पोलियो वैक्सीन से मौत!

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मध्य प्रदेश के दमोह जिले में खसरे की वैक्सीन से चार बच्चों की मौत की खबर दर्दनाक और अफसोसजनक ही है। इस मामले को स्थानीय स्तर के बजाए व्यापक और राष्ट्रीय स्तर पर ही देखा जाना चाहिए। एक तरफ सरकार द्वारा पोलियो मुक्त समाज का दावा किया जा रहा है, वहीं जीवन रक्षक वैक्सीन ही अगर जानलेवा बन जाए तो इसे क्या कहा जाएगा। वैसे भी पल्स पोलियो अभियान बहुत ज्यादा सफल नहीं कहा जा सकता है। अफवाहें तो यहां तक भी हैं कि पोलियो की दवा पीने वाले बच्चे योनावस्था में संतान उतपन्न करने में अक्षम होते हैं। सरकार के दावों और प्रयासों तथा चिकित्सकों के परामर्श के बाद भी समाज का बडा वर्ग इसके प्रति उत्साहित नजर नहीं आता है। इन परिस्थितियों में अगर वैक्सीन पीने से बच्चों की मौत की खबर फिजां में तैरेगी तो इसका प्रतिकूल असर पडना स्वाभाविक ही है।

आज देश में पोलियो का घातक रोग रूकने का नाम नहीं ले रहा है। वैसे पिछले कुछ सालों के आंकडे ठीक ठाक कहे जा सकते हैं, पर इन्हें संतोषजनक नहीं माना जा सकता है। सत्तर से अस्सी के दशक में तो हर साल दो से चार लाख बच्चे अर्थात देश में रोजाना पांच सौ से एक हजार बच्चे इस दानव का ग्रास बन जाते थे। आज यह संख्या प्रतिवर्ष चार सौ से कम ही कही जा सकती है। चिकित्सकों की राय में पोलियो के 1,2 और 3 विषाणु इसके संक्रमण के लिए जवाबदार माना गया है। इस विषाणु से संक्रमित बच्चों में महज एक फीसदी बच्चे ही लकवाग्रस्त होते हैं। सवाल यह नहीं है कि लकवाग्रस्त होने वाले बच्चों का प्रतिशत क्या है, सवाल तो यह है कि यह घातक विषाणु नष्ट हो रहा है, अथवा नहीं।

1988 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के आव्हान पर दुनिया भर के 192 देशों ने पोलियो उन्नमूलन का जिम्मा उठाया था। आज 22 साल बाद भी इस अभियान के जारी रहने का तात्पर्य यही है कि 22 सालों में भी इस विषाणु को समाप्त नहीं किया जा सका है। जाहिर है इसके लिए प्रभावी वैक्सीन की आज भी दरकार ही है। वैक्सीन से बच्चे के अंदर पोलियो के विषाणु पनपने की क्षमता समाप्त हो जाती है, किन्तु अगर एक भी बच्चा छूटा तो वैक्सीन धारित बच्चे के अंदर भी विषाणु पनपने की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता है।

भारत सहित पाकिस्तान, नाईजीरिया और अफगानिस्तान जैसे देशों को छोडकर अन्य सदस्य देशों ने 2005 में अपना निर्धारित लक्ष्य पूरा कर लिया था, किन्तु भारत जैसे देश में लाल फीताशाही के चलते यह अभियान परवान नहीं चढ सका। भारत टाईप 2 के विषाणु का सफाया कर चुका था, किन्तु उत्तर प्रदेश और बिहार से एक बार फिर पोलियो के विषाणुओं के अन्य सूबों में फैलने के मार्ग प्रशस्त हो गए। यहां तक कि बंगलादेश, सोमालिया, इंडोनेशिया, नेपाल, अंगोला आदि समीपवर्ती देशों में पोलियो का जो वायरस पाया गया वह उत्तर प्रदेश के रास्ते इन देशों में पहुंचा बताया गया है।

पिछले साल देश में पोलियो के 610 मामले प्रकाश में आए थे। इनमें सबसे अधिक 501 उत्तर प्रदेश, 50 बिहार, 16 हरियाणा, 13 उत्तरांचल, 7 पंजाब, 6, दिल्ली, 5 महाराष्ट्र के अलावा तीन तीन गुजरात और मध्य प्रदेश, असम में दो तथा चंडीगढ, हिमाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल और झारखण्ड में एक एक मामला प्रकाश में आया था। देश की स्वास्थ्य एजेंसियां दावा करती आ रहीं थीं कि 2010 के आते ही देश पोलियो से पूरी तरह मुक्त हो जाएगा। 2010 आ भी गया और पोलियो का साथ चोली दामन सा दिख रहा है। केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की एक नोडल एजेंसी के प्रतिवेदन के अनुसार त्रिपुरा के एक जिले में तो 95 फीसदी तो देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली में चालीस फीसदी बच्चे खुराक पीने का चक्र ही पूरा नहीं कर पा रहे हैं।

