राजनीतिक भ्रष्टाचार-भाग-1

political-corruptionराकेश कुमार आर्य

आज राजनीति भ्रष्टाचार की जननी बन चुकी है। भारत के रक्षक ही भक्षक बन चुके हैं। शासक ही शोषक हो गया है। अंग्रेजों के जाने के पश्चात सत्ता परिवर्तन तो हुआ किंतु ‘व्यवस्था परिवर्तन’ नही हो पाया। फलस्वरूप नई बोतल में वही पुरानी शराब चल रही है। इससे पूर्व कि हम इस विषय पर आगे बढ़ें उससे पहले कुछ अन्य बातों पर विचार करना उचित होगा।

यथा-राज्य की उत्पत्ति का आधार कौटिल्य ने अपने ‘अर्थशास्त्र’ में राज्य की उत्पत्ति की आवश्यकता के संबंध में वर्णन करते हुए लिखा है कि-प्राचीनकाल में मत्स्य न्याय अर्थात (सृष्टि प्रारंभ के बहुत समय पश्चात जब व्यक्ति की सतोगुणी वृत्ति के स्थान पर प्रधान राक्षसी तमोगुणी वृत्ति बलवती हो गयी तो बलवान निर्बल को उसी प्रकार खाने, सताने और उत्पीडि़त करने लगा, जिस प्रकार बड़ी मछली छोटी को खा जाती है, इसी को ‘मत्स्य न्याय’ कहा जाता है।)

चिरकाल से यही प्रणाली प्रचलित थी। अन्याय की इस व्यवस्था से ऊबकर लोगों ने विवस्वान के पुत्र मनु से गुहार लगाई और उन्हें अपना राजा चुनकर नियुक्त किया। तब राजा को खेती की उपज का छठा भाग और व्यापार से होने वाली आय का दसवां भाग कर (टैक्स) के रूप में दिया जाता था। आर्थिक रूप से समृद्घ लोग स्वर्ण भी राज कर के (टैक्स) रूप में दिया करते थे। इससे स्पष्ट होता है कि-लोक कल्याण राज्य की उत्पत्ति का मूलाधार था।

दलित, शोषित उपेक्षित, लताडि़त और प्रताडि़त जन का कल्याण राज्य का आदर्श था।

बलवान से निर्बल की रक्षा कर उसे भी विकास के समुचित अवसर उपलब्ध कराना राज्य का मौलिक किंतु बाध्यकारी कत्र्तव्य था। ऐसा कत्र्तव्य जो उसके प्र्रति जन साधारण का अधिकार था।

‘मत्स्य न्याय’ के स्थान पर प्राकृतिक न्याय अर्थात जितना जिसका अधिकार है उतना उसको सही-सही मिल जाए बस! इसी व्यवस्था को स्थापित करना ही उसका मुख्य उद्देश्य था।

‘मत्स्य न्याय’ की अति से उस समय की सामाजिक राज्य विहीन व्यवस्था का अंत हुआ। जिससे विदित होता है कि यह मानव समाज सदगुणों और सदप्रवृत्तियों के आधार पर राज्य के बिना भी अपने कार्य सहजता से चला सकता है। अत: राज्य की उत्पत्ति अथवा राजा का बनना मानवीय स्वभाव में आयी कमियों और कमजोरियों का परिचायक है।

बीच के पड़ाव

राज्य की अवधारणा के विकसित होने पर बहुत लंबे समय तक राज्य अपने लोक कल्याणकारी स्वरूप के लिए मान्यता प्राप्त एक संस्था के रूप में कार्य करता रहा। क्योंकि उसका आधार था-

‘‘प्रजासुखे सुखं राज्ञ: प्रजानां च हिते हितम्’’

अपने आपको अच्छे लगने वाले कार्यों को तब राजा अच्छा कार्य नही मानता था, अपितु लोक कल्याण के उन कार्यों को करने में ही अच्छाई समझता था-जिनसे प्रजा का हित होता हो। बस, राज्य का यही आदर्श था और यह आदर्श व्यवस्था दीर्घकाल तक बनी रही।

आदिकाल के मांधाता जैसे राजाओं से लेकर राम और महाभारत से कुछ समय पूर्व तक लोक कल्याण राज्य का वास्तविक उद्देश्य था। उसमें राजा निस्संदेह एक वंश अथवा परिवार का होता था, किंतु उसका चयन लोक कल्याण की भावना से ही किया जाता था।

