राजनीतिक जजिया की तैयारी

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शंकर शरण

प्रस्तावित ‘सांप्रदायिक और लक्षित हिंसा निरोधक (न्याय और क्षतिपूर्ति मिलने) विधेयक, 2011’ खुले तौर पर बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक समुदायिक आधार पर बनाया गया है। सांप्रदायिक हिंसा रोकने के नाम पर यह एक ऐसे कानून का प्रस्ताव है, जो किसी आगामी सांप्रदायिक हिंसा के लिए सदैव हिंदुओं को दोषी मानकर चलता है। किसी अज्ञात व्यक्ति की शिकायत पर भी कोई हिन्दू गिरफ्तार होगा, यदि शिकायत सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने की हो। ऐसी शिकायत किसी ‘अल्पसंख्यक’ पर लागू नहीं होगी। अतः आरंभ से ही किसी हिन्दू के दोषी होने की संभावना मानकर चली जाएगी। उसकी कोई टीका-टिप्पणी भी सांप्रदायिक हिंसा उकसाने जैसी बात मानी जाएगी। अर्थात् प्रस्तावित कानून स्थाई रूप से हिन्दुओं के मुँह पर सदा के लिए ताला लगा देगा।

यह कानून वर्तमान न्याय दर्शन के भी विपरीत होगा। यह दर्शन मानता है कि जब तक किसी का अपराध साबित न हो, उसे निर्दोष समझना चाहिए। प्रस्तावित कानून मानेगा कि हर हिन्दू सांप्रदायिक हिंसा का दोषी है, जब तक कि वह स्वयं को निर्दोष न साबित कर ले। किंतु यही मान्यता अल्पसंख्यकों पर लागू नहीं होगी। क्योंकि प्रस्तावित कानून केवल उन्हें ही सांप्रदायिक हिंसा का पीड़ित मानकर चलता है।

तदनुरूप देश भर में सांप्रदायिकता पर निगरानी करने वाली एक विशेष अथॉरिटी होगी। यह अथॉरिटी सांप्रदायिक हिंसा रोकने में विफलता आदि नाम पर राज्य सरकारों तक को बर्खास्त कर सकेगी। इस अथॉरिटी में ‘अल्पसंख्यकों’ अधिक संख्या में रखे जाएंगे। क्योंकि यह कानून स्थाई रूप से मानेगा कि हर हाल में, कहीं भी, कभी भी सांप्रदायिक हिंसा निरपवाद रूप से हिन्दू ही करेंगे। अतः किसी सांप्रदायिक घटना की जाँच, विचार, तथा निर्णय करने वाली इस सुपर अथॉरिटी में गैर-हिन्दू ही निर्णायक संख्या में होने चाहिए। इसमें यह मान्यता निहित है कि हिन्दू तो हिन्दू दंगाई के लिए पक्षपात करेगा, किन्तु गैर-हिन्दू पक्षपात नहीं कर सकता!

स्वतंत्र भारत में सामुदायिक भेद-भाव के आधार पर बनने वाला यह सबसे भयंकर कानून होगा। न्याय, सच्चाई और संविधान के साथ ऐसा मजाक करने वालों को क्या भारत में सांप्रदायिक हिंसा का इतिहास पता भी है?

भारतीय संसद में ही प्रस्तुत गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में सन् 1968 से 1970 के बीच हुए चौबीस दंगों में तेईस दंगे मुस्लिमों द्वारा आरंभ किए गए थे। (इंडिया टुडे, 10 अप्रैल 2002)। यह रिपोर्ट कांग्रेस शासन में ही आई थी। तब से हालत बदतर ही हुए। हालिया सांप्रदायिक हिंसाओं की भी वही कहानी है। गोधरा से लेकर मऊ, और उदालगिरि से लेकर मराड तक सांप्रदायिक हिंसा किस समुदाय ने आरंभ की थी? यहाँ तक कि विदेशों में घटी घटनाओं, किन्ही अमेरिकी या यूरोपीय द्वारा दिए बयान या किए गए काम से क्रुद्ध होकर यहाँ भारत में सांप्रदायिक हिंसा आरंभ करने का काम कौन करता है? चाहे वह अमेरिका में पादरी जेरी फेलवेल का बयान (2002) हो या डेनमार्क में कोई कार्टून बनना (2005), हर बार यहाँ बेचारे हिन्दुओं को संगठित हिंसा का भयानक दंश झेलना पड़ता है।

