बदहाली का शिकार : घरेलु महिला कामगार

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घरेलू जीवन के रोजमर्रा के तंत्र में कामवाली बाइयों के महत्व को किसी भी तरह से कम करके नहीं आंका जा सकता है। चाहे कामकाजी महिलाएं हों या खांटी घरेलू महिलाएं, कामवाली बाइयों के बिना उनके जीवन की तस्वीर पूरी नहीं उभरती है। कम से कम भारत में तो कामवाली बाइयों को बुनियादी आवश्यकता कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। उदारीकरण के बाद वर्षों में देश में आय वितरण की बढ़ती विषमता के फलस्वरूप एक ओर जहां मध्यमवर्गीय लोगों की संख्या में वहीं दूसरी ओर गरीबी के शिकार लोगों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। इसी के साथ ग्रामीण क्षेत्र से भूमिहीन श्रमिकों को शहरों की ओर पलायन भी बढ़ा है। इस दौरान एकल परिवारों और नौकरी करने वाली महिलाओं की संख्या में भी तेजी से वृद्धि हुई है। इन सब कारणों से घरेलु कामगारों विशेषकर महिलाओं (अर्थशास्त्र की भाषा) की मांग और पूर्ति में भी वृद्धि हुई है। सन 1999-2000 और 2004-05 के मध्य के 5 वर्षों में ही घरेलु काम करने वाली महिलाओं की संख्या 22.5 लाख की बढ़ोत्तरी हुई है। इन कार्यशील महिलाओं का अधिकांश भाग विधवाओं, परित्यक्ताओं ओर अन्य कई मुसीबतों की शिकार महिलाओं का होता है। इन घरेलु कार्य करने वाली महिलाओं को तीन वर्गों में बांटा जा सकता है, प्रथम जो अनेक घरों में कार्य करती हैं, द्वितीय वे जो एक ही घर में सीमित समय के लिए कार्य करती हैं और तृतीय वे जो एक ही घर में पूर्णकालिक कार्य करती हैं।

 

घरेलु महिला कामगारों का कार्य काफी कठिन होता है। इनमें से अधिकांश अनेक घरों में कार्य करती है, तथा आजीविका लायक आय प्राप्त करने के लिए उन्हें सतत कार्य करना पड़ता है। इतना ही नहीं इसके अलावा इन्हें अपने घर का कार्य भी करना पड़ता है। कार्य के अत्यधिक बोझ के कारण ये अक्सर पीठ दर्द, थकावट आदि का शिकार हो जाती है, कुछ कार्य जैसे बर्तन मांजने व कपड़े धोने वाली महिलाओं की हाथों की उंगुलियों में घाव हो जाते हैं, इसके बावजूद इन्हें यही कार्य करना पड़ता है। इसमें से अनेक महिलाओं के रक्त में होमोग्लोबिन की मात्रा 3 ग्राम ही पाई गई जबकि इसका सामान्य स्तर 11.5 ग्राम से 15.5 ग्राम का होता है। स्वास्थ्य खराब होने पर भी इनके लिए चिकित्सा प्राप्त करना कठिन होता है क्योंकि सार्वजनिक अस्पतालों में लगने वाला समय उनके पास नहीं होता एवं निजि चिकित्सा सेवा की लागत चुका पाना इनके बस में नहीं होता है। पूर्व में घरेलु काम करने वाली अधिकांश महिलाएं पूर्णकालिक होती थीं और एक ही परिवार के साथ कार्य करने के कारण उनमें तथा कार्य करने वाले परिवार मध्य सामाजिक व मनौवैज्ञानिक जुड़ाव हो जाता था जो उन्हें प्रतिकूलता की स्थिति में सुरक्षा प्रदान करता था। परंतु अब अनेक घरों में कार्य करने के कारण ये अपने आवास के आसपास ही कार्य ढूंढती हैं और चाहती हैं कि कार्यस्थल एवं निवास के मध्य कम से कम दूरी हो। यही कारण है कि बड़े शहरों में मध्यमवर्गीय बस्तियों के आसपास झुग्गी झोपड़ियां भी बस जाती हैं। शहरों के सौंदर्यीकरण की प्रक्रिया में इन्हें वहां से हटाकर जिन नए मकानों में बसाने का जब भी प्रयास किया जाता है तो ये वहां जाना पसंद नहीं करती क्योंकि ये बस्तियां कार्यस्थल से काफी दूर होती हैं।

 

असंगठित और टुकड़ों-टुकड़ों में कार्य करने के कारण इन्हें मिलने वाली मजदूरी को इनके मोल भाव करने की शक्ति पर निर्भर होती है। यही कारण है कि मजदूरी की दरों में काफी विषमता पाई जाती है। सम्पन्न बस्तियों में कार्य करने वाली महिला घरेलु कामगारों को अपेक्षाकृत बेहतर मजदूरी मिलती है। वैसे अधिकांश को अकुशल श्रम के लिए निर्धारित न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिल पाती है। पिछले वर्षों में इन्हें कार्य दिलाने के नाम पर अनेक प्लेसमेंट एजेंसियां भी स्थापित हो गई हैं जो इनका शोषण ही करती हैं। पर्याप्त आय और बेहतर कार्य स्थल वाले रोजगार दिलाने के नाम पर एजेंट इन्हें शहरों में ले जाते हैं। युवा लड़कियों को अच्छे वर से शादी कराने के झांसा देकर भी आवास से काफी दूर शहरों में घरेलु कार्य करने के लिए बाध्य किया जाता है तथा शारीरिक शोषण तक किया जाता है। अकेले दिल्ली में 800 से 1000 के मध्य ऐसे प्लेसमेंट एजेंसिया कार्य कर रही हैं। यही स्थिति मुंबई, कोलकाता, चैन्नई जैसे शहरों में भी है। इन्हें शोषण से बचाने के लिए राज्य सरकारों ने कोई कदम नहीं उठाए हैं। कामवाली बाइयों की बढ़ती संख्या, कार्य की विविधता, कार्य लेने वालों की विशाल संख्या के कारण इन्हें कानूनी सुरक्षा देने का कार्य काफी चुनौतीपूर्ण होते हुए भी आज की परिस्थितियों में आवयशक हो गया है। हमारे श्रम कानूनों में वैसे भी महिला कामगारों की उपेक्षा होती रही है। यही कारण है कि न्यूनतम मजदूरी, कार्य के घंटे, व्यावसायिक खतरों में सुरक्षा आदि के बारे मंह जो भी कानून बने हैं उनमें इन घरेलु कार्य करने वाली महिलाओं की उपेक्षा ही की गई है।

 

गौरतलब है कि धीरे-धीरे ही सही शहरों में अब कामवाली बाइयों की यूनियनें गठित होने लगी हैं। राज्य सरकारें भी उसके अधिकारों और सम्मान के बारे में सजग हो चली है। लोकसभा में महिलाएवं बाल विकास मंत्री कृष्णा तीरथ द्वारा महिलाओं का कार्यस्थल में लैंगिक उत्पीड़न से संरक्षण संबंधी विधेयक 2010 पटल पर रखा गया था। यद्यपि इसमें घरेलू नौकरानियों के दैहिक शोषण के संबंध में स्पष्ट व्याख्या नहीं थी। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने घरों में काम करने वाली महिलाओं को कामवाली बाई के बदले बहन जी अथवा दीदी के संबोधन से पुकारने की अपील की। उनका मानना है कि इससे घरेलू काम-काज करने वाली औरतों के सम्मान को बढ़ाया जा सकता है। उन्होंने घरेलू नौकरानियों की महापंचायत के आयोजन किए जाने का भी आह्वान किया। उन्हें फोटोयुक्त परिचय पत्र तथा प्रशिक्षण दिए जाने की भी योजना है।

 

महाराष्ट्र और केरल की भांति दिल्ली राज्य सरकार घरेलू कामगार एक्ट लागू करने के लिए प्रयास कर रही है। जिनके अंतर्गत कामवाली बाई को साप्ताहिक अवकाश के साथ-साथ अन्य सुविधाएं लेने की भी पात्र होंगी। दिल्ली सरकार के श्रम विभाग द्वारा साप्ताहिक अवकाश, न्यूनतम वेतन तथा अन्य सुविधाओं का खाका तैयार किया जा चुका है। यह लाभ उन सभी कामवाली बाइयों को मिलेगा जो अपना पंजीयन कराएंगी। यदि वह सब यथावत होता है तो इसमें कोई संदेह नहीं कि कामवाली बाइयों की जीवन दशा में सकारात्मक सुधार होकर रहेगा।

 

श्रम एवं रोजगार मंत्रालय की ओर से घरेलू श्रमिकों के लिए तैयार की जा रही राष्ट्रीय नीति का मसौदा तैयार कर लिया है। नीति के तहत करीब 64 लाख घरेलू श्रमिकों को शामिल करने का अनुमान है। नीति के मसौदा प्रस्ताव के तहत न्यूनतम वेतन, सामान्य कार्य के घंटे, अतिरिक्त काम करने पर मुआवजा (ओवरटाइम), वेतन के साथ वार्षिक अवकाश और चिकित्सा अवकाश को शामिल किया गया है। इसके साथ ही श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा, मातृत्व लाभ और यौन शोषण से सुरक्षा जैसे मसलों को भी जोड़ा गया है। इन बदलावों को शामिल करने के लिए मंत्रालय 8 मौजूदा कानूनों में संशोधन की योजना बना रहा है। इन कानूनों में न्यूनतम मजदूरी कानून, ट्रेड यूनियन कानून, श्रमिक मुआवजा कानून आदि शामिल हैं। हालांकि श्रमिक का मामला राज्य सरकार के तहत आता है। ऐसे में केंद्र सरकार को इस मामले में राज्यों के साथ भी सहमति बनानी होगी।

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