राष्ट्र भाषा हिंदी की दुर्दशा

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राकेश कुमार आर्य

आज हम स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक हैं। हमारी राष्ट्र भाषा हिंदी है, इस भाषा को बोलने वाले विश्व में सबसे अधिक लोग हैं। अंग्रेजी को ब्रिटेन के लगभग दो करोड़ लोग मातृ भाषा के रूप में प्रयोग करते हैं, जबकि हिंदी को भारत वर्ष में उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे प्रांतों में लगभग साठ, पैंसठ करोड़ लोग अपनी मातृ भाषा के रूप में प्रयोग करते हैं। जबकि इसे संपर्क भाषा के रूप में पूरे देश में समझा जाता है और देश से बाहर श्रीलंका, नेपाल, वर्मा, भूटान, बांगलादेश और पाकिस्तान सहित मारीशस जैसे सुदूरस्थ देशों में भी बोला समझा जाता है। इससे विश्व की सबसे समृद्घ भाषा और सबसे अधिक बोली व समझी जाने वाली भाषा हिंदी है, लेकिन इस हिंदी को कांग्रेस की सोनिया गांधी सेवकों की अर्थात नौकरों की भाषा बताती हैं। इसमें दोष सोनिया गांधी का नही है अपितु दोष कांग्रेस और कांग्रेसी संस्कृति का है, कांग्रेसी विचारधारा और कांग्रेसी मानसिकता का है।

पंडित जवाहर लाल नेहरू इस देश के पहले प्रधानमंत्री बने। तब उन्होंने देश में हिंदी के स्थान हिंदुस्तानी नाम की एक नई भाषा को इस देश की संपर्क भाषा के रूप में स्थापित करने का अनुचित प्रयास किया। उनका मानना था कि हिंदुस्तानी में सभी भाषाओं के शब्द समाहित कर दिये जाएं और उर्दू के अधिकांश शब्द उसे देकर पूरे देश में लागू किया जाए। हमारा तत्कालीन नेतृत्व यह भूल गया कि प्रत्येक भाषा की अपनी व्याकरण होती है, हिंदी की अपनी व्याकरण है। जबकि उर्दू या हिंदुस्तानी की अपनी कोई व्याकरण नही है। इसलिए शब्दों की उत्पत्ति को लेकर उर्दू या हिंदुस्तानी बगलें झांकती हैं, जबकि हिंदी अपने प्रत्येक शब्द की उत्पत्ति के विषय में अब तो सहज रूप से समझा सकती है, कि इसकी उत्पत्ति का आधार क्या है?

भारत में काँग्रेस ने किस प्रकार हिंदी का दिवाला निकाला इसके लिए तनिक इतिहास के पन्नों पर हमें दृष्टिपात करना होगा। 25वें हिंदी साहित्य सम्मेलन सभापति पद से राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद जी ने कहा था-’हिंदी में जितने फारसी और अरबी के शब्दों का समावेश हो सकेगा उतनी ही वह व्यापक और प्रौढ़ भाषा हो सकेगी।’इंदौर सम्मेलन में गांधी जी डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के भाषण से भी आगे बढ़ गये थे, जब उन्होंने हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं को एक ही मान लिया था। कांग्रेस राजनीतिक अधिकारों के बंटवारे के साथ भाषा को भी सांम्प्रदायिक रूप से बांटने के पक्ष में रही है। इसीलिए भारत में साम्प्रदायिक आधार पर प्रांतों का विभाजन तो हुआ ही है, यहां भाषाई आधार पर भी प्रांतों का विभाजन और निर्माण किया गया है।

प्रारंभ में कांग्रेसी लोग कथित हिंदुस्तानी भाषा में उर्दू के तैतीस प्रतिशत शब्द डालना चाहते थे, परंतु मुसलमान पचास प्रतिशत उर्दू के शब्द मांग रहे थे, जबकि मुसलिम लीग के नेता जिन्ना इतने से भी संतुष्ट नही थे। कांग्रेस के एक नेता मौहम्मद आजाद का कहना था कि उर्दू का ही दूसरा नाम हिंदुस्तानी है जिसमें कम से कम सत्तर प्रतिशत शब्द उर्दू के हैं। पंजाब के प्रधानमंत्री सरब सिकंदर हयात खान की मांग थी कि हिंदुस्तान की राष्ट्र भाषा तो उर्दू ही हो सकती है, हिंदुस्तानी भी नही, इसलिए कांग्रेस को उर्दू को ही राष्ट्र भाषा बनाना चाहिए।