यही स्वतंत्रता-पूर्व भी होता था, जब तुर्की में खलीफत खत्म होने पर यहाँ मोपला, मुलतान, ढाका तथा अनेक स्थानों पर हिन्दुओं को क्रूरता पूर्वक मारा गया। वह सब देखकर महात्मा गाँधी जैसे व्यक्ति को भी सन् 1924 में कहना पड़ा कि “मुसलमान प्रायः आक्रामक होता है और हिन्दू कायर”। कि यह पुरानी परंपरा है। सांप्रदायिक हिंसा पर यह सचाई समकालीन इतिहास है। जिसे गाँधी के साथ-साथ बंकिम चंद्र, श्रीअरविन्द, एनी बेसेंट, रवीन्द्रनाथ टैगोर, बाबासाहेब अंबेदकर जैसे अनेकानेक परम सत्यनिष्ठ महापुरुष नोट कर चुके हैं। अतः यदि सांप्रदायिक हिंसा को रोकने की सचमुच चिंता है, तब पहले देश में हुए प्रत्येक दंगे और हिंसा की पूरी जानकारी देश के सामने रखी जाए। गिना जाए कि एक-एक दंगे की शुरुआत कैसे हुई, किसने की। तब स्वतः तय हो जाएगा कि ‘समुदाय’ के आधार पर हिंसा की चिंता कैसे करनी चाहिए।

सच यह है कि बहुसंख्यक होते हुए भी हिन्दुओं का ही पीड़ित होना होना एक पुरानी स्थिति है। गाँधीजी ने उसी को अपनी तरह कहा था। यह केवल मुगल काल की बात नहीं, जब हिन्दुओं पर औरंगजेब जैसे भयंकर अत्याचारी ‘अल्पसंख्यक’ समुदाय के ही थे। ब्रिटिश शासन में भी, बीसवीं सदी में, यह कथित अल्पसंख्यक समुदाय ही बहुसंख्यकों का उत्पीड़क था। स्वतंत्रता पूर्व भारत में सांप्रदायिक दंगों का पूरा इतिहास इस की गवाही देता है। डॉ. अंबेदकर ने अपनी पुस्तक ‘पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ इंडिया’ (1940) में अनगिनत दंगों का उल्लेख किया है। इस गंभीर पुस्तक के अध्याय 7 से 12 तक पढ़कर स्वतः स्पष्ट हो रहेगा कि भारत में समुदाय के आधार पर कौन उत्पीड़क रहा है, और कौन उत्पीड़ित।

यह केवल स्वतंत्र आकलन की ही चीज नहीं। असंख्य मुस्लिम नेताओं ने स्वयं बारं-बार अहंकार पूर्वक हिन्दुओं को धमकी दी थी और आज भी देते हैं। सन् 1926 में मौलाना अकबर शाह खान ने महामना मदन मोहन मालवीय को सार्वजनिक चुनौती दी थी कि ‘पानीपत का चौथा युद्ध’ आयोजित किया जाए। उसमें भारत की तात्कालिक जनसंख्या के अनुपातिक हिसाब से 700 मुस्लिम रहें और 2200 हिन्दू। मौलाना ने घमंड से यहाँ तक कहा कि वे लड़ाई के लिए साधारण मुसलमान ही लाएंगे, पठान या अफगान नहीं, जिनसे हिन्दू ‘प्रायः आतंकित रहते हैं।’ मौलाना के अनुसार सात सौ साधारण मुस्लिम बाइस सौ हिन्दुओं को यूँ ही कुचल देंगे। यह कोई आपवादिक प्रसंग नहीं था। स्वतंत्रता-पूर्व यहाँ दंगे निपट एकतरफा होते थे, जिनका मतलब ही था हिन्दुओं का संहार। यहाँ तक कि जिन्ना ने इस तथ्य का उपयोग भारत-विभाजन मनवाने के लिए भी किया था। कि यदि पाकिस्तान की माँग न मानी गई तो मुस्लिम लीग के ‘डायरेक्ट एक्शन’ (कलकत्ता, 1946) जैसा हिन्दुओं का सामूहिक संहार और किया जाएगा।

