कविता ; सिलवटों की सिहरन – विजय कुमार सप्पाती

अक्सर तेरा साया

एक अनजानी धुंध से चुपचाप चला आता है

और मेरी मन की चादर में सिलवटे बना जाता है …..

 

मेरे हाथ , मेरे दिल की तरह

कांपते है , जब मैं

उन सिलवटों को अपने भीतर समेटती हूँ …..

 

तेरा साया मुस्कराता है और मुझे उस जगह छु जाता है

जहाँ तुमने कई बरस पहले मुझे छुआ था ,

मैं सिहर सिहर जाती हूँ ,कोई अजनबी बनकर तुम आते हो

और मेरी खामोशी को आग लगा जाते हो …

 

तेरे जिस्म का एहसास मेरे चादरों में धीमेधीमे उतरता है

मैं चादरें तो धो लेती हूँ पर मन को कैसे धो लूँ

कई जनम जी लेती हूँ तुझे भुलाने में ,

पर तेरी मुस्कराहट ,

जाने कैसे बहती चली आती है ,

न जाने, मुझ पर कैसी बेहोशी सी बिछा जाती है …..

 

कोई पीर पैगम्बर मुझेतेरा पता बता दे ,

कोई माझी , तेरे किनारे मुझे ले जाए ,

कोई देवता तुझे फिरमेरी मोहब्बत बना दे…….

या तो तू यहाँ आजा ,

या मुझे वहां बुलाले……

 

1 COMMENT

  1. मन की कसक को उकेरती टीस को बिखेरती, सुन्दर भावपूर्ण रचना

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