कविता – संकट

0
251

मोतीलाल

आसान तो बिल्कुल नहीं

शब्दों का धुँआ बनना

अकेला मन का किला

आँखों को नम कर जाता है

 

टूट चुकी होती है जब सुबह

हमारे सपने एक-एककर नहीं लाते

बाल उम्र में बिताया गया वक्त

जो फुदक रही होती है डालियों पर

उसे लिखना कितना कठिन हो जाता है

 

बार-बार निरर्थक कोशिश

कि रोशनी को बांध लूँ अपनी मुट्ठी में

बाजार में तब्दील कर लेने की

उसकी सारी आकांक्षाएं

एक दिन निचोड़ ले जाएंगें

 

जब अकेला शब्द

बिहड़ घाटियों से

लड़ने की कुव्वत रखता हो

तब सुबह की भूखी नींद

पटरी पर नहीं कसमसाती

और ना ही सींगों के हर मोर्चे पर ही

उग आती है घास

 

आकांक्षा की आग

मेरे भीतर के गीलापन को

जब नहीं सुखा पाती है

तब कुछ पौध

पत्थर पर भी उग आता है

और बरसाती नदी

आंगन में खदबदाने लगती है

 

विजय की ऊँची चोटी

नहीं उतरती है पन्नों पर

सुनते रहने का हर वक्त

जब चीख में बदल जाती है

आँसू पोंछकर नंगा हो जाना

और उठा लेना कुल्हाड़ी

असंगतियों को काटने के लिए

धूल-कीचड़ में सनकर रह जाता है ।

Previous articleसमाज तोड़ो राजनीति की उपज हैं राज ठाकरे
Next articleशब्दों की कथा
मोतीलाल
जन्म - 08.12.1962 शिक्षा - बीए. राँची विश्वविद्यालय । संप्रति - भारतीय रेल सेवा में कार्यरत । प्रकाशन - देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं लगभग 200 कविताएँ प्रकाशित यथा - गगनांचल, भाषा, साक्ष्य, मधुमति, अक्षरपर्व, तेवर, संदर्श, संवेद, अभिनव कदम, अलाव, आशय, पाठ, प्रसंग, बया, देशज, अक्षरा, साक्षात्कार, प्रेरणा, लोकमत, राजस्थान पत्रिका, हिन्दुस्तान, प्रभातखबर, नवज्योति, जनसत्ता, भास्कर आदि । मराठी में कुछ कविताएँ अनुदित । इप्टा से जुड़ाव । संपर्क - विद्युत लोको शेड, बंडामुंडा राउरकेला - 770032 ओडिशा

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here