जिन्ना के अपने शब्दों में, “अब हिन्दुओं का भी हित इसी में है कि वे पाकिस्तान की माँग स्वीकार कर लें, चाहे तो केवल हिन्दुओं को कत्लेआम और विनाश से बचाने के लिए ही।” (लियोनार्द मोसले, द लास्ट डेज ऑफ द ब्रिटिश राज, पृ. 48)। क्या ऐसे अहंकारी बयान स्वयं नहीं बताते कि समुदाय के आधार पर हिंसा कौन करता और कौन झेलता है? जवाहरलाल नेहरू जैसे मुस्लिम-प्रेमी ने भी मुस्लिम लीग की पहचान यही बताई थी कि वह सड़को पर हिन्दू-विरोधी हिंसा करने के सिवा और कुछ नहीं करती। मौलाना अकबर से लेकर जिन्ना और सुहरावर्दी तक, यह सब कहने, करने वाले तब भी अल्पसंख्यक समुदाय के ही थे। ऐसे अगिनत प्रमाणों से यह भारत में ‘सांप्रदायिक दंगों’ के इतिहास की सचाई जरूरी तौर पर समझ ली जानी चाहिए।

विभाजन के बाद के भारत में भी स्थिति मूलतः नहीं बदली। कश्मीर से पूर्णतः और असम, केरल में अंशतः केवल हिन्दू ही मार भगाए गए। क्या स्वतंत्र भारत में एक भी उदाहरण है, जहाँ मुस्लिम या ईसाई किसी राज्य या जिले से समुदाय के रूप में निकाले, मारे गए? अभी भारत में असंख्य ऐसे इलाके हैं जहाँ पुलिस भी जाने से डरती है। इन में कोई हिन्दू बस्ती नहीं। कई मीडिया कार्यालयों को जहाँ-तहाँ हिंसा और आगजनी झेलनी पड़ी है, फिर भी उलटे उन्होंने ही माफी माँगी। यह प्रसंग भी सदैव एक अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़ा है।

इसलिए आज तक जितनी सांप्रदायिक हिंसा हुई, सब के आँकड़े, जाँच-रिपोर्ट और अदालती कार्रवाइयों का पूरा हिसाब सामने रखें। यह सभी दंगे कैसे, किस घटना से भड़के। तब देखा जाए कि कौन समुदाय, किस बात का और कितना दोषी है। यदि समुदाय के आधार पर ही कानून बनना हो, तो पहले एक श्वेत-पत्र लाकर पिछले सौ वर्ष या चौंसठ वर्षों में हुई सभी हिंसा का ठोस विवरण दिया जाए। तभी अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक समुदायों के आधार पर सांप्रदायिक-हिंसा निरोधक कानून बनाने की कैफियत हो सकती है। अन्यथा यह विशुद्ध मनमानी ही होगी।

जिस अल्पसंख्यक समुदाय में देश का विभाजन करा देने, और हिंसा के बल पर इलाके दर इलाके खाली कराने की सामर्थ्य हो, वह कतई पीड़ित, विवश या भयाकुल नहीं माना जा सकता। आज भी भारत में ईमाम बुखारी, सैयद शहाबुद्दीन, अबू आजमी, हाजी याकूब, अहमद कादरी, अफसर खान और मोअज्जम खान जैसे अनेकानेक मुस्लिम नेताओं और दीनदार अंजुमन, स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी), इंडियन मुजाहिदीन आदि विभिन्न प्रकार के मुस्लिम संगठनों की भाषा कड़वी सचाई की चुगली करती है। अहमद कादरी और मोअज्जम खान आंध्र विधान सभा के सदस्य होते हुए किसी को खुले आम मार डालने की कोशिश करते हैं और ‘आइंदा न चूकने’ के बयान देते हैं। और कानून-व्यवस्था तंत्र उन्हें टोकने तक का साहस नहीं रखता! हत्या के प्रयास में उन्हें गिरफ्तार और सजा देने की तो बात ही दूर रही। देश की राजधानी में ईमाम बुखारी केंद्रीय मंत्रियों से लेकर उच्च न्यायालय, यहाँ तक कि पूरे देश को भी धमकियाँ देते रहे हैं। अबू आजमी संसद में खड़े होकर पुनः देश के विभाजन जैसी धमकी दे चुके हैं। अनेक मौलाना और ईमाम भारत को निशाना बनाने वाले विदेशी इस्लामी आतंकवादियों तक की खुली जयकार करते रहे हैं। हमारे ‘अल्पसंख्यक’ नेताओं की भाषा से ही पता चल जाता है कि कौन कितने पानी में है।

