कविता-भोर भई मनुज अब तो तू उठ जा,-विजय कुमार

भोर भई मनुज अब तो तू उठ जा,

रवि ने किया दूर ,जग का दुःख भरा अन्धकार ;

किरणों ने बिछाया जाल ,स्वर्णिम और मधुर

अश्व खींच रहें है रविरथ को अपनी मंजिल की ओर ;

तू भी हे मानव , जीवन रूपी रथ का सार्थ बन जा !

भोर भई मनुज अब तो तू उठ जा !!!

 

सुंदर सुबह का स्वागत ,पक्षिगण ये कर रहे

रही कोयल कूक बागों में और भौंरें मस्त तान गुंजा रहे ,

स्वर निकले जो पक्षी-कंठ से ,मधुर वे मन को हर रहे ;

तू भी हे मानव , जीवन रूपी गगन का पक्षी बन जा !

भोर भई मनुज अब तो तू उठ जा !!!

 

खिलकर कलियों ने खोले ,सुंदर होंठ अपने ,

फूलों ने मुस्कराकर सजाये जीवन के नए सपने ,

पर्णों पर पड़ी ओस ,लगी मोतियों सी चमकने ,

तू भी हे मानव ,जीवन रूपी मधुबन का माली बन जा !

भोर भई मनुज अब तो तू उठ जा !!!

 

प्रभात की ये रुपहली किरने ,प्रभु की अर्चना कर रही

साथ ही इसके ; घंटियाँ मंदिरों की एक मधुर धुन दे रही ,

मन्त्र और श्लोक प्राचीन , देवताओं को पुकार रही,

तू भी हे मानव ,जीवन रूपी देवालय का पुजारी बन जा !

भोर भई मनुज अब तो तू उठ जा !!!

 

प्रक्रति ,जीवन के इस नए भोर का स्वागत कर रही

प्रभु की सारी सृष्टि ,इस भोर का अभिनन्दन कर रही ,

और वसुंधरा पर ,एक नए युग ,एक नये जीवन का आव्हान कर रही ,

तू भी हे मानव ,इस जीवन रूपी सृष्टि का एक अंग बन जा !

भोर भई मनुज अब तो तू उठ जा !!!

 

भोर भई मनुज अब तो तू उठ जा !!!

1 COMMENT

  1. तू भी हे मानव ,जीवन रूपी देवालय का पुजारी बन जा
    !तू भी हे मानव ,जीवन रूपी देवालय का पुजारी बन जा !
    मानव को जगाती,कुछ करने को आवाहन करती सुन्दर कृति

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