मेरे लिए उभरती है घाटी
नीले फूलोँ वाली
मेरे लिए सुलभ होता है छूना
लाल पत्ते वाले पेड़ोँ को
और पी जाती हूँ कड़वे धुँएं को
मेरे लिए कुछ होना जंगली फूल सा है
गंध के बहकावे मेँ रौँदा जाता है
संवेदनाओँ के जहर को
और नहीँ ठहरती है ओस
मेरी आँखोँ मेँ कहीँ
जब फूटती है चिँगारी
लाल-लाल पलाश सा
कहीँ अंतर्मन मेँ
और महुए के गंध सा
मैँ चाहती हूँ मदहोश होना
वहीँ मिट जाती है
इस कुसमय के द्वार पर सारे उत्ताप
सारी संवेदनाएं
और दिखने लगता है
टूटी खिड़की से क्षितिज
समय के अंतिम पन्ने पर
मैँ ढूँढने लगती हूँ एक आसरा
और पत्थर के आईने मेँ
पल के तट पर
छेदा तो नहीँ जाता
अंतर्मन मेँ कहीँ बिजलियाँ
और कोसे जाने पर भी
नहीँ सुलगेगी लकड़ियाँ
आएगी वह चिट्ठी
उसकी अंतिम चिट्ठी
पलाश व महुए की हवा से सरोवार महकाने के लिए
मेरे सुने आँगन को
पर कहीँ शहर की हवा
दब तो नहीँ गयी
उन ईटोँ के नीचे
जिसे ढोने के लिए
मेरा वह सालोँ से गया है
तुम्हारे शहरोँ मेँ ही कहीँ
अपनी गाँव-देहरी को छोड़े हुए
गहरी संवेदनाओं और भावों से ओतप्रोत रचना प्रस्तुत करने के लिए लेखक और प्रवक्ता को साधुवाद!
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’