यह कोई स्थिर स्थिति भी नहीं। दिनो-दिन इस्लामी दबाव भारतीय सामाजिक-राजनीतिक-कानूनी-शैक्षिक आदि क्षेत्रों में बढ़ रहा है। प्रस्तावित कानून इसी का संकेत है। हमारे अधिकांश नेता, पत्रकार और बुद्धिजीवी अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक का पूरा हाल जानते हैं। पर बोलते कुछ और हैं! एक विचित्र दुरभिसंधि जो मानो पूरे देश को शुतुरमुर्ग बनाने पर तुली है।

फिर भी, कभी-कभी इस्लामी दबाव से अकुलाहट के कारण सच मुँह से निकल जाता है। जुलाई 2003 में केरल के तात्कालीन मुख्यमंत्री और वरिष्ठ कांग्रेस नेता ए. के. एंटोनी, जो स्वयं ईसाई समुदाय से हैं, ने इसे स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त किया था। उन के अनुसार, “केरल में अल्पसंख्यक शक्तिशाली रूप से संगठित हैं। उन्होंने दबाव से बहुत अधिक सुविधाएं और लाभ उठा लिए हैं। राज्य के राजनीतिक, प्रशासनिक स्तर में उनका दबदबा है। यह उचित नहीं है। मुसलमानों को इससे होने वाले हिन्दू असंतोष पर ध्यान देना चाहिए और संयम बरतना चाहिए।” (इंडिया टुडे, 28 जुलाई 2003)।

श्री एंटोनी ने केरल की बात की थी, किंतु पूरे देश में यह ‘अनुचित’ मुस्लिम दबाव महसूस किया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश कुलदीप सिंह ने भी एक बार कहा था, “भारत में सेक्यूलरिज्म को सांप्रदायिकता सहन करने में, उस का बचाव करने में बदल कर रख दिया गया है। अल्पसंख्यकों को समझना होगा कि वे उस संस्कृति, विरासत और इतिहास से नाता नहीं तोड़ सकते, जो हिन्दू जीवन शैली से मिलता-जुलता है।… अल्पसंख्यकवाद को राष्ट्र-विरोध का रूप लेने की अनुमति नहीं दी जा सकती।” इस कथन से स्पष्ट दीखता है कि अल्पसंख्यकवाद राष्ट्र-विरोध का रूप लेता रहा है!

उदाहरणार्थ, मार्च 2006 में अमेरिकी राष्ट्रपति बुश की भारत यात्रा के दौरान यहाँ विभिन्न शहरों में जोरदार प्रदर्शन हुए कि भारत की विदेश नीति अंतर्राष्ट्रीय इस्लामी चाहत के अनुरूप ढाली जाए। माँग इतनी जोरदार थी कि राष्ट्रीय जिम्मेदारियाँ उठाए हमारे कई नेता बुश की पूरी भारत यात्रा के दौरान गायब हो रहे। ऐसे सत्ताधारी नेता भी जिन पर ठीक देश के वैदेशिक संबंधों को सँभलाने की जिम्मेदारी थी! मगर जॉर्ज बुश के साथ उनकी फोटो न आ जाए, इस डर से वे अपनी ड्यूटी छोड़कर अंतर्ध्यान हो गए। यह किस समुदाय से डर था?

ऐसी लज्जाजनक स्थिति भारत में ‘अल्पसंख्यक’ समुदाय के पीड़ित होने या भेदभाव झेलने का संकेत नहीं देती। यह तो एक ऐसी दबंगई का प्रमाण है जिससे सभी डरते हैं। नेता, पत्रकार, व्यापारी, उद्योगपति सभी। चाहे वे लज्जावश इसे स्वीकार न करें, किंतु विदेशी भी यहाँ की सच्चाई समझते हैं। सऊदी अरब के विदेश मंत्री सऊद अल-फैजल ने एक बार स्पष्ट कहा भी कि भारतीय मुसलमान कोई अल्पसंख्यक नहीं हैं, जिन्हें किसी बाहरी मदद की जरूरत हो, और वे स्वयं सशक्त और समर्थ हैं।

