सत्ता चाहिए? औरंगजेब बनना पड़ेगा

-गुलशन कुमार गुप्ता-
Political Leader

‘अ’ से अन्ना, ‘अ’ से औरंगजेब। चूंकि दोनों की राशि एक है शायद, इसलिए गांधी जी के सिद्धांतों पर चलने वाले अन्ना और मुहम्मद की नसीहतों को मानने वाले औरंगजेब के कारनामों में आज कुछ समानता प्रतीत हो रही है, हालांकि उद्देश्य में भिन्नता है।
ऐसा नहीं है कि भारत में आन्दोलानों का दौर अन्ना ने या गांधी ने प्रारंभ किया हो, मनु के समय से ही ये क्रांतिकारी विचार व्यवहार में चला आ रहा है। बस अंतर इतना है कि गांधी ने इस विचार को व्यवहार में लाने के लिए एक नया प्रयोग किया, पर नाम आन्दोलन ही रहा यानी क्रांति। और अन्ना या अन्ना जैसे और भी कई अन्ना मात्र अनुसरणकर्ता हैं गांधी के।
लेकिन क्या गांधी जी ने आन्दोलन की नयी परिभाषा रचकर जिस अध्याय को इतिहास शामिल किया था, क्या वास्तव में अन्ना ने उस अध्याय का अध्ययन ठीक प्रकार से किया था?
जिस प्रकार मुहम्मद की नसीहतों और उनके आचरणों का औरंगजेब ने अपना ही अर्थ लगा लिया और धार्मिक कट्टरता के अन्धकार में अधर्म का तांडव किया और एक ही बार में सारी धार्मिकता नष्ट हो गयी। आज अन्ना भी गांधी जी के आदर्शों सिद्धांतों को अपनी ही पहचान देकर अलग रास्ते पर चल पड़े हैं। जिन गांधी ने उस समय पर कांग्रेस को भंग करने का सुझाव दिया था, आज उन्हीं के अनुसरणकर्ता राजनीतिक होड़ में नयी पार्टी बना बैठे हैं।
शायद मुहम्मद (आलम) औरंगजेब से जिस प्रकार नाराज़ हुए होंगे, आज गांधी भी अन्ना पर हो रहे हों! एक विशेष समनाता दोनों में देखने को आती है। औरंगजेब अपने बाप और तीन भाइयों का क़त्ल करके बादशाह बना था, उसके लिए उसका धर्म सबसे बढ़कर था, बाप और भाइयों से भी बढ़कर। बादशाहत पाने के कुछ इस तरह फिर दोहराया जा रहा है। पर मकसद कुछ नेक लगता है। अन्ना के लिए देशहित ऊपर है, काला धन वापस लाना, लोकपाल की नियुक्ति, भ्रष्टाचार मिटाना, जनता और सत्ता के मध्य पारदर्शिता लाना उनका धर्म है। इसलिए अरविन्द का यह निर्णय कि हम स्वयं सत्ता में आयेंगे।
हालांकि यहां किसी का किसी के हाथों क़त्ल तो नहीं किया जायेगा, फिर भी राजनीति में सत्ता की हार एक प्रकार का क़त्ल ही हुआ, क्योंकि दूसरे दलों को हराने के बाद ही सत्ता में आ पाएंगे, या किसी बड़ी शक्ति से उन्हें शर्तों की सीढ़ियां बनाकर गठबधन करना होगा।
औरंगजेब ने तब जो धर्म का काम किया था, उसे वाहवाही तत्काल ही मिली थी। पर आज इतिहासकारों ने उसे गालियां ही लिखी हैं।
आज अरविन्द को बेशक राजनितिक दल के गठन के निर्णय पर चारों तरफ से (दूसरे सत्तारूढ़ दलों से, समर्थकों से, आम जनता से) विपरीत व्यवहार या कहें व्यंग्य रूपी ताने मिले हों, या विधानसभा में सत्ता का स्वाद चखकर प्रधानमंत्रित्व के चक्कर में कालिख से लेकर तमाचों तक का स्वाद चखा हो, एक बात जो साबित हुई कि राजनीति में चंचलता से काम नहीं चलता स्थिरता जरूरी है, पर यदि वे अपने निर्णय और लक्ष्य पर अटल रहते हैं तो भविष्य में उनकी वाहवाही पक्की है।
औरंगजेब तत्काल लाभाकांक्षी था, अन्ना ज़रा संयमी है, दूरदर्शी है, वे अपना और देश का भविष्य में लाभ देख रहे हैं। लेकिन फिर भी सत्ता तो हड़पनी ही पड़ेगी जैसे औरंगजेब ने हड़पी थी, क्योंकि गद्दी पर बैठना सब चाहते हैं और जिनके पास गद्दी है उनके उत्तराधिकारी भी लाइन में इंतज़ार कर रहे हैं ।
