कविता – अस्तित्व

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dipakघुप्प अंधेरे में

टिमटिमाता है एक दीया

मेरे कमरे में ।

 

जानता हूँ अच्छी तरह

नहीं मिटा सकती अंधेरे को

उसकी रोशनी ।

 

उधर चाँद झांकता है

और कतरा-दर-कतरा

घुसता है

उसकी रोशनी

मेरे अंधेरे कमरे में ।

 

फिरभी नहीं मिटता अंधेरा

और मैं टटोलता हूँ

दो दिन की पड़ी बासी रोटी

ताकि खाया जाए जिंदगी भर

जिंदगी की तरह ।

 

और भुला दिया जाए

टिमटिमाता दीया

चाँद की रोशनी

या इस अंधेरे को ही

ठीक अपने अस्तित्व की तरह ।

 

मोतीलाल

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मोतीलाल
जन्म - 08.12.1962 शिक्षा - बीए. राँची विश्वविद्यालय । संप्रति - भारतीय रेल सेवा में कार्यरत । प्रकाशन - देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं लगभग 200 कविताएँ प्रकाशित यथा - गगनांचल, भाषा, साक्ष्य, मधुमति, अक्षरपर्व, तेवर, संदर्श, संवेद, अभिनव कदम, अलाव, आशय, पाठ, प्रसंग, बया, देशज, अक्षरा, साक्षात्कार, प्रेरणा, लोकमत, राजस्थान पत्रिका, हिन्दुस्तान, प्रभातखबर, नवज्योति, जनसत्ता, भास्कर आदि । मराठी में कुछ कविताएँ अनुदित । इप्टा से जुड़ाव । संपर्क - विद्युत लोको शेड, बंडामुंडा राउरकेला - 770032 ओडिशा

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