सन् 2006 में यहाँ सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लिया कि देश में शरीयत कोर्ट जैसा समानांतर इस्लामी कानून-तंत्र अवैध रूप से फैलाया जा रहा है। इमराना, जरीना, गुड़िया आदि युवतियों पर उलेमा के बेधड़क अत्याचार के संदर्भ में यह बात उठी थी। कोर्ट ने कहा कि व्यवस्थित प्रयास हो रहा है कि शरीयत कोर्टों को पहले चुप-चाप इतना विस्तृत रूप दे दिया जाए कि गंभीर प्रश्न उठने पर कोर्ट और सरकार के पास इस स्थिति को अब ‘हो चुकी घटना’ (fait accompli) मानने के सिवा कोई चारा न रहे। जब सुप्रीम कोर्ट ने इस पर पूछा तो हमारे शासक कुछ स्पष्ट कह नहीं पाए। (सेंट्रल क्रॉनिकल, 28 मार्च 2006)। आए दिन ऐसे समाचार आते हैं जिस में मुस्लिम समुदाय के प्रतिनिधि संविधान या न्यायालयों की खुली उपेक्षा करते हैं – चाहे वह वैयक्तिक विषय हों या सामाजिक, कानून-व्यवस्था का प्रश्न हो या जब-तब धमकाऊ बयानबाजियाँ।

कहीं नहीं प्रतीत होता, कि सैयद शहाबुद्दीन से लेकर ईमाम बुखारी, हाजी याकूब या यह या वह अब्दुल्ला जैसे विभिन्न कद और मिजाज के अल्पसंख्यक न्यायपालिका की भी परवाह करते हों। क्या यह ‘अल्पसंख्यक’ की वही छवि है जो प्रस्तावित सांप्रदायिक कानून में गढ़ी गई है? वास्तविक छवि उलटी है। भारत में मुस्लिम समुदाय की संगठित शक्ति से राजनीतिक दल, न्यायपालिका, मीडिया सभी आशंकित रहते हैं। उचित कार्य से भी कतराते हैं यदि मुस्लिमों के भड़कने का खतरा हो। जबकि हिन्दू धर्म से लेकर हिन्दू संगठनों, नेताओं को भी जब चाहे दो लात लगाने से किसी को रंच मात्र संकोच नहीं होता। अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक के सबंध में यह कड़वा सत्य सभी जानते हैं। उसी तरह व्यवहार भी करते हैं।

किसी बाहरी व्यक्ति को यह अटपटा लग सकता है कि किसी लोकतंत्र में ऐसी विचित्र स्थिति हो। किंतु बात अटपटी है नहीं। हिन्दुओं की धर्म-चेतना व्यक्तिगत और अंतर्मुखी है। उन्होंने कभी अपने को मत-विश्वास पर संगठित नहीं किया, न किसी को मतांतरित करने का कोई उद्देश्य ही रखा। न साम्राज्यवादी विस्तार की सोची। अतः विभिन्न कारणों से हिन्दू अपने-आपको एक समुदाय के रूप में देखते ही नहीं। अधिक से अधिक उनमें कई लोग अपनी जाति भर से जुड़ाव महसूस करते हैं।

इसलिए व्यवहारतः प्रत्येक हिन्दू स्वयं को एक प्रकार अल्पसंख्यक ही समझता है। पूछ कर देखें तो हरेक हिन्दू को कोई न कोई शिकायत ही है। कोई जातिगत दुर्व्यवहार से पीड़ित महसूस करता है, तो कोई आरक्षण से, कोई सत्ता में पर्याप्त भागीदारी न मिलने से, तो कोई विचारधारा के नशे में हिन्दू-धर्म को ही रोज जली-कटी सुनाता है। ऐसी विविध भावनाओं से ग्रस्त हिन्दू नितांत विखंडित हैं। वे बहुसंख्यक के रूप में न महसूस, न व्यवहार करते हैं। इसीलिए सभी राजनीतिक दल ‘अल्पसंख्यक’-मोह से ग्रस्त हैं, क्योंकि उन्हें बहुसंख्यक की दयनीय स्थिति मालूम है।

दूसरी ओर, कथित अल्पसंख्यकों के मजहबी विचार सचेत संगठन, राजनीतिक विस्तार, और इस के लिए छल-प्रपंच तक में विश्वास रखते हैं। यूरोप में चलते ईसाई-मुस्लिम संवाद में उन के प्रतिनिधि कहते भी हैं, कि वे कोई ‘शाकाहारी’ रिलीजन नहीं। कि लड़ने-भिड़ने और सत्ता के लिए टकराने की उन की परंपरा है। यह भाव भारत के अल्पसंख्यक नेताओं में भी है। उन की रणनीतियाँ परिस्थितिवश भले भिन्न हों, किंतु संगठित आक्रामक मुद्रा में रहना उनका स्वभाव है। इसीलिए पोप दिल्ली में खड़े होकर (नवंबर 1999) पूरे भारत को ईसाइयत में धर्मांतरित करने, ‘आत्माओं की फसल’ काटने का खुला आह्वान करते हैं। तो कोई मुस्लिम संसद में खड़े होकर पुनः देश-विभाजन की धमकी देते हैं। और कोई हिन्दू प्रतिक्रिया नहीं होती। क्योंकि हिन्दू कह कर कोई संगठित समूह है ही नहीं!

