राकेश कुमार आर्य
गतांक से आगे…………..
तानाशाही वृत्ति : वस्तुत: इतिहास पर यह आक्षेप ऐसे ही नही लग जाता है। इसके पीछे कारण है-शासक वर्ग के भीतर उपजी तानाशाही वृत्ति। जिसने शनै: शनै: शासक वर्ग से लोककल्याण की भावना का हनन कर लिया। प्रजाहित-संवर्धन के स्थान पर निजी हित-संवर्धन उनका एकमात्र जीवन ध्येय हो गया। लोक कल्याण का पुर्जा शासन की गाड़ी में से बहुत पीछे कहीं गिर गया था। फलस्वरूप शासक रूखे हो गये, शासक रूखे हुए तो उनके कृत्य रूखे हो गये, और कृत्य रूखे हुए तो (कृत्यों का गुणगान करने वाला शास्त्र) इतिहास भी रूखा और हृदयहीन हो गया। इसीलिए कई लोगों को हृदयहीन रक्तरंजित इतिहास पढऩे में रूचि नही आती।
धर्मांतरण की हठ : साम्राज्य विस्तार की उस नीति तक भी कुछ लोग रूके नही, उन्होंने स्वराज्य से बाहर जाकर अपने राज्य स्थापित किये और जन शोषण किया। धर्म के नाम पर आतंक फैलाया, जिसमें धर्मांतरण करने को शासक का पहला कत्र्तव्य माना। मुस्लिम साम्राज्यवाद इसी सोच के अधीन संसार में फैला और इसी लीक पर उसने कार्य किया। कुछ सीमा तक ईसाई शासकों ने भी इसी तर्ज पर कार्य किया। प्रारंभ में मुस्लिम शासकों ने दूसरे देशों को लूटना और उनका धन अपने देश में ले जाना ही अपना लक्ष्य बनाया। किंतु कालांतर में दूसरे देशों पर अपनी सत्ता भी स्थापित की और जनहित की पूर्णत: अवहेलना करते हुए उसे निर्ममता से कुचला। भारत में मध्यकाल में मुस्लिम सुल्तानों और बादशाहों का इतिहास इसी श्रेणी का रहा है।
ईसाईयत ब्रिटेन के नेतृत्व में एक पग और आगे बढ़े गयी। उसने उपनिवेशवाद को प्रश्रय और प्राथमिकता दी। संसार के देशों पर शासन अपना हो, उनका माल लूटकर लाभ कमाना, शासन का उद्देश्य इस उपनिवेशवादी व्यवस्था ने अपना आदर्श घोषित कर दिया। इससे जनापेक्षाओं का दलन और शोषण अत्यधिक मात्रा में हुआ।
क्रांति की नींव : भारत के राजकुलों में आपसी ईष्र्या और द्वेष की भावना ने इस राष्ट्र को कमजोर किया। ये राजकुल दम्भी और अहंकारी हो चुके थे। जनहित से इनका भी कोई संबंध नही था। अकेले भारतवर्ष में 563 रियासतों (राज्यों) का होना उनकी ईष्र्या और द्वेष की भावना का ज्वलंत उदाहरण है। इन सबका परिणाम यह हुआ कि संसार में जनसाधारण अपने अधिकारों से अनभिज्ञ और वंचित हो गया। उसके अधिकारों का हनन राज्य ने कर लिया। अधिकारविहीन समाज अधिकारों के लिए आवाज उठाने लगा। उसे राज्य, राजा शासक और शासन सभी अपनी निजी स्वतंत्रता में बाधक दीखने लगे।
कितनी अदभुत बात थी कि जिस व्यवस्था का आविष्कार व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता को बनाये रखने के लिए किया गया था, वही उसकी भक्षक बन गयी। फलस्वरूप राज्य, राजा-शासक और शासन सभी में से अत्याचार और दमन की गंध आने लगी। इसके विरूद्घ विद्रोह कर व्यक्ति की स्वतंत्रता पर से इनके पहरे को समाप्त करने की मांगें संसार में उठने लगीं।
