कविता-चींटी

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चींटी

मिश्री के इक दाने को,

लाखों चलीं उठाने को,

अपने घर ले जाने को,

ऐसा संगठन नहीं मिलता,

इंसानो को।

 

ये हैं छोटी छोटी चींटी,

श्रम करती हैं,

मिल बाँट कर खाने को।

ये सिखा सकती हैं,

बहुत कुछ इंसानो को।

 

कुशल प्रबंधन,

निःस्वार्थ सेवा,

गिरकर उठना,

कभी न थकना,

महनत करना,

कुछ तो सीखें

इन छोटी सी,

जानों से।

 

एक सूँघती खाने को,

बुला लाती ज़माने को,

फिर ये महनतकश

चींटियाँ

भरतीं अपने तहख़ानों को।

 

न कोई विवाद न झगड़ा

मिल बाँट के खाने को।

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बीनू भटनागर
मनोविज्ञान में एमए की डिग्री हासिल करनेवाली व हिन्दी में रुचि रखने वाली बीनू जी ने रचनात्मक लेखन जीवन में बहुत देर से आरंभ किया, 52 वर्ष की उम्र के बाद कुछ पत्रिकाओं मे जैसे सरिता, गृहलक्ष्मी, जान्हवी और माधुरी सहित कुछ ग़ैर व्यवसायी पत्रिकाओं मे कई कवितायें और लेख प्रकाशित हो चुके हैं। लेखों के विषय सामाजिक, सांसकृतिक, मनोवैज्ञानिक, सामयिक, साहित्यिक धार्मिक, अंधविश्वास और आध्यात्मिकता से जुडे हैं।

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