यह महत्वपूर्ण तथ्य स्वयं हमारी सुप्रीम कोर्ट ने भी नोट किया है। ‘बाल पाटिल तथा अन्य बनाम भारत सरकार’ (2005) मामले में निर्णय देते हुए न्यायाधीशों ने स्पष्ट लिखा, “ ‘हिन्दू’ शब्द से भारत में रहने वाले विभिन्न प्रकार के समुदायों का बोध होता है। यदि आप हिन्दू कहलाने वाला कोई व्यक्ति ढूँढना चाहें तो वह नहीं मिलेगा। वह केवल किसी जाति के आधार पर ही पहचाना जा सकता है। …जातियों पर आधारित होने के कारण हिन्दू समाज स्वयं अनेक अल्पसंख्यक समूहों में विभक्त है। प्रत्येक जाति दूसरे से अलग होने का दावा करती है। जाति-विभक्त भारतीय समाज में लोगों का कोई हिस्सा या समूह बहुसंख्यक होने का दावा नहीं कर सकता। हिन्दुओं में सभी अल्पसंख्यक हैं।”

उक्त निर्णय में 1947 में देश के विभाजन का उल्लेख करते हुए न्यायाधीशों ने कहा कि अंग्रेजों द्वारा धार्मिक आधार पर किसी को अल्पसंख्यक मानने और अलग निर्वाचक मंडल बनाने आदि कदमों से ही अंततः देश के टुकड़े हुए। इसीलिए न्यायाधीशों ने निर्णय में चेतावनी भी दी, “यदि मात्र भिन्न धार्मिक विश्वास या कम संख्या या कम मजबूती, धन, शिक्षा, शक्ति या सामाजिक अधिकारों के आधार पर भारतीय समाज के किसी समूह के ‘अल्पसंख्यक’ होने का दावा स्वीकार किया जाता है, तो भारत जैसे बहु-धार्मिक, बहु-भाषाई समाज में इसका कोई अंत नहीं रहेगा।” न्यायाधीशों ने ‘धार्मिक आधार पर अल्पसंख्यक होने की भावना को प्रोत्साहित करने’ के प्रति विशेष चिंता जताई, जो देश में विभाजनकारी प्रवृत्ति बढ़ा सकती है।

क्या सोनिया जी की निजी ‘राष्ट्रीय सलाहकार परिषद्’ अपने घातक प्रस्तावों से यही काम नहीं कर रही है? अधिकांश राजनीतिक दल भी वही करते हैं। अभी-अभी हुई राष्ट्रीय एकता परिषद् मीटिंग में कइयों ने विधेयक का विरोध किया, किंतु केंद्र-राज्य संबंध विकृत होने के आधार पर। इस के हिन्दू-विरोधी होने की बात शायद ही किसी ने की। क्योंकि भारतीय राजनीति में ‘अल्पसंख्यक’-वाद एक कैंसर सा रोग बन चुका है। देश के संसाधनों पर ‘मुस्लिमों का पहला अधिकार’ जैसी विभेदकारी प्रस्थापनाओं के बाद अब मजहब-आधारित आरक्षण देने की तैयारी चल ही रही है। रामविलास पासवान जैसी हस्ती ने केंद्रीय मंत्री पद से टेलीवीजन पर कहा था, “मैंने अफसरों को कह दिया है कि यदि कोई आवेदन किसी अल्पसंख्यक का है तो उसे तुरत स्वीकृत कर दो। नियम आदि मैं देख लूँगा।”

इसलिए बात यह है कि मुस्लिम समुदाय की विशेष सेवा करने की प्रतियोगिता में विभिन्न नेता और राजनीतिक दल न्याय और नैतिकता ही नहीं, संविधान एवं कानून को भी ताक पर रखने लगे हैं। क्योंकि मुस्लिम समुदाय ही सशक्त समुदाय है। मुस्लिम नेता भी यह बखूबी जानते हैं। प्रस्तावित विधेयक उन की आक्रामक शक्ति कई गुने बढ़ाने वाला है। फिर परिणाम क्या होगा, इस के लिए सुप्रीम कोर्ट का उक्त निर्णय पढ़ लें।