पर राजनीति का कीचड़ इतना दलदलीय है कि सफ़ेद कुरता-पजामा पर छींटे साफ़ दिखाई देते हैं। फिर अन्ना तो गांधीवादी हैं। पर क्या अहिंसा को आदर्श मानकर राजनीति करना वर्तमान के लिए प्रसांगिक होगा, ये प्रश्न इसलिए उठता है, क्योंकि इससे बातें या शर्तें तो मनवाई जा सकती हैं, लेकिन क्रान्ति नहीं की जा सकती। और प्रत्यक्ष उदहारण भी सामने है, शुरुआत में जब अन्ना और उनकी टीम ने जो अनशन किया, सरकार की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। अंत में केजरीवाल को अनशन समाप्त करना पड़ा था। और तब पार्टी गठन की घोषणा ने सारे नेताओं के मुंह-कान फुला दिए थे। शायद ये बात अन्ना और उनकी टीम को समझ आ गयी कि शर्तों से कुछ नहीं होगा, जब तक सत्ता में नहीं आ जाते, दिल्ली के परिणामों ने कम से कम कांग्रेस के लिए, काफी हद तक यह साबित भी कर दिया था। हालांकि अन्ना बाद में इससे दूर होते गए कि उनकी भूमिका कोई भूमिका नहीं, ऐसा अन्ना का कहना है।
बीते कई सालों से पूरे देश में किसानों, आदिवासियों, महिलाओं, दलितों और कई तमाम वर्गों के आन्दोलन चल रहे हैं, लेकिन इतने कम समय में अन्ना को जो सफलता हाथ लगी, वह उनके आन्दोलन की गति का ही फल था, लोकसभा में लोकपाल बिल पास हो जाना, पिछले दो साल की कम बड़ी उपलब्धि नहीं, चाहे फिर किसी रूप में हुआ हो। कम से कम यूपीए सरकार ने अन्ना के दबाब में आकर उनकी मांगों की तरफ पहला कदम तो आगे बढ़ाया ही था।
समय-समय पर कई ऐसे ब्रेकर आते रहे हैं, जब सरकार की कई भ्रष्ट रणनीतियों की रफ़्तार पर ब्रेक लगाने की सफल कोशिश हुई है। और एक तरह से देखा जाये तो उस समय आपातकाल को कांग्रेस ने रोड रोलर की तरह ही उपयोग किया था।
जेपी नारायण, लोहिया, वीपी सिंह और वाजपेयी जी ऐसे ब्रेकर बने, जिन्होंने कांग्रेस की स्पीड को धीमा करने का काम किया। और इतना ही नहीं, इस कांग्रेस रूपी गाड़ी के पहियों तले कितने गरीब कुचले गए और इसकी सीटों पर बैठकर कितने ऊपर उठे, इसका भी पर्दाफाश किया। आज अन्ना हजारे और बाबा रामदेव भी इसी प्रकार के ब्रेकर बने हैं।
हां, अन्ना का आन्दोलन और अरविन्द का पार्टी गठन का निर्णय कितना सफल हुआ है, यह बहस का विषय हो सकता है। लेकिन जो चरम सीमा मुग़लकाल ने औरंगजेब के काल में पाई, वह किसी और मुग़लशासक की नसीब नहीं हुई।
बादशाहत पाने के लिए औरंगजेब ने तलवार का सहारा लिया था, जिसमें उसकी बुद्धि का जोड़ था।
आज अन्ना के पास बुद्धिजीवियों का जोड़ तो है पर क्या अन्ना के बाद अरविन्द तलवार अहिंसा को ही बनायेंगे या क्रांतिकारी का सा मन बना बैठेंगे, या फिर इतना ही करके मैं अपने गांव रालेगण की सेवा करूंगा, जैसा अन्ना ने कहा है वैसा करेंगे, यह अन्ना को तय करना है। और दिल्ली का सा ही हाल अरविन्द केंद्र में रहकर करेंगे, यह उन्हें और उनकी टीम को सोचना है।
अभी तक तो सबसे धारदार वक़्त की ही तलवार सब पर चली है। फिर चाहे बादशाहत औरंगजेब की रही हो, या आज कांग्रेस की हो और अभी समय चुनाव का है, नतीजे कैद होते जा रहे हैं और समय नजदीक आ रहा है, देखना ये है कि अच्छे दिन किसके आने से आयेंगे।

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