अत: परिणाम यह हुआ कि अमेरिका, ब्रिटिश उपनिवेशवादी व्यवस्था को जलाने के लिए और फ्रांस अपनी राज व्यवस्था को जलाने के लिए उद्यत हो गया। सन 1776 ई. में अमेरिका में और सन 1789 ई. में फ्रांस में हुई राज्यक्रांति की ये ऐतिहासिक घटनाएं संसार के लिए प्रेरणा का स्रोत बनीं, जिसने आगे चलकर दूसरे देशों का भी मार्गदर्शन किया। इसके अतिरिक्त इस्लामी शासन व्यवस्था भी ईसाइयत की तर्ज पर ही संसार में फैली, ईसाई शासन व्यवस्था ने इसे चुनौती दी और ये दोनों व्यवस्थाएं भारत जैसे देशों के अंदर आपस में मरकटकर क्षीण होने लगीं।
विश्व समाज सारी परिस्थितियों को देखता रहा, अहम की टकराहटों को देखता रहा। अहम की इन टकराहटों ने दो-दो विश्व युद्घों को जन्म दिया। बीसवीं सदी में ये दोनों महायुद्घ अपनी वीभत्स विभीषिका दिखा गये। इनके साथ ही ब्रिटिश उपनिवेशवाद की संसार में लगभग समाप्ति हो गयी। दूसरे देशों की संप्रभुता को आहत करने की प्रवृत्ति पर लोगों ने मिल बैठकर विचार किया और संप्रभुता का सम्मान करने का संकल्प लिया। जिससे यू.एन.ओ. जैसी विश्व संस्था का प्रादुर्भाव हुआ। जनांदोलनों और जनक्रांतियों से जन्मा नया विश्व लोकतंत्र के सुनहरे पालने में झूलते हुए सुखद सपने देखने लगा।
इतिश्री फिर भी नही : लोकतंत्र की सुहानी छवि के सामने पुरानी विश्व व्यवस्था टिक नही सकी, उसकी मान्यताएं टिक नही सकी, उसकी जनता ने होली फंूक दी। जनता को यह भ्रम था कि संभवत: लोक के तंत्र में तो कल्याण ही सर्वोपरि होगा। किंतु आज यथार्थ में लोकनायकों के लिए लोकतंत्र में भी लोककल्याण को प्राथमिकता नही दी जा रही है।
सभ्यता का लक्षण : आज के कथित सभ्य समाज में लोकतंत्र, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता की बयार (हवा) चल रही है। ऐसा होते हुए भी मेरे मस्तिष्क में कुछ प्रश्न उठते हैं, जो हमें निरूत्तर कर देते हैं –
लोक के शासन में ‘बूथ कैप्चरिंग’ क्यों होती है?
मताधिकार की स्वतंत्रता का हनन क्यों होता है?
मानवाधिकारों का हनन क्यों होता है?
सुहावने नारे लगाकर लोकमत को झूठी बातों में क्यों भरमाया जाता है?
समाजवाद के गीत गाते-गाते पूंजीवाद को प्रश्रय देने वाली नीतियों को क्यों लागू किया जाता है?
धर्म क्या है? धर्मनिरपेक्षता क्या है? राज्य का स्वरूप धर्मनिरपेक्ष हो अथवा पंथनिरपेक्ष हो?
क्यों नही ये बातें स्पष्ट कर दी जाती हैं?
बहुत सारे प्रश्न हैं। लोकतंत्र के समाजवाद और धर्मनिरपेक्षतावाद इन प्रश्नों के उत्तर मांगते हैं। क्योंकि इन और इन जैसे प्रश्नों के खड़े हो जाने से आज उनकी विश्वसनीयता ही संदिग्ध हो गयी है। इन प्रश्नों का अस्तित्व बता रहा है कि मानव सभ्यता की कितनी ही डींगे क्यों न बघारी जाएं, वास्तव में विश्व अभी भी असभ्य ही है। अभी भी कदम-ताल ही कर रहा है और कदम ताल में कभी भी यात्रा तय नही हुआ करती है। अत: यथास्थितिवाद को उन्नति मानना, स्वयं के साथ भी छल करना है।