राजनैतिक प्रहसनों का दौर

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गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और कांग्रेसी नेता शंकर सिंह वघेला का उपवास समाप्त हो गया। अनशन के नाम पर राजनीति का यह प्रहसन तीन दिनों तक चला। सद्भावना मिशन के तहत मोदी के तीन दिन के उपवास के जवाब में वघेला ने भी उपवास किया था। किसी अनशन के विरोध में अनशन का शायद यह पहला मौका था। मोदी के अनशन के उद्देश्यों पर बहस हो सकती है, पर उसके विरोध में कांग्रेस के द्वारा किया गया अनशन स्वस्थ्य राजनीतिक का परिचायक नहीं माना जा सकता है। अपने अनशन के दौरान वघेला गुजरात दंगों को लेकर मोदी को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश करते रहे। वघेला किसी भी कीमत पर मोदी के कद को और बढ़ने देना नहीं चाहते। दरअसल देश में इनदिनों राजनैतिक प्रहसन का दौर सा चल पड़़ा है। दुर्भाग्य है कि मीडिया भी इस प्रहसन का हिस्सा बना हुआ है। मीडिया में ख़बरें कम तमाशे ज्यादा दिखाये जा रहे हैं। आम आदमी तमाशबीन बन कर रह गया है।

मोदी के उपवास और उसके नफे नुकसान को लेकर सियासी गलियारे में जोरदार चर्चा हो रही है। ढेर सारी बाते हो रही हैं। कोई इसकी आलोचना कर रहा है तो कोई प्रशंसा। शिवसेना कभी पक्ष में दिखाई देती है तो कभी विरोध में। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इस पर कोई भी टिप्पणी करने से कतराते रहे हैं। अन्ना की टीम ने मोदी के अनशन को भ्रष्टाचार का नमूना बताया है। अन्ना के सहयोगियों का आरोप है कि सरकारी खजाने से करोड़ों रुपये खर्च करके उपवास करना भ्रष्टाचार है। जिस तामझाम के साथ तीन दिन का अनशन अपने अंजाम तक पहुंचा, उससे यह साफ जाहिर होता है कि उपवास की आड़ में भाजपा और मोदी दोनों अपना हित साधना चाहते हैं। मोदी का उपवास महज अपनी छवि सुधारने की कवायद लगती है। कोई पछतावा या पछतावे के संकेत नजर नहीं आते। अनशन के बहाने मोदी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को भी मजबूत करना चाहते हैं। मोदी की खासियत रही है कि जितना उनका विरोध होता है जनमानस उतना ही उनके करीब आ जाता है। उनका जितना विरोध होता है उतना ही उनका कद बढ़ता जाता है। विरोधों की वजह से ही मोदी एक निरंकुश शासक से एक लोकप्रिय नेता बन गए हैं। अब देखना है कि उपवास के जरिये अपना राजनीतिक कद बढ़ाने और प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदारी मजबूत करने की नरेंद्र मोदी की कोशिश कितनी रंग लाती है।

अन्ना के अनशन के दौरान सरकार और कांग्रेस पार्टी का जो रवैया रहा वह किसी प्रहसन से कम नहीं था। अनाड़ी और अहंकारी सलाहकारों ने प्रधानमंत्री को उपहास का पात्र बना दिया। सरकार एक के बाद एक गलतियां करती रही और अन्ना का आंदोलन देश भर के गुस्से का सबब बन गया। अन्ना का अनशन राजनीति से परे था लेकिन तब शहरों और कस्बों में स्वतः स्फूर्त विरोध प्रदर्शनों में कुछ ऐसे तत्व भी शामिल थे जिनके द्वारा जाने-अनजाने इसे तमाशा बनाने की कोशिश की गयी। इस अनशन को तमाशे का रूप देने में मीडिया ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। अन्ना के मंच से फ़िल्म अभिनेता ओम पुरी और टीम अन्ना की सदस्य किरण बेदी ने सांसदों का मजाक उड़ा कर आन्दोलन को हल्का बनाने की कोशिश की तो संसद में लोकपाल पर चर्चा के दौरान कुछ सांसदों ने इस अनशन का खूब मजाक बनाया। बाबा रामदेव का अनशन किसी तमाशे से कम नहीं था। भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ जमकर बोलनेवाले बाबा ने जब अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए अनशन का रास्ता अपनाया तो उन्हें फजीहत झेलनी पड़ी। इस अनशन की विश्वसनीयता शुरुआत में ही खत्म हो गयी थी। सरकार ने बाबा रामदेव के साथी आचार्य बालकृष्ण की एक चिट्ठी सार्वजनिक कर दी थी जिसमें अनशन शुरू होने से पहले ही उसे खत्म करने का आश्वासन दिया गया था। अनशन के दौरान सरकार ने पहले समर्पण और फिर कार्रवाई का रूख अख्तियार किया। सरकार का यह रवैया शर्मिंदगी का सबब बना। वहीं अनशन स्थल से भाग जाने के कारण बाबा रामदेव की खूब जग हंसाई हुई।

