पेट्रो डॉलर और विश्व शान्ति!

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petroब्रिकस के सदस्य देशों में ब्राजिल, रुस, भारत, चीन और दक्षिणी कोरिया जैसे देश शामिल है। और इन देशों के संगठन ने विश्व के देशों की चैन छीन रखी है। वही अमेरिका इनके प्रयासों से हताश और अन्दर से डरा हुआ है। ऐसा कभी कभी लगता है कि अमेरिका तीसरी विश्व युद्ध की तैयारी में लगा है और प्रतिक्रिया और आक्रोश में वह एक और पेट्रोल उत्पादन करने वाले देशों में अशांति, अनेकों नाम से आतंकवादी में जीवन प्रदान करने, सत्ता के विरूद्ध जनाक्रोश भड़काने में लगा है। प्रथम अमेरिका इन देशों में प्रत्यक्ष आक्रमण कर रहा था, अब अप्रत्यक्ष आक्रमण करने में व्यस्त है। वही विश्व भर में बनते बिगड़ते गठबंधनो और नऐ नऐ मंचों से परेशान हैं।

अमेरिका उसकी अर्थव्यवस्था और उसकी मुद्रा जो अन्तराष्ट्रीय व्यापार की मुद्रा है। जिसे चैलेंज का सामना करना पड़ रहा है। साथ ही साथ इस पद्धति को बदलने के लिऐ जापान और चीन के शासनाध्यक्ष कई बार मिल चुके हैं। साथ ही रूस खुले तौर पर अमेरिकन मुद्रा के विरोध् में मैदान में आ खड़ा हुआ है। 2010 में जापान ने अमेरिकन विरोध् में चीन के साथ गठबंधन करने का जो प्रयास किया था। उसके बदले में 2011 में जापान को सोनामी झेलनी पड़ी थी। अब तो जमाना सीधे तौर पर युद्ध करने का नहीं है। आण्विक और परमाणु आक्रमण जमीन के अन्दर से किऐ जाते हैं और तबाही लाई जाति है। भारत में, प्रथम उत्तराखण्ड और अब कश्मीर में हमले हुए पता नहीं इसमें अमेरिका का हाथ था अथवा रूस का।

ब्रिकस के सदस्य देशों ने अपने अधिवेशन में 16 जुलाई 2014 को मीनी आई एम एफ ;छोटे अन्तर राष्ट्रीय मुद्रा कोषद्ध की स्थापना चीन में करने का ऐलान कर दिया, साथ में एक और ऐलान हुआ कि इस मुद्रा कोष के प्रथम अध्यक्ष भारतीय होंगे।

रूस, अमेरिकी मुद्रा को पेट्रो डॉलर स्वीकार करने से साफ तौर पर इंकार कर रहा है जो दोनों देशों के मध्य शीत युद्ध का वर्तमान में कारण बना हुआ है। और दोनों देश अपना अपना शक्ति प्रदर्शन करने में लगा है। रूस ने अपने प्रभुत्व वाले अनेकों समुद्री स्थानों पर अमेरिकी सैनिक क्षमता और युद्धपोतों को नष्ट कर दिए हैं। रूस की इस कार्यवायी के कारण अमेरिका को अनेकों स्थानों पर से या तो अपने ठिकाने बदलने पड़े अथवा अपने सैनिकों को वापस बुलाने पड़े हैं। रूस अपने आप को यूरोप के समक्ष एक सभ्य, शांति और प्रगतिवादी के रूप में अपने आप को पेश कर रहा है। उसने यूरोप भर में संस्कृति क्रान्ति का श्रीगणेश शुरू कर दिया है। रूस ने जर्मनी से अपने मजबूत सम्बन्ध् स्थापित कर लिय हैं। जर्मनी ने अमेरिकी खुफिया विभाग के साथ कठोर रवैया अपना रखा है। अमरिकी एवं पेट्रो डॉलर की प्रभाव को कम रने के वास्ते रूस सबसे बड़ी तेल कम्पनी ‘‘गजप्रोम’’ का प्रयोग कर रही है और इस कम्पनी ने यूरोपिय कम्पनियों से जो समझौते किए हैं वह यूरोपीय मुद्रा यूरो में किए हैं।

इससे पूर्व अमेरिका और रूस के मध्य यूरोप को पेट्रोलियम आपूर्ति करने को लेकर व्यापारिक प्रतिस्पर्धा हो चुका है। जब रूस ने ‘‘शेलगैस’’ को विश्व के सामने प्रस्तुत किया तो अमेरिका उसको प्रचार इस प्रकार से किया कि इससे चलाने वाले इंजन को जंग लगने का खतरा है। और जब क्रेमिया और यूक्रेन के विषयों को लेकर रूस पर प्रतिबन्ध् लगने लगा तो रूस और चीन के मध्य 20 वर्षों से अध्र में पड़ा समझौता 20 जून 2014 को समपन्न हो गया। 400 लेन डॉलर का यह समझौता अमेरिकन व्यापार और तेल निर्यात के विकल्प के रूप में पेश किया गया साथ ही साथ इस समझौते ने यूरोपीय देशों और अमेरिका के द्वारा लगाऐ गऐ प्रतिबन्धें को निष्क्रिय कर गया। यूरो से रूसी व्यापार, चीन से यूआन, ईरान से तुमान, सिंगापुर से डॉलर, हांगकांग से डॉलर के माध्यम से व्यापार ने अमेरिका को बेचैन कर रखा हुआ है। अनेको रूसी कम्पनियों ने अब डॉलर के स्थान पर अन्य देशों की मुद्राओं में व्यापार करने का मन बना लिया है। रूस ने अमेरिका को अध्कि रूप से परास्त करने का प्रयास गति से शुरू कर दिया है। जिससे आर्थिक जगत की अमेरिकन प्रभुत्व को या तो कम किया जाय अथवा तोड़ा जाय।

1945 में अमेरिका ने जापान पर एक प्रतिबन्ध् लगाया था। जिसके तहत जापान न तो सैन्य साज व सामान का निर्माण कर सकता है और न ही वह युद्ध में प्रयोग होने वाले सामानों की निर्यात कर सकता है। अमेरिका ने उस पर से प्रतिबन्ध् हटाने का ऐलान कर दिया है। जापान को ऐशियाई देशों के मध्य ऐशियाई नाटो के रूप में पेश किया जा रहा है। जापान को अमेरिका की भांति ‘पुलिस मैन’ की भूमिकाओं में नजर आना होगा। अमेरिका जापान को अपने पेट्रो डालर की सुरक्षा के लिऐ इस्तेमाल करना चाहता है।

फखरे आलम

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