पिछले 44 सालों से लोकपाल मुद्दे पर अब तक कोई स्पष्ट रणनीति नहीं बन पाई है। बदलती राजनीति में घोटालों की फेहरिश्त इतनी लम्बी हो चुकी है कि उसे चंद पन्नों में नहीं समेटा जा सकता है। दर असल अन्ना हजारे का आंदोलन देश की राजनीति से नहीं बल्कि अपने चाल,चरित्र, और स्वभाव से विरासत में मिली नौकरशाही और सत्ता पर काबिज उन राजनेताओं के कुव्यवस्था के खिलाफ है जो आम आदमी की बदहाली का मुख्य कारण है । नौकरशाही देश की स्थायी व्यवस्था बन चुकी है जिनके बदौलत ही राजनेताओं का अर्थकोष कभी खाली नहीं रहा ।
बहरहाल, जनलोकपाल बिल की पेशकश को लेकर संसद में जो क्रूर मजाक किया गया उससे देश की जनता को एक गहरा आघात पहुँचा है। इस प्रकरण ने स्पष्ट तौर पर यह सिद्ध कर दिया कि किसी भी राजनीतकि पार्टी में भ्रष्टाचार से लड़ने की ईच्छाशक्ति मर चुकी है। सत्तारूढ़ दल की रणनीति तो पहले से ही संकीर्ण थी पर केन्द्र में सत्ता सुख भोगने की तीव्र छटपटाहट ने भाजपा का भी नया चेहरा उभरकर सबके सामने ला दिया खास कर सी.बी.आई. को लोकपाल के अधीन मामले में जो भविष्य में उनके गले का फाँस बन सकता है। बिहार में भी भले ही सुशासन बाबू विकास की दौड़ में आगे निकलने की जुगत में हो पर भ्रष्टाचार मामले में शिष्टाचार के सिर्फ कशीदे ही पढ़े जा रहे हैं। सभी राजनीतिक दल यह जानते हैं कि जनलोकपाल उनके लिए एक “डेथ_ वारंट” है। भ्रष्टाचार की डाली पर बैठे नेता उसपर कुल्हाड़ी चलाने की भूल कभी नहीं करेंगे।
यह मानवाधिकार आंदोलनों का फर्ज होना चाहिए कि अन्ना का आंदोलन सिर्फ अनशन के भेंट न चढ़े बल्कि संसद में बैठे चंद मुठ्ठी भर लोग जो “भारतीय लोकतंत्र प्राईवेट लिमिटेड कंपनी” चला कर 121 करोड़ लोगों की हकमारी कर अकूत धन अर्जन करने में लगे हैं और विलासी जीवन बिता रहे है उनसे सत्ता की कुर्सी छिन लेनी चाहिए। उन्हे संसद से बाहर खदेड़ने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है । इस लोकतांत्रिक अधिकारो के लिए चुनाव को हथियार बनाना ही होगा और अन्ना की अगुआई में एक नए दल का गठन करना कारगर होगा। अब आम आदमी के सामने एक बड़ी चुनौती यह है कि वह कैसे प्रबुद्ध लोगों को संसद तक पहुँचाए क्योंकि जन समर्थन के अभाव में कोई भी आंदोलन अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकता।
राजनीतिक हालात ने जनता को ऐसे दोराहे पर ला कर खड़ा कर दिया है जहां जनलोकपाल को सुरक्षित सियासी चक्र व्यूह से बाहर निकालना ही होगा अन्यथा इन सियासी रणबांकुरों को जनक्रांति के चक्र व्यूह का सामना करना ही होगा । क्योकि जनता अर्थहीन राजनीति और भ्रष्ट कुव्यवस्था से उब चुकी है।
मैंने एक अन्य लेख के सन्दर्भ में एक टिप्पणी की थी,मैं समझता हूँ कि उसकी पुनरावृति यहाँ ठीक रहेगी.
“मैं जानता हूँ कि केवल भ्रष्टाचार के मुद्दे पर चुनाव लड़ना उतना आसान नहीं है,पर आपात काल के पहले का आन्दोलन और १९७७ के चुनाव और उससे भी बढ़कर जनता पार्टी के विघटन के ठीक नौ वर्ष बाद यानि १९८९ में राजीव गाँधी को केवल एक मुद्दे पर हरा देना,इस बात का प्रमाण है कि भ्रष्टाचार का विरोध करने वालों का जनता बहुत सम्मान करती है,पर कौन कहता है कि ये लोग केवल भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाएं?उनके पास तो बना बनाया घोषणा पत्र है,जिसकी एक झलक प्रवक्ता के पन्नों पर मौजूद है.उस झलक में उनको कुछ सुझाव भी दिए गए हैं.मैं समझता हूँ कि उस घोषणा पत्र में मेरे द्वारा सुझाये गए बातों को भी सम्माहित कर लेँ तो उनका जीतना आसान हो जाएगा.संक्षेप में उन्हें केवल तीन सलोगन अख्त्यार करने हैं.
१.जन लोक पाल और भ्रष्टाचार का उन्मूलन.
२.भारत के प्रत्येक घर और प्रत्येक छोटे बड़े उद्योग को वहन करने योग्य मूल्य पर बिजली.
३.हर हाथ को काम और हर पेट को रोटी.”
इस पर किसी भी आगे की बहस के लिए मैं तैयार हूँ