देश में अनशन और राजनीतिक यात्राओं का माहौल बना हुआ हैं। अन्ना के आंदोलन से व्यवस्था के प्रति उपजे असंतोष और जनभावनाओं को सभी दल अपने पक्ष में करने की ताक में है। भाजपा को हर दृष्टि से यह उपयुक्त मौका लग रहा है वहीं प्रधानमंत्री को सरकार तथा पार्टी की छवि बचाने के लिए पूरी ताकत लगानी पड़ रही है। आडवाणी अन्ना की मुहिम को राजनीति रंग देते हुए भ्रष्टाचार के मुद्दे पर रथयात्रा पर निकलनेवाले हैं। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की क्रांति रथ यात्रा शुरू हो गयी है। बाबा रामदेव दूसरी स्वाभिमान यात्रा पर हैं। उधर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी फिर एकबार यात्रा पर निकलेवाले हैं। अन्ना हजारे और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी भी अपनी-अपनी यात्राओं की घोषणा कर चुके हैं। इन सियासी तमाशों में बसपा की सुप्रीमो और उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती भला कैसे पीछे रहतीं। उन्होंने तीन दिनों के भीतर प्रधानमंत्री को तीन चिट्ठी लिखकर मुसलमानों और गरीब सवर्णों को आरक्षण देने और जाट समुदाय को अन्य पिछड़े वर्ग में शामिल करने की मांग कर दी। दरअसल सारी कवायद और सारा तमाशा उत्तर प्रदेश, गुजरात समेत पांच राज्यों में होनेवाले विधानसभा चुनावों और मिशन 2014 को लेकर है।

जब से अन्ना हजारे ने अनशन के माध्यम से सरकार को घुटने टेकने के लिए मजबूर कर दिया तब से यह अपनी बात मनवाने का जांचा-परखा हथियार बन गया है। दबाव का एक साधन बन गया है। आत्मशुद्धि का हथियार धीरे-धीरे एक तमाशे में तब्दील होता जा रहा है। अनशन राजनैतिक प्रहसन का हिस्सा बन कर रह गया है। राजनीति की दखल जहां होगी वहां तमाशा ही होगा। राजनीतिक पार्टियां अपने शक्ति प्रदर्शन के लिए रैली, महारैली, आंदोलन या धरना-प्रदर्शन करती आयी हैं। अनशन के रूप में राजनैतिक दलों को अपनी नेतागिरी चमकाने का नया हथियार मिल गया है। अब हर छोटी-बड़ी बात पर अनशन होने लगे हैं। झारखंड के नेता तो इस मामले में अलहदा हैं। यहां हर दिन राजनैतिक प्रहसन देखने को मिलता है। सरकार में शामिल लोग ही सरकार के खिलाफ बोलते रहते हैं। सरकार के खिलाफ सत्ताधारी दल के सांसद और विधायक ही अनशन के हथियार का इस्तेमाल करते हैं।

इस भेड़चाल और तमाशे से अलग कुछ ऐसे लोग भी है जिनकी मंशा पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता है। उत्तराखंड में गंगातट पर अवैध खनन को बंद कराने के लिए स्वामी निगमानंद ने एक सौ पंद्रह दिनों के उपवास के बाद दम तोड़ दिया। जहां बाबा रामदेव का अनशन तुड़वाने का तमाशा चल रहा था वही पर निगमानंद ने दम तोड़ा। अगर बाबा रामदेव के पल-पल के स्वास्थ्य की खबर लेने के लिए मीडिया की टीम देहरादून के हिमालयन इंस्टीट्यूट अस्पताल में मौजूद नहीं होती तो स्वामी निगमानंद की मौत का किसी को पता भी नहीं चलता। इसी तरह पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर के इम्फाल शहर में सामाजिक कार्यकर्ता इरोम चानू शर्मिला करीब 11 वर्षो से आमरण अनशन कर रही हैं पर उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। देश में परिस्थितिजन्य कारणों से करोड़ो लोग रोज उपवास करते हैं लेकिन उनके इस उपवास पर कभी कोई ख़बर नहीं बनती।

वैदिककाल से ही उपवास को आत्मशुद्धि का एक कागरगर जरिया माना गया है। गांधी ने उपवास का इस्तेमाल आत्मशुद्धि के अलावा राजनीतिक अस्त्र के तौर पर किया। उपवास को अंगरेजों के खिलाफ एक हथियार के तौर इस्तेमाल किया। गांधी के उपवास में निस्वार्थता थी। गांधी के लिए अनशन शुद्ध रूप में सत्याग्रह, सत्य की ताकत यानी सविनय अवज्ञा था। गांधी के अनुसार उपवास में स्वार्थ, क्रोध, अविश्वास या अधीरता के लिए कोई जगह नहीं हो सकती है। गांधी ने कहा था कि उपवास सफलता की आसक्ति रख कर कभी न किया जाए। जिनमें उपवास का तत्व नहीं होता ऐसे उपहासास्पद उपवास बीमारी की तरह फैलते हैं और हानिकारक सिद्ध हो सकते हैं। उपवास में अनुकरण की कोई गुंजाइश नहीं है।

महर्षि दयानंद सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश में कहा है कि जिस प्रकार ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं। वैसे ही अपने को बनाना तथा उस ईश्वर के अधिकाधिक सन्निकट पहुंचना उपासना है। प्रायः लोग इस तथ्य की उपेक्षा-अवहेलना करते हैं और मानते हैं कि भजन करने मात्र से पाप कट जाएंगे। देखना यह है कि मोदी का अनशन संप्रदायिक सद्भावना के संदेश की विश्वसनीयता कायम रख पाता है या नहीं। अनशन के पीछे मोदी की मंशा जो भी हो पर अनशन के बहाने अगर संप्रदायिक सौहार्दता का संदेश फैलता है तो यह सबके हित में ही है।

 

हिमकर श्याम

५, टैगोर हिल रोड

मोराबादी, रांचीः ८

 

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