जिस व्यक्ति के आचरण से लोक के अकल्याण की गंध आती थी उसे राजा पद के अयोग्य समझा जाता था। इस योग्यता-अयोग्ता की परख ऋषिमंडल किया करता था। यह ऋषिमंडल ऐसे विद्वानों का मंडल अथवा परिषद होती थी जो धर्म के नैतिक नियमों की सूक्ष्मताओं का गंभीरता से परीक्षण किये होती थी। नैतिक नियमों की व्यवस्था को ही राज्य व्यवस्था का आधार स्वीकार किया जाता था। जिस किसी शासक से इस आधार को मान्यता न देने की संभावना होती थी, उसे राज्य के लिए अयोग्य घोषित कर हटा दिया जाता था।

राजलिप्सा का इतिहास

महर्षि दयानंद जी के मतानुसार महाभारत से एक हजार वर्ष पूर्व राज्य का लोक कल्याणकारी स्वरूप शनै: शनै: ओझल होने लगा। शासकों ने निजी महत्वाकांक्षाओं को राष्ट्र और राज्य पर थोपना आरंभ कर दिया।
राज्य की इस राजपदीय व्यवस्था की दुर्बलता ने सर्वप्रथम दुर्योधन की हठधर्मिता और राज्यपद प्राप्ति की इच्छा ने हमें घोर विनाश को देखने के लिए विवश कर दिया। महाभारत का युद्घ प्रथम विश्वयुद्घ था। यह शासक की निजी महत्वाकांक्षा को जनहित पर वरीयता देने की प्रवृत्ति की परिणति था।

हमें महाभारत से पूर्व राज्य प्राप्ति के लिए राजकुलों में इतनी भयंकर मारकाट होती नही दिखाई दी थी, क्योंकि राज्य प्राप्त करना जनसेवा का महान संकल्प लेना होता था। निजी स्वार्थपूर्ति का विषय नितांत गौण था।

परिस्थितियों ने करवट ली। समय ने पलटा खाया। युधिष्ठिर ने प्राचीन राज्यव्यवस्था के अनुरूप शासन चलाने का भरपूर व प्रशंसनीय प्रयास भी किया। किंतु सत्ता की भूख मानव के मस्तिष्क में जाग चुकी थी, इसलिए दुर्योधन मरकर भी भूत के रूप में जीवित बना रहा। फलस्वरूप भारत की अपने विश्व राज्य पर पकड़ ढीली होने लगी और संसार में कितने ही राष्ट्र-राज्यों का उद्भव और विकास होने लगा। यही कारण है कि आज भी कितने ही लोग संसार की सभ्यता के इतिहास को पांच हजार वर्ष पूर्व का ही मानते हैं। बात भी सही है, क्योंकि वर्तमान संसार के सभी राष्ट्र राज्यों के उद्भव और विकास की संपूर्ण यात्रा पिछले पांच हजार वर्ष के अंतराल में ही सिमटी पड़ी है। सही बात यह थी कि दुर्योधन वृत्ति (शासन और सत्ता प्राप्ति की भूख) ने लोगों को महत्वाकांक्षी बना दिया। जिससे सत्ता और राज प्राप्ति के लिए शासकों में संघर्ष होने की स्थिति आगे चलकर आने लगी। कुछ समय तक तो यह राज्य प्राप्ति का संघर्ष राजमहलों और राजकुलों तक ही सीमित रहा। पर कालांतर में धीरे-धीरे यह दूसरे राजाओं को परास्त कर राज्य विस्तार और ‘राज्य हड़प नीति’ तक बढ़ गया। विश्व के इतिहास में सीजर, सिकंदर, नैपोलियन जैसे लोग इसी मानसिकता की उपज थे। सांसारिक वैभव और विश्व विजय ही उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य थे। पिछले हजारों वर्ष के इतिहास में हम शासकों की निजी महत्वाकांक्षा के लिए होते हुए संघर्षों को ही पढ़ते हैं। सारा इतिहास रक्तरंजित दिखाई पड़ता है। इसीलिए इतिहास को कई लोग मरने कटने और रक्त बहाने वाले मानव निर्मित संचित कोष के रूप में देखते हैं। जबकि इतिहास ऐसा नही है। इतिहास की अतार्किक व्याख्या ने हमें वर्तमान निराशाजनक परिस्थितियों में धकेल दिया है।

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राकेश कुमार आर्य
उगता भारत’ साप्ताहिक / दैनिक समाचारपत्र के संपादक; बी.ए. ,एलएल.बी. तक की शिक्षा, पेशे से अधिवक्ता। राकेश आर्य जी कई वर्षों से देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। अब तक चालीस से अधिक पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। वर्तमान में ' 'राष्ट्रीय प्रेस महासंघ ' के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । उत्कृष्ट लेखन के लिए राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह जी सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं । सामाजिक रूप से सक्रिय राकेश जी अखिल भारत हिन्दू महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय मानवाधिकार निगरानी समिति के राष्ट्रीय सलाहकार भी हैं। ग्रेटर नोएडा , जनपद गौतमबुध नगर दादरी, उ.प्र. के निवासी हैं।

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