वस्तुतः, सदियों से भारत में हिन्दू ही दबे-कुचले विवशता में जी रहे हैं। आज भी उन क्षेत्रों में तो उन्हें हिंसा, अपमान झेलना ही पड़ता है जहाँ उनकी संख्या कम है। परन्तु पूरे देश में उन के हितों की खुली अनदेखी होती है। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अनुसार भारत में ‘अल्पसंख्यक’ की अवधारणा प्रांतीय आधार पर की जाती है। किंतु जम्मू-कश्मीर या नागालैंड में हिन्दुओं को उजाड़ ही दिया गया, किसी सुविधा की तो बात ही क्या! उसकी तुलना दूसरे अल्पसंख्यकों को मिलने वाली विशेष सुविधाओं से करें। यहाँ किसी भी प्रांत, यानी पूरे देश में, ‘अल्पसंख्यक’ रूपी मुस्लिमों और ईसाइयों को कई ऐसी सुविधाएं और विशेषाधिकार प्राप्त हैं जो हिन्दुओं, कथित बहुसंख्यकों को नहीं हैं। यह स्थिति पूरे विश्व में कहीं नहीं है!

इसलिए कानून तो वह बनना चाहिए तो इस राजनीतिक, कानूनी असंतुलन को दूर करे। बहुसंख्यकों को भी वह अधिकार मिले, जो अल्पसंख्यकों को हैं। जैसे शिक्षा में अपने धर्म-ग्रंथों को शामिल करने, मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने, आदि।

मगर सांप्रदायिक हिंसा रोकने के नाम पर बनने वाला यह प्रस्तावित कानून हिन्दुओं को एक सीढ़ी और नीचे गिराएगा। यह मूर्खतावश हो रहा है या षड्यंत्र-पूर्वक, पता नहीं। किन्तु ऐसा विभेदकारी कानून बनने का परिणाम निस्संदेह अनिष्टकर होगा।

5 COMMENTS

  1. लेखक ने माना है कि-
    “इसलिए व्यवहारतः प्रत्येक हिन्दू स्वयं को एक प्रकार अल्पसंख्यक ही समझता है। पूछ कर देखें तो हरेक हिन्दू को कोई न कोई शिकायत ही है। कोई जातिगत दुर्व्यवहार से पीड़ित महसूस करता है, तो कोई आरक्षण से, कोई सत्ता में पर्याप्त भागीदारी न मिलने से, तो कोई विचारधारा के नशे में हिन्दू-धर्म को ही रोज जली-कटी सुनाता है। ऐसी विविध भावनाओं से ग्रस्त हिन्दू नितांत विखंडित हैं। वे बहुसंख्यक के रूप में न महसूस, न व्यवहार करते हैं। इसीलिए सभी राजनीतिक दल ‘अल्पसंख्यक’-मोह से ग्रस्त हैं, क्योंकि उन्हें बहुसंख्यक की दयनीय स्थिति मालूम है।”
    जब तक इस स्थिति का निवारण नहीं किया जाता हिन्दू नाम से एकता के आह्वान का कोई मतलब नहीं है! अब वह समय नहीं, जबकि हिन्दुओं की इन हालातों के लिए जिम्मेदार लोगों को कोसा जाये या उनको गाली दी जाये! अब तो स्वीकार भाव की जरूरत है! क्योंकि अतीत की गलतियों से सबक लेकर वर्तमान को जीना है और भविष्य को संवारना है!

    हालाँकि लगता नहीं कि उक्त बिल कानून बन पायेगा और ये भी सही है कि हर लेखक का अपना द्रष्टिकोण होता है, लेकिन प्रस्तावित विधेयक में अनुसूचित जाति एवं जन जातियों के बारे में किये गए प्रावधानों पर “चुप्पी” हिंदुत्व की मंसा पर सवाल खड़े करती है, जिसका दूसरे लाभ उठाते हैं! जो परोक्ष रूप से उक्त पेरा में प्रकट हो ही गयी बेहतर होता कि लेखक थोड़ी सी ईमानदारी दिखाने का प्रयास करते!

