कविता/ आचमन

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क्लास के बाद क्लास बीतता जाता है

जिन्दगी के ग़ैरमामूली ब्लैकबोर्ड पर

तीन अँगुलियों से पकड़े गए चॉक के जरिये

केवल लफ़्जों की गिनती

उसके बाद ढंग-ढंग घंटे का बज जाना

उन तजुर्बेकार लिखावटों को नया डस्टर पोंछ लेता है ।

कुछ निशान रह जाते हैं, उस्ताद जिन्दगी गुजर जाती है ।

 

लम्बी से और लम्बी होती समय की छाया

जिन्दगी की देह पर लेपकर

सुन्दर के स्नान का समापन

फिर भूख के अन्न का आयोजन –

पूरा हो जाने पर , फिर कभी धारा के विपरीत

चलते हुए आचमन कर लेना होता है ।

 

पिताजी कहा करते थे ,

पहाड़ पर चढ़ने के पहले देह पर मिट्टी का लेप करो

पाँव मजबूत करो

पानी के बोतल को गले तक भर लिया करो ।

 

मैंने बात नहीं मानी

पहले तो पहाड़ समझकर पठार पार किया

उसके बाद, एक के बाद एक पहाड़ ढूँढ़ता रहा ।

दिन, महीने, साल बीतते गए ।

सारी देह मिट्टी से काली पड़ गई। पैरों में जञ्जीर ।

पानी का खाली बोतल ।

और फिर फिर वही दौड़–दौड़

पहाड़ कब्जे में कब आएगा ?

(मूलत: बांग्‍ला में तपन कुमार बन्द्योपाध्याय द्वारा रचित इस कविता का हिंदी में अनुवाद गंगानंद झा ने किया है)

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