पोलियो के दानव के इस घातक रूप के बावजूद भी न तो केंद्र और न ही राज्यों की सरकरों की नींद टूटी है। मध्य प्रदेश के दमोह जिले में खसरे की वैक्सीन से चार बच्चों की मौत के बाद अब लोगों का वैक्सीन पर से भरोसा उठना स्वाभाविक ही है। दरअसल दमोह जिले में पिछले साल खसरे से अनेक बच्चों की मौत हुई थी, इसीलिए इस साल सावधानीवश बच्चों को खसरे की वैक्सीन देने का काम व्यापक स्तर पर किया गया। सभी अपने आंखों के तारों को खसरे से बचाने के लिए वैक्सीन पिलवाने गए। इनमें से कुछ बच्चों की तबियत बिगडी और उनमें डायरिया के लक्षण दिखने लगे। बताते हैं कि यह सब एक ही केंद्र पर हुआ। इसके बाद बच्चों को अस्पताल में दाखिल कराया गया। इनमें से तीन की उसी रात तो एक की अगली सुबह मृत्यु हो गई।

इसके बाद जिम्मेदारी हस्तांतरण और थोपने का अनवरत सिलसिला जारी है। मध्य प्रदेश सरकार का यह नैतिक दायित्व बनता है कि वह इस मामले की गहराई से छानबीन कर जिम्मेदारी किसकी थी, इसका पता करे। अब तक का इतिहास साक्षी है कि जब भी कोई जांच की या करवाई जाती है, तो उसमें लीपा पोती कर दी जाती है। यह मामला आम आदमी से जुडा हुआ है। इसमें गांव के निरक्षर ग्रामीण का विश्वास डिग सकता है। केंद्र और राज्य सरकारें कहने को तो आम आदमी के स्वास्थ्य के लिए बहुत ही ज्यादा संजीदा होने का स्वांग रचती हैं, पर इस मामले में उन्हें पूरी ईमानदारी से संजीदगी दिखानी ही होगी, वरना गांव के आम आदमी का आने वाले दिनों में महात्वाकांक्षी सरकारी स्वास्थ्य योजनओं पर से विश्वास उठ जाएगा और वह सरकारी अस्पताल या चिकित्सक के पास जाने के बजाए एक बार फिर नीम हकीमों के हत्थे ही चढ जाएगा।

-लिमटी खरे

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लिमटी खरे
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1 COMMENT

  1. लिमिटी जी ने एक बार फिर से एक सही मुद्दे पर लेखनी उठाई है .
    प्राप्त तथ्यों के अनुसार सन १९९१ तक अफ्रिका में जिन्हें पोलियो का टीका लगा उनमें से ७० प्रतिशत को एड्स होगया था. टीके में एड्स का वायरस डालागया था. १९९१ के बाद के आंकड़े जारी करना बंद करदिये गए हैं. दवा बनाम रोग उद्योग की सफलता का प्रतिशत और बढा होगा, इसमें क्या शक है.
    सन १९५८ में अमेरिका में पोलियो समाप्त करने के नाम पर जो टीकाकरण किया गया था उसके बाद कई कस्बों में तो यह रोग ३०० प्रतिशत तक बढ़ गया था.तो क्या वास्तव में पोलयो फैलाने के लिए टिकाकरण कियागया था?
    सबसे बड़ा सवाल यह है की भारत में पोलियो वक्सिन के नाम पर क्या दिया जारहा है ? सच मानें तो एक सूचना यह है की इसमें soft tissue कैंसर का वायरस डाला गया है, पर भारतियों की अद्भुत जीवनी शक्ति के कारन आशाजनक परिणाम नहीं आरहे. इतना तो अब हम जानते ही हैं की कैंसर एक बहुत विशाल उद्योग बन चुका है.
    लिमिटी जी ! एक सही मुद्दे पर लेहनी उठाने हेतु बधाई. इस बहाने हमें भी कुछ कहने का अवसर मिलगया.

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