कविता:मृत्यु-विजय कुमार

ये कैसी अनजानी सी आहट आई है ;

मेरे आसपास …..

ये कौन नितांत अजनबी आया है मेरे द्वारे …

मुझसे मिलने,

मेरे जीवन की , इस सूनी संध्या में ;

ये कौन आया है ….

 

अरे ..तुम हो मित्र ;

मैं तो तुम्हे भूल ही गया था,

जीवन की आपाधापी में !!!

 

आओ प्रिय ,

आओ !!!

मेरे ह्रदय के द्वार पधारो,

मेरी मृत्यु…

आओ स्वागत है तुम्हारा !!!

 

लेकिन ;

मैं तुम्हे बताना चाहूँगा कि,

मैंने कभी प्रतीक्षा नहीं की तुम्हारी ;

न ही कभी तुम्हे देखना चाहा है !

 

लेकिन सच तो ये है कि ,

तुम्हारे आलिंगन से मधुर कुछ नहीं

तुम्हारे आगोश के जेरे-साया ही ;

ये ज़िन्दगी तमाम होती है …..

 

मैं तुम्हारा शुक्रगुजार हूँ ,

कि ;

तुम मुझे बंधन मुक्त करने चले आये ;

 

यहाँ …. कौन अपना ,कौन पराया ,

इन्ही सच्चे-झूठे रिश्तो ,

की भीड़ में,

मैं हमेशा अपनी परछाई खोजता था !

 

साँसे कब जीवन निभाने में बीत गयी,

पता ही न चला ;

अब तुम सामने हो;

तो लगता है कि,

मैंने तो जीवन को जाना ही नहीं…..

 

पर हाँ , मैं शायद खुश हूँ ,

कि; मैंने अपने जीवन में सबको स्थान दिया !

सारे नाते ,रिश्ते, दोस्ती, प्रेम….

सब कुछ निभाया मैंने …..

यहाँ तक कि ;

कभी कभी ईश्वर को भी पूजा मैंने ;

पर तुम ही बताओ मित्र ,

क्या उन सबने भी मुझे स्थान दिया है !!!

 

पर ,

अब सब कुछ भूल जाओ प्रिये,

आओ मुझे गले लगाओ ;

मैं शांत होना चाहता हूँ !

ज़िन्दगी ने थका दिया है मुझे;

तुम्हारी गोद में अंतिम विश्राम तो कर लूं !

 

तुम तो सब से ही प्रेम करते हो,

मुझसे भी कर लो ;

हाँ……मेरी मृत्यु

मेरा आलिंगन कर लो !!!

 

बस एक बार तुझसे मिल जाऊं …

फिर मैं भी इतिहास के पन्नो में ;

नाम और तारीख बन जाऊँगा !!

फिर

ज़माना , अक्सर कहा करेंगा कि

वो भला आदमी था ,

पर उसे जीना नहीं आया ….. !!!

 

कितने ही स्वपन अधूरे से रह गए है ;

कितने ही शब्दों को ,

मैंने कविता का रूप नहीं दिया है ;

कितने ही चित्रों में ,

मैंने रंग भरे ही नहीं ;

कितने ही दृश्य है ,

जिन्हें मैंने देखा ही नहीं ;

सच तो ये है कि ,

अब लग रहा है कि मैंने जीवन जिया ही नहीं

 

पर स्वप्न कभी भी तो पूरे नहीं हो पाते है

हाँ एक स्वपन ,

जो मैंने ज़िन्दगी भर जिया है ;

इंसानियत का ख्वाब ;

उसे मैं छोडे जा रहा हूँ …

 

मैं अपना वो स्वप्न इस धरा को देता हूँ……

1 COMMENT

  1. विजय कुमार जी, आपकी इस कविता ने तो मुझे यथार्थ की धरातल पर ला पटका.मृत्यु उतना ही सत्य है जितना जीवन क्या बात कही आपने,
    “हाँ एक स्वपन ,

    जो मैंने ज़िन्दगी भर जिया है ;

    इंसानियत का ख्वाब ;

    उसे मैं छोडे जा रहा हूँ ”
    उत्कृष्ट विचार धारा से ओत प्रोत एक अच्छी कविता.…

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