मोतीलाल
बहुत देख चुका
शहरों का शोरगुल
जीवन के प्रतिरोध ।
जब द्रष्य की ऊंचाई पर शहर के नक्शे
गर्मी की मायूसी सा हमारे चेहरे पर
डोलते फिरते हैं और परछाईं वाला जंगल
कुछ रुहों को उसी ऊंचाई की चोटी से
फेंक चुका होता है
भुक-भुकी आकाश के परे
और हम छलनी में तब्दील हो जाते हैं ।
बहुत देख चुका
मूल्यहीनों के रेखाचित्र
विसंगतियों की पीड़ाएं ।
जब ताजगी भरे राह में
गर्म सांसें जागती हैं
कोई कीर्ति स्तम्भ के चिन्ह
बाहें साधे नहीं पुकारती है
चढ़ाई के पीछे
आसमान घिरा होता है
और सूखी आंखों में मृत्यु
यहीं कहीं डोलती फिरती है ।
बहुत देख चुका
आसमान से टूटते तारों को
पन्नों से चिखती कविताओं को ।
रंग बदलता दोपहर
कहीं घुंघट में सिमटा है
और खेतों की तरफ
हमारी खिड़की कभी नहीं खुलती
जहां से झुमते फसलों को देखा जा सके
हमारे दरवाजें कितनी तंग है
उनके दरवाजों से
और खुलती है उन गलियों में
जिसे शहर ने
कब से अनदेखा कर चुका है ।
बहुत देख चुका
रंग बदलते हुए आदमियों को
पर हमारी सुबह
सुबह की ही तरह है ।