कविता: क्या करें हम ?

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ढह गई इमारत

दब गए – मर गए नाचीज़ लोग

झल्लाहट छा गई दिल्ली के दरबार में

उफ्फ, ये गरीब, करते बरबाद गुलाबी सर्दी हमारी !

कह दिया – धमका दिया जनता को

और अगले ही दिन हो गए

बेघरबार हजारों

कुछ और ढह सकने वाली इमारतों से ।

अब लेगें चैन की साँस

पीछा छूटा इन मुओं से

खुले आसमान के नीचे सोने वालों को

कोई इमारत देकर मुसीबतें क्यों बुलाएँ ?

जनता के पैसे से

जनता के वोटों से

खरीदी शालों को ओढ़

घूमता बेशर्म शासक ।

अहो परम पिता !

क्यों दे दी यह बेबस जिंदगी

कि हमारे हाथों की मेहनत से बनें उनके महल

और हमारी पगार इतनी कम ?

क्या करें अब हम

उठा लें जलती मशालें

और लगा दें आग इन रंगीन मिज़ाज लोगों को

बन जाएँ विद्रोही ?

या कि भर हुंकार

टूट पड़ें इन आदमखोरों पर

मिटा दें इनका अस्तित्व

पलट दें यह व्यवस्था ?

या फिर खड़े हो जाएँ इस बार

एक साथ

उठा दें आवाज़ इतनी

कि आसमान हो जाये मज़बूर !

बदल जाये अगली बार

मौसम, शासन, और ज़िंदगी

आ जाये हमारा अपना

संवेदनशील – लोकतंत्र !

2 COMMENTS

  1. कविता: क्या करें हम ? – by – राजीव दुबे

    ललिता पार्क दिल्ली यमुना पार ढह गई इमारत के लिए सोचें कम कि क्या करें; बस जो सूझता हो सभी कुछ कर डालें.

    जो कुछ भी गरीब करेगा, पर्याप्त प्राप्त कर पायेगा. कश्मीरी पंडित अभी भी तरपाल तले रह रहे हैं.

    सोचतें रहेगे तो नेता भी सोचतें रहेगे.

    कुछ करेगे तो सत्ता भी कुछ करने पर मजबूर होगी.

    दिमाग ठंडा, पेट में आग.

    ७० लोगो की मौत के जिम्मेदार मकान मालिक ने अदालत में पेशी के दोरान फूटफूट कर रोते हुये खुद को निर्दोष बताया है.

    ४.५ लाख रुपये मासिक किराये में से ५०,००० तो राजनेतायो, अधिकारीयों और पोलीस को उनके द्वारा सर्विस / सुविधायों के लिए वितरित किये जातें रहे हैं.

    बेचारा निर्दोष छूट कर पुन: सेवा के लिए शीघ्र वापिस आ जायेंगे.

    अपना हाथ जगन्नाथ, सेल्फ हेल्प, सेल्फ सर्विस का नारा – न्याय अँधा है.

    – अनिल सहगल –

  2. राजिव भाई तकनीकी विषय में कार्य करते हुए भी आपका कविता लेखन अद्भुत और सराहनीय है| आपकी कविताओं में छिपे दर्द को कोई भी संवेदनशील व्यक्ति समझ सकता है|
    सच में अद्भुत| धन्यवाद|

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