यदि हम स्वतंत्रता के बाद के इतिहास के कालखण्ड पर दृष्टिपात करें तो हिंदी के बारे में हमारे देश की सरकारों का वही दृष्टिकोण रहा है जो स्वतंत्रता पूर्व या स्वतंत्रता के एकदम बाद कांग्रेस का इसके प्रति था। आज भी यह देखकर दुख होता है कि हिंदुस्तानी नाम की जो भाषा प्रचलन में आई है उसने हिंदी को बहुत पीछे धकेल दिया है। पूरे देश में अंग्रेजी और उर्दू मिश्रित भाषा का प्रचलन समाचार पत्र-पत्रिकाओं में भी तेजी से बढ़ा है। इसका परिणाम ये आया है कि नई पीढ़ी हिंदी के बारे में बहुत अधिक नही जानती। विदेशी भाषा अंग्रेजी हमारी शिक्षा पद्घति का आधार बनी बैठी है, जो हमारी दासता रूपी मानसिकता की प्रतीक है। यदि राष्ट्र भाषा हिन्दी को प्रारंभ से फलने फूलने का अवसर दिया जाता तो आज भारत में जो भाषाई दंगे होते हैं, वो कदापि नही होते। भाषा को राजनीतिज्ञों ने अपनी राजनीति को चमकाने के लिए एक हथियार के रूप में प्रयोग किया है। महाराष्ट्र जैसे देशभक्तों के प्रांत में भाषा के नाम पर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राजठाकरे जो कुछ कर रहे हैं उसे कतई भी उचित नही कहा जा सकता। भाषा के नाम पर महाराष्ट्र से बिहारियों को निकालना और उत्तर भारतीयों के साथ होने वाला हिंसाचार हमारे सामने जिस प्रकार आ रहा है उससे आने वाले कल का एक भयानक चित्र रह-रहकर उभरता है।

पंडित नेहरू के समय में कामराज जैसे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता के पास दिल्ली से हिंदी में जब पत्र जाने लगे तो उन्होंने अपने पास एक अनुवाद रखने के स्थान पर ‘इन पत्रों को कूड़े की टोकरी में फेंक दो’ ऐसा निर्देश अपने अधिकारियों को देकर राष्ट्रभाषा के प्रति अपने घृणास्पद विचारों का प्रदर्शन किया था। इस प्रकार हम देखते हैं कि स्वतंत्र भारत में पहले दिन से ही राजनीतिज्ञों की उपेक्षावृत्ति ने हिन्दी को अपनी घृणापूर्ण अवहेलना का शिकार बनाया। एक आंकलन के अनुसार पूरे भारत वर्ष में कुल जनसंख्या का पांच प्रतिशत से भी कम भाग अंग्रेजी समझ पाता है। हमें गुजराती होकर मराठी से घृणा है और मराठी होकर हिंदी से घृणा है, लेकिन विदेशी भाषा अंग्रेजी से प्यार है। जो भाषा हमारी संपर्क भाषा भी नही हो सकती उसे हमने अपनी पटरानी बनाकर रख लिया है, और जो भाषा पटरानी है उसे दासी बना दिया है। यही कारण है कि देश में विदेशी भाषा अंग्रेजी के कारण देश की अधिकांश आर्थिक नीतियों और योजनाओं का लाभ देश का एक विशेष वर्ग उठा रहा है। उस वर्ग को आगे बढ़ता देखकर हिंदी में बोलने वाले व्यक्ति को स्वयं ही ऐसा लगता है कि जैसे हिंदी में बोलकर वह कितना छोटा काम कर रहा है। किसी भी कार्यालय में साक्षात्कार के लिए जाने वाले अभ्यर्थी ने यदि बेहिचक अंग्रेजी में प्रश्नों के उत्तर दिये हैं तो उसके चयन की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। इसलिए हिंदी के प्रति उपेक्षाभाव देश में बढ़ता जा रहा है।

यह भी सर्व विदित है कि भारत एक कृषि प्रधान देश है। किंतु फिर यहां के किसान के लिए टीवी और रेडियो पर जो वार्ताएं प्रसारित की जाती हैं वे अक्सर या तो अंग्रेजी में होती हैं या अंग्रेजी प्रधान शब्दों से भरी हुई होती हैं। इन वार्ताओं को भारत का किसान समझ नही पाता इसलिए सुनना भी नही चाहता। यही कारण है कि टीवी और रेडियो पर आयोजित की जाने वाली इन वार्ताओं का अपेक्षित परिणाम देश में देखने को नही मिल रहा है। राष्ट्र को एकता के सूत्र में पिरोये रखने के लिए नही भाषा नीति की आवश्यकता है। इसके लिए शिक्षा का संस्कारों पर आधारित होना नितांत आवश्यक है। संस्कारित और शिक्षित नागरिक तैयार करना जिस दिन हमारी शिक्षा नीति का उद्देश्य हो जाएगा उसी दिन इस देश से कितनी ही समस्याओं का समाधान हो जाएगा।

