विदेशों में जमा काला धन बनाम राजनैतिक हथकंडे

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तनवीर जाफ़री

भारतवर्ष दुनिया की नज़रों में निश्चित रूप से 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र एवं स्वाधीन हो गया। स्वतंत्रता के पश्चात राष्ट्र हितैषी नेताओं,अधिकारियों तथा देशभक्तों के समक्ष जहां उस समय इस विशाल राष्ट्र को आत्मनिर्भर बनाए जाने जैसी विशाल चुनौती थी वहीं इसी के समानांतर हमारे ही देश में वह शक्तियां भी साथ-साथ सक्रिय हो उठीं जिन्हें देश के विकास या देश की आम व गरीब जनता की आत्मनिर्भरता से अलग इस बात की िफक्र थी कि वे स्वयं किस प्रकार कम से कम समय में अधिक धन संपत्ति का संग्रह कर सकें। और ऐसी राष्ट्रविरोधी कही जा सकने वाली शक्तियों ने आज़ादी के तत्काल बाद से ही देश को लूटना व बेेचना शुरु कर दिया। आज जहां देशवासी 1947 के बाद व उससे पहले की स्वतंत्रता से जुड़ी तमाम घटनाओं से वािकफ हैं वहीं यही लोग उसी समय से यह भी भलीभांति जानते व सुनते आ रहे हैं कि देश के तमाम भ्रष्ट नेता,अधिकारी,व्यापारी तथा जमाखोरों व काला धन संग्रह करने वालों का पैसा स्विटज़रलैंड में अथवा स्विस बैंक में जमा है। अब धीरे-धीरे आम लोगों को मीडिया के माध्यम से ही यह भी पता चलने लगा है कि चूंकि स्विस बैंक की ही तरह खाता संबंधी पूर्ण गोपनीयता बरतने का काम और भी कई पश्चिमी देशों के कई बैंकों में किया जा रहा है लिहाज़ा ऐसा काला धन केवल स्विस बैंक में ही नहीं बल्कि और भी कई विदेशी बैंकों में जमा है।

भारतीय अर्थव्यवस्था, यहां व्याप्त गरीबी व बेरोज़गारी,भारतीय कायदे-कानून तथा अपनी ज़रूरत के लिए विदेशी बैंकों से समय-समय पर कर्ज लेते रहने जैसे हालात नि:संदेह किसी भी भारतीय नागरिक को इस बात की इजाज़त नहीं देते कि वह अपने धन को भारत के बैंकों में जमा करने के बजाए विदेशी बैंकों में जाकर जमा करे। और वह भी केवल इसलिए कि उसका धन नाजायज़ व गलत तरीकों से इकट्ठा किया गया धन है जिसे वह दुनिया की नज़रों से सिर्फ इसलिए छुपा कर रखना चाहते हैं कि एक तो उसका धन सुरक्षित रह सके दूसरे यह कि वह भारतीय वित्तीय कानूनों से बचा रह सके और तीसरी बात यह कि वह स्वयं को बदनामी से बचाए रख सके। देखा भी यही जा रहा है कि पश्चिमी देशों के काला धन जमा करने वाले इन बैंकों में गोपनीयता बरकरार रखने के इस कद्र ऊंचे पैमाने निर्धारित किए गए हैं कि कम से कम अभी तक तो स्पष्ट रूप से किसी भी खातेदार का नाम व उसकी कुल जमाराशी का खुलासा होते िफलहाल तो नहीं सुना गया। हां कल को यदि विकीलीक्स जैसी वेबसाईट अथवा उस जैसी किसी अन्य खोजी पत्रकारिता के चलते कुछ नाम उजागर हो जाएं तो अलग बात है। ऐसे बैंक ‘काला धन शब्द को भी अपने तरीके से परिभाषित करते हैं। परंतु भारतवर्ष में विगत् कुछ महीनों से विदेशी बैंकों में जमा काले धन का मुद्दा इस कद्र गरमाया हुआ है कि गोया ऐसा प्रतीत होने लगा है कि इस विषय पर शोरगुल करने व हंगामा बरपा करने वालों को इस बात का पता चल चुका हो कि किस व्यक्ति का कितना धन किस देश के किस बैंक में जमा है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत जैसे देश के आर्थिक हालात कतई ऐसे नहीं कि देश इस प्रकार के नकारात्मक आर्थिक वातावरण का सामना कर सके। निश्चित रूप से भारत सरकार को इस विषय पर पूरी गंभीरता से काम करना चाहिए तथा विदेशों में जमा भारतीय काला धन यथाशीघ्र अपने देश में वापस लाने के प्रयास करने चाहिए। इतना ही नहीं बल्कि ऐसे गैर कानूनी कामों में लिप्त लोगों को चाहे वह कितनी ही ऊंची हैसियत रखने वाले व्यक्ति क्यों न हों उन्हें कानून के अनुसार सकत सज़ा भी दी जानी चाहिए। ऐसे लोगों के नाम भी यथाशीघ्र उजागर किए जाने चाहिए ताकि देश की जनता यह समझ सके कि नेता, अभिनेता, अधिकारी, समाजसेवी या धर्मगुरु अथवा व्यापारी के रूप में दिखाई देने वाला यह व्यक्ति वास्तव में वह नहीं है जो दिखाई दे रहा है बल्कि साधु के भेष में शैतान नज़र आने वाला यह व्यक्ति देश का सबसे बड़ा दुश्मन है। अवैध धन की जमाखोरी करने वाले यही वह