  2. इस बिल के साथ जारी किये गए स्पष्टीकरण में ये कहा गया है की संविधान की सातवीं अनुसूची की पहली सूचि ( जो संघीय मामलों के बारे में है) के क्रमांक २-ऐ व ९७ में केंद्र सर्कार को इस कानून को बनाने का अधिकार प्राप्त है. लेकिन ये सही नहीं है. क्रमांक २-ऐ में केवल केंद्रीय सुरक्षा बों को तैनात करने के लए कानून बनाना है तथा क्रमांक ९७ में अवशिष्ट मामले आते हैं अर्थात वो मामले जो किसी अन्य सूचि में शामिल नहीं हैं. निर्विवाद रूप से सांप्रदायिक हिंसा का मामला पब्लिक आर्डर अर्थात कानून व व्यवस्था में आता है और ये विषय सूचि दो में राज्यों के अधिकार छेत्र में आता है. लेकिन जिस मंडली में तीस्ता जावेद सीतलवाद जैसे झूठे शपथपत्र देने वाले तथा शाहबुद्दीन जैसे फिरकापरस्त लोग हों उनसे संविधान के सही उल्लेख की आशा बेकार है.वैसे भी कानून बनाने का काम कानून मंत्रालय का है. जबकि य कानून एक गैर संवैधानिक समूह जिसकी मुखिया एक बहुत कम पढ़ी महिला सोनिया मैनो गाँधी हैं,ऐसे नेशनल एड्वायिसरी कोंसिल द्वारा बनाया गया है. बाबासाहेब आंबेडकर द्वारा बनाये गए संविधान का अपमान करके एक गैर संवैधानिक संस्था द्वारा कानून बनाया जाना डॉ. आंबेडकर का अपमान है. यही तर्क कांग्रेसियों द्वारा अन्ना हजारे के जन लोकपाल बिल के बारे में रखा गया था. सभी जागरूक भारतियों, विशेषकर हिन्दुओं को, इस काले कानून का पूरी ताकत के साथ विरोध करना चाहिए.

  3. यही इस देस के हिन्दुओ का भाग्य है जिसे उन्होंने खुद बनाया है किसीने कहा है कलयुग में संगठन ही सबसे बड़ी शक्ति है और कायर हिन्दू कभी संगठित हो सकता है क्या .बड़े दुःख की बात है जो अपने को जागरूक हिन्दू कहते है बे भी छोटे मोटे स्वार्थो की राजनीति करके ही अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते है मै आपकी भावनाओ को समझता हूँ पर किसी बड़े उद्देश्य के लिए बड़े त्याग की अबश्यकता होती है

  4. गंभीररूप से चिंतित करने वाला लेख है, हिन्दू यदि अब भी संगठित नहीं हुए तो उनको मिटने से कोई रोक नहीं पायेगा और ये जितने भी कांग्रेसी या दूसरे दल के हिन्दू लोग मुस्लिम तुष्टीकरण में लगे है, इन्हें सायद पता नहीं की जब हिन्दू मुस्लिम दंगा होता है तो मुस्लिम लोग सेकुलर हिन्दू और कट्टर हिन्दू में भेद नहीं करते उस समय कितना भी बड़ा मुस्लिम प्रेमी हिन्दू उसके सामने आ जाये वो उसे क़त्ल ही करेगा, लेकिन सायद ये कथित सेकुलर हिन्दू लोग जब तक ये बात समझेंगे तब तक बहुत देर हो चुकी होगी.

  5. हजारो साल पहले भी हिन्दुओ से जजिया वसूल किया जाता था आज भी वसूला जा रहा है भारत सरकार द्वारा हिन्दू मंदिरों को सरकारी नियंत्रण में रख कर जजिया वसूलती है भारत में अनगिनत धर्म है किसी अन्य पर क्यों कोई नियंत्रण नहीं हिदू को जजिया देना स्वीकार है अब उसी जजिया को विस्तृत रूप में किया जा रहा है जिससे प्रत्येक हिन्दू ‘
    सांप्रदायिक और लक्षित हिंसा निरोधकविधेयक, २०११ ( जजिया वसूलने का नया कानून ) के तहत जजिया अदा करे

    जजिया के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए लिंक देखे

    https://bhandafodu.blogspot.com/search/label/जजिया

    ’जजियाجزية का अर्थ फिरौती Extortion Money .रंगदारी ,हफ्ता या poll tax है .जो गैर मुस्लिमों से लिया जाता है .और जिन लोगों पर जजिया का नियम लागू होता है उनको “ذِمّي जिम्मी “कहा जाता है .अर्थात सभी गैर मुस्लिम जिम्मी है
    जजिया के बारे में हदीसों और इतिहास में यह लिखा है –

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