अभी तक के जो आंकड़े हैं वे यही बता रहे हैं कि हमने मात्र शिक्षित नागरिक ही उत्पन्न किये हैं, संस्कारित नही। संस्कारित और देशभक्त नागरिकों का निर्माण देश की भाषा से हो सकता है। हमारे देश की अन्य प्रांतीय भाषाएं हिंदी की तरह ही संस्कृत से उद्भूत हैं। इसलिए हम उन भाषाओं की उपेक्षा की बात नही करते, परंतु इतना अवश्य कहते हैं कि इन भाषाओं के नाम पर देश की राष्ट्रभाषा की उपेक्षा करना राष्ट्र के मूल्यों से खिलवाड़ करना है। जबकि विदेशी भाषा को अपनी पटरानी बनाकर रखना तो और भी घातक है। इस लेखनी की पीड़ा है-

जब तक छाया है अंतर में, वैर विरोध का घोर तिमिर।

जब तक चिंतन की परिधि का, नही बनेगा राष्ट्र केन्द्र।।

जब तक स्वहित पर होता रहेगा, राष्ट्र का बलिदान यहां।

तब तक उत्थान असंभव है, चहुं दीखेगा घोर तिमिर।।

स्व भाषा हिंदी है हम आराधक हिंदी के, एक हमारा नारा है।

हिंदी के हम बने उपासक हिंदी हिंदू हिंदुस्तान हमारा है।।

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राकेश कुमार आर्य
उगता भारत’ साप्ताहिक / दैनिक समाचारपत्र के संपादक; बी.ए. ,एलएल.बी. तक की शिक्षा, पेशे से अधिवक्ता। राकेश आर्य जी कई वर्षों से देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। अब तक चालीस से अधिक पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। वर्तमान में ' 'राष्ट्रीय प्रेस महासंघ ' के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । उत्कृष्ट लेखन के लिए राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह जी सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं । सामाजिक रूप से सक्रिय राकेश जी अखिल भारत हिन्दू महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय मानवाधिकार निगरानी समिति के राष्ट्रीय सलाहकार भी हैं। ग्रेटर नोएडा , जनपद गौतमबुध नगर दादरी, उ.प्र. के निवासी हैं।

10 COMMENTS

  1. राष्ट्रभाषा हिन्दी पर निश्चय ही सारगर्भित लेख जिसके लिए लेखक श्री राकेश जी को साधुवाद I हिन्दी हमारी अस्मिता की प्रतीक है – प्रो0 वासुदेव सिंहI प्रो0 वासुदेव सिंह वह नाम है जिन्होंने हिन्दी को उसका वास्तविक स्थान दिलाये जाने हेत आजीवन संघर्ष किया I उत्तर प्रदेश विधान सभा मे उर्दू को द्वितीय राजभाषा बनाए जाने के विरोध मे वर्ष 1984 मे दिया गया उनका ऐतिहासिक भाषण भुलाया नहीं जा सकता I हिन्दी के प्रश्न पर प्रो0 साहब ने कभी किसी से समझौता नहीं किया, भले ही वह व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री ही क्यो न हो I वर्ष 1985 मे रूसी राष्ट्रपति के भारत यात्रा के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी द्वारा अंग्रेजी मे दिये गए भाषण की सार्वजनिक आलोचना का साहस प्रो0 साहब ने काँग्रेस पार्टी मे रहते हुए की थी, इस बात से बेपरवाह कि प्रधानमंत्री कि आलोचना किया जाने का क्या राजनीतिक मूल्य उन्हे चुकाना पड़ सकता है I ऐसे थे हिन्दी के लिए किसी से भी लड़ जाने वाले साहसी स्वर्गीय प्रो0 वासुदेव सिंह I

  2. दक्षिण भारत में ब्रह्मा कुमारीज के किसी भी सेंटर में आप चले जाइये सुबह की मुरली क्लास हिंदी में पढ़ी जाती है और फिर वहां की स्थानीय भाषा में अनुवाद की जाती है. एक लाइन हिंदी की फिर उसका वहीँ की भाषा में परिवर्तन. सेंटर की मुख्य बहिनें हिंदी जरूर जानती हैं और अगर आप हिंदी में बात करें तो वो आपको हिंदी में ही जवाब देंगे. हर सेंटर पर ५-६ लोग ऐसे मिल जायेंगे जो हिंदी को अच्छी तरह से जानते हैं और दूसरे लोग हिंदी सीखने की कोशिश करते हैं. पूरे भारत में यही व्यवस्था है ब्रह्मा कुमारीज की. ज्यादा से ज्यादा जिज्ञासु हिंदी सीखने की बोलने की कोशिश करते हैं. भगवान करे यही व्यवस्था सारा देश अपना ले तो कितना सुंदर दृश्य होगा.

    भूत काल और वर्तमान की राजनीति पे टिप्पणी करने को दिल नहीं करता है. जब कोई मर्यादा ही नहीं तो अपने शब्दों को क्यों व्यर्थ किया जाए…इति शुभम

    • मा० शिवेंद्र जी ब्रहमकुमारीज का संगठन हिन्दी भाषा के लिए अच्छा कार्य कर रहा है राष्ट्र एक मुख्य धारा का नाम होता है जिसे व्यक्ति और व्यक्तियों के विभिन्न संगठन छोटी छोटी जलधाराएँ देकर विशाल स्वरूप प्रदान करते है इसलिए ब्रहमकुमारीज पर कार्य राष्ट्रीय दृष्टिकोण से प्रसंसनीय ही कहा जाएगा । व्यक्ति को समझाना होता है और उसे समझाने के लोगो के या संगठनो के अपने अपने ढंग होते है कुछ लोग उसे राष्ट्रप्रेमी बना देते है तो कुछ ऐसे भी होते है जो उसे राष्ट्र के प्रति अतिवादी बना देते है । दक्षिण मे भारतीयता का व राष्ट्रियता का काही विरोध नजर नहीं आता कुछ मुट्ठीभर लोग है जो समाज को दिग्भ्र्मित करते है हमे उनसे सावधान रहने की आवश्यकता है । आपकी टिप्पणी के लिए धन्यवाद ।

      • राकेश जी धन्यवाद तो आपको बहुत बहुत. हिंदी की दुर्दशा के प्रति आपके मनोभावों को प्रकट करता लेख. जिसकी निष्ठा देश के प्रति हो वो ही कभी चुप रह ही नहीं सकता है, ह्रदय को कहीं गहरे कुरेदता लेख….. सादर,

  3. निश्चित ही सारगर्भित एवं सटीक लेख. हिंदी की दुर्दशा को लेकर यदि अभी भी हम सजग न हुए तो फिर देशप्रेम के सारे दावे बेकार हैं. राज भाषा से राष्ट्र भाषाका ये सफ़र उतना कठिन भी नहीं , जितना हमने इसे बना रखा है, निश्चित ही आपके विचारों को गहराई से जानकर उस पैर आतम मंथन किया जाया तो निश्चित ही कोई रास्ता निकल सकताहै. दक्षिण भारतियों का भाषा सम्बन्धी विवाद तरीके और सलीके से सुलझाया भी जा सकता………बहुत बेहतरीन, सम्यक दृष्टिकोण से भरपूर विश्लेश्नातक लेख.

    • अल्पना जी अपनी राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रति युवा वर्ग में नीरसता का बढ़ता भाव चिंता का विषय है। वर्तमान स्थिति में बच्चे सही ढंग से हिन्दी नहीं लिख पाते हैं । परिणामस्वरूप सही इंग्लिश भी नहीं समझ पाते हैं। लेकिन तुम्हारी टिप्पणी को मैं युवाओं के लिए एक सकारात्मक सोच से भरी हुई प्रेरक टिप्पणी मानता हूँ ।

  4. हमारे नेतृत्व ने जिसको पटरानी बनाना चाहा था, वह तो पाकिस्थान चली गयी, और फिर भी, उसकी अराधना करने में हमने हमारी संस्कृतनिष्ठ दक्षिण की भाषाओं की उपेक्षा कर के उन्हें प्रादेशिकता वादी आन्दोलनों के लिए अप्रत्यक्ष रीति से प्रोत्साहित किया|
    न इधर यश पाए न उधर!

  5. राकेश जी, अति उत्तम इस लेख के लिये साधुवाद. बडा तथ्यपरक विश्लेशण है.

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