सिद्धार्थ मिश्र ”स्वतंत्र”
लोकतंत्र का महापर्व एक बार दोबारा हमारे दरवाजे पर दस्तक दे रहा है । आगामी लोकसभा चुनाव २०१४ विगत चुनावों से कई मायनों में महत्वपूर्ण है,क्योंकि इन चुनावों में राष्ट्रद्रोही एवं राष्ट्रवादी विचारधाराएं खुलकर एक दूसरे के सामने आ गयी हैं । अपने दांव खेलने में कोई भी दल इस बार दुविधाग्रस्त नहीं दिख रहा है । अवसरवाद की हद तो तब हो गयी जब संकीर्ण मानसिकता ग्रस्त गणनायक वोटबैंक की राजनीति करते करते आतंकियों के हिमायती बन बैठे । मजाक की बात तो ये है कि इस देश में शहीदों को सम्मान भले ही न मिले लेकिन आतंकियों की पैरवी की नयी परंपरा का सूत्रपात हो गया है । इन आधारों पर देखें तो ये चुनाव वाकई महत्वपूर्ण हैं । इन चुनावों के माध्यम से जनसामान्य के समक्ष सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न हैं –
१. क्या हम एक राष्ट्र के रूप में एकजुट हो पाएंगे ?
२. क्या हम सदियों की मानसिक दासता से मुक्त हो पाएंगे ?
३. क्या हम जाति-धर्म के संकीर्ण चश्मे से निजात पा सकेंगे ?
४. क्या राष्ट्रद्रोहियों के समूल नाश को एकजुट होने में सक्षम हो गये हैं हम ?
इनके अतिरिक्त भी कई प्रश्न हैं,जिन पर आम जन के बीच गहन आत्म मंथन चल रहा है । जहां तक परिणामों का प्रश्न है तो आने वाले भविष्य के गर्भ में है ।
एक देशज कहावत है,ज्यादा जोगी मठ उजाड़ । यदि भारतीय लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्यों में इस कहावत के अर्थ को समझने का प्रयास करें तो पाएंगे, कि वास्तव में भारतीय लोकतंत्र के मठ के उजड़ने का कारण ये तथाकथित जोगी हैं । स्मरण रहे कि ये वो जोगी हैं जो सत्ता सुख हासिल करने के लिए किसी भी श्रेणी तक गिर सकते हैं । या यूं कहें कि हमारा लोकतंत्र आज बहुदलीय राजनीति की विषमाताओं से पतन की ओर अग्रसर हो रहा है । सेक्यूलरिज्म और तुष्टिकरण के नाम पर क्षुद्र स्वार्थों की जंग आज खुलकर सामने आ गयी है । ज्ञात हो कि इस अद्भुत गठबंधन की कमान कांग्रेस के हाथों में है,जिसके नेतृत्व में छुटभैये ताल ठोंक रहे है । हांलाकि इन अवसरवादी छुटभैयों के मनसूबे कुछ और भी हैं । ये मंसूबे प्रधानमंत्री की कुर्सी की कामना भी हो सकती है,और मलाईदार मंत्रीपद के साथ गठबंधन भी हो सकते हैं । ज्ञात हो कि क्षेत्रिय दलों की नीति सदैव से मोलभाव की रही है । इस मोलभाव के बीच राष्ट्र और राष्ट्रवाद जैसी बातों का कोई अर्थ नहीं होता । इस बात को यूं सपा-बसपा के पैतरों से समझा जा सकता है । जुबानी जंग में कांग्रेस का हरसंभव विरोध करने वाले ये दल ही बाहर से समर्थन देकर संप्रग सरकार को बचाये रखने में मुख्य भूमिका निभा रहे हैं । इन सबके पीछे कुछ मजबूरियां भी हो सकती है,इस मजबूरी का नाम है सीबीआई । कौन भूल सकता है अन्नाद्रमुक द्वारा समर्थन वापस लेने के तत्काल बाद पड़े सीबीआई छापों को ।
बीते सप्ताह में घटी घटनाओं ने कहीं न कहीं लोकतंत्र को शर्मसार कर दिया है । समाचारपत्रों में प्रकाशित खबरों के अनुसार देश के ६५ सांसदों ने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को पत्र लिखकर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को वीजा न देने की अपील की है । कारण वही पुराना गोधरा कांड । सामान्य सी लगने वाली इस घटना के कई असामान्य निहीतार्थ हैं । ये घटना हमें मोदी विरोध के निकृष्टतम स्तर का एहसास दिलाती है । क्या हमारे घरेलु विवादों का निपटारा अब अमेरिका करेगा? क्या ये एक संप्रभु राष्ट्र के लिए दुख का विषय नहीं है ? क्या ये हमारी न्यायपालिका का अपमान नहीं है ? क्या ये हमारी संविधान की अवमानना नहीं है ? यदि है तो इन दोषियों के विरूद्ध क्या कार्रवाई की जाएगी । स्मरण रहे कि नरेंद्र मोदी लोकतांत्रिक प्रक्रिया से जनता के मतों से गुजरात के मुख्यमंत्री बने हैं । जहां तक गोधरा मामलों का प्रश्न है तो इस मामले में न्यायालय ने उन्हे दोषी नहीं पाया है । यदि बावजूद इसके उन्हे दोषी ठहराया जाता है तो उत्तर प्रदेश दंगों के मामलों में अखिलेश यादव,असम दंगों में वहां के मुख्यमंत्री, हैदराबाद में हुए दंगों में वहां के मुख्यमंत्री भी दोषी माने जाएं । यदि नहीं तो ये दोहरा मापदंड क्या दर्शाता है ? हैरत की बात है हमारे देश में मुस्लिम चरमपंथियों को जम्मू-कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक खुला संरक्षण देने वाले क्षुद्र नेता अब शहादत पर भी राजनीति करने को आमादा हैं । हाल ही में अपने एक निर्णय में दिल्ली न्यायालय ने बाटला हाउस एनकाउंटर को जायज ठहराते हुए इंस्पेक्टर शर्मा को शहीद कहा है । ऐसे में दिग्विजय सिंह द्वारा इस घटना को फर्जी ठहराना क्या राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में नहीं आता ? यदि आता है तो उनके लिए कौन सी सजा का प्रावधान होना चाहीए ? उनका ये सतही बयान क्या आतंकियों की पैरवी प्रदर्शित नहीं करता ? या कुछ दिनों पूर्व एक कांग्रेसी प्रवक्ता द्वारा एक कुख्यात आतंकी समूह की वकालत राष्ट्रद्रोही कृत्य नहीं है ? अनेकों प्रश्न है जिनका निर्णय अब भी होना शेष है । हां अपने क्षुद्र नेताओं के तुच्छ बयानों से सियासी सड़ांध एक बार दोबारा सतह पर आ गयी है ?
जो गला फाड फाड़ कर चिल्ला रहे हैं, वो तो गोधरा को
जान बूझ कर भूल जाते हैं. यदि वह निर्मम कांड जिसमे ५९ कर
सेवकों को मुस्लिम दंगाइयों ने जिन्दा जल दिया, उसे तो
लालू जैसे लोगों ने झुठलाने की कोशिश की. फिर भी कम से कम
३१ लोगों को सजा हुई, और १० को प्राण दंड मिला.
मुझे विश्वास है की यदि गोधरा कांड न हुआ होता तो गुजरात
में भयानक दंगे न होते. उस दंगों में काफी हिन्दू भी मरे, पर
उसका कोई ज़िक्र नहीं किया जाता है.