बाहें

1
224

love       तुम थे तो तुम्हारी बाहों के साथ

मेरी बाहों का विस्तार

बहुत लंबा था ।

मुझको   लगता  था  मैं

कुछ भी छू सकती थी..

कर सकती थी, कह सकती थी,

मेरी   ज़िन्दगी   तब   इस  तरह

कोई कानून नहीं थी,

झूमती हवा के समान स्वच्छंद थी मैं,

केवल   धरती   ही   नहीं   थी   अपनी,

सारा  आकाश   अपना-सा  लगता  था,

और मैं उल्लासोन्माद में

हर  कोंपल  से,  हर  फूल  से, पत्ते से,

हर कोयल से, हर पक्षी से

कह देती थी,  कह देती थी..

“गायो, गायो, और गायो, बस गाते जाओ”,

और स्वयं भी गाती-फिरती

बात-बात में हँस देती थी ।

 

आने  को  आज  भी   ओंठों  के  कोरों  पर

हल्की-सी  अधूरी  हँसी   आ   जाती   है,

पर कितना अन्तर है…

उस हँसी में और इस हँसी में,

उल्लास  में  और  उपहास  में !

कितना कुछ कह देती थी मैं,

तुम सुन लेते थे, सह लेते थे,

और अब मैं अनकहे की पीड़ा

कण-कण अकेले में सहती हूँ।

तुम्हारे बिना

मुझसे  कोई  बात  नहीं  बनती,

गिनी-चुनी   कुछ  अपनी  बातें

बस  अपने  से  कर  लेती  हूँ ।

 

तुम —

तुम, मेरा  आकाश  थे   तुम,

मैं तुमको, आकाश  को  छू  लेती थी,

और अब….

अब मेरी सीमित बाहों की

परिमिति   बहुत   छोटी   है,

कुछ भी पकड़ में नहीं आता ।

अँधेरे  में  चलती  हाथ  बढ़ाती

ठोकर खा जाती हूँ,

सँभलती हूँ, और घुप अँधेरे में

तुम्हारी   बाहों   को   ढूँढ्ती  हूँ ।

 

— विजय निकोर

 

 

Previous article‘मैं हिंदू हूं और राष्ट्रवादी हूं’
Next articleविश्वगुरू (भारत) को दर्पण तो, दिखाओ।
विजय निकोर
विजय निकोर जी का जन्म दिसम्बर १९४१ में लाहोर में हुआ। १९४७ में देश के दुखद बटवारे के बाद दिल्ली में निवास। अब १९६५ से यू.एस.ए. में हैं । १९६० और १९७० के दशकों में हिन्दी और अन्ग्रेज़ी में कई रचनाएँ प्रकाशित हुईं...(कल्पना, लहर, आजकल, वातायन, रानी, Hindustan Times, Thought, आदि में) । अब कई वर्षों के अवकाश के बाद लेखन में पुन: सक्रिय हैं और गत कुछ वर्षों में तीन सो से अधिक कविताएँ लिखी हैं। कवि सम्मेलनों में नियमित रूप से भाग लेते हैं।

1 COMMENT

  1. विरह श्रगांर रस की अनुपम अभिव्क्ति, इस बार नायिका की ओर से, कमाल है, लाजवाब।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here