्रण वाले मीडिया को स्वायत्तता कैसे देना पड़ी उसे भी रेखांकित किया जाना चाहिए .१९७७ कि जनता पार्टी सरकार नेअपने सहयोगी समाजवादियों -साम्यवादियोंऔर जनसंघियों{अबके भाजपाई] के दवाव में अपने पूर्व वर्ती एकाधिकारवादी तंत्र को स्वयम में जबाबदेह और लोक हितकारी बनाने का काम किया था.मौजूदा स्थिति में लाने के लिए सूचना एवं तकनीकी माध्यमों में आधुनिकतम तकनालोजी के आगमन और निजी क्षेत्र कि चुनौतियों भी प्रकारांतर से असरकारक रहीं हैं.

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