कविता / ‘जब से शहर आया हूं…’

जब से शहर आया हूं

हरी साड़ी में नहीं देखा धरती को

सीमेंट-कांक्रीट में लिपटी है

जींस-पेंट में इठलाती नवयौवन हो जैसे

धानी चूनर में शर्माते,

बलखाते नहीं देखा धरती को

जब से शहर आया हूं।

गांव में ऊंचे पहाड़ से

दूर तलक हरे लिबास में दिखती वसुन्धरा

शहर में, आसमान का सीना चीरती इमारत से

हर ओर डामर की बेढिय़ों में कैद

बेबस, दुखियारी देखा धरती को

हंसती-फूल बरसाती नहीं देखा धरती को

जब से शहर आया हूं।


-लोकेन्‍द्र सिंह राजपूत

1 COMMENT

  1. आप की कविता में एक दर्द छुपी है जो लड़ना चाहती है नव बरस की हार्दिक बधाई
    लक्ष्मी नारायण लहरे पत्रकार कोसीर छत्तीसगढ़ 9752319395

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here