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कविता-चींटी - प्रवक्‍ता.कॉम - Pravakta.Com
चींटी मिश्री के इक दाने को, लाखों चलीं उठाने को, अपने घर ले जाने को, ऐसा संगठन नहीं मिलता, इंसानो को। ये हैं छोटी छोटी चींटी, श्रम करती हैं, मिल बाँट कर खाने को। ये सिखा सकती हैं, बहुत कुछ इंसानो को। कुशल प्रबंधन, निःस्वार्थ सेवा, गिरकर उठना,…