कविता ; प्रेम जहाँ बसते दिन-रात – श्यामल सुमन

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मेहनत जो करते दिन-रात

वो दुख में रहते दिन-रात

 

सुख देते सबको निज-श्रम से

तिल-तिल कर मरते दिन-रात

 

मिले पथिक को छाया हरदम

पेड़, धूप सहते दिन-रात

 

बाहर से भी अधिक शोर क्यों

भीतर में सुनते दिन-रात

 

दूजे की चर्चा में अक्सर

अपनी ही कहते दिन-रात

 

हृदय वही परिभाषित होता

प्रेम जहाँ बसते दिन-रात

 

मगर चमन का हाल तो देखो

सुमन यहाँ जलते दिन-रात

 

2 COMMENTS

  1. खुद मितकर ही दाना ब्रूक्ष बने अमराई में.
    परजीवी क्या खाक बनेगा शेर महा बंराई में..

  2. हर्दय वही परिभाषित होता,प्रेम जहाँ बस्ता दिन रात सुमनजी एक मधुर रचना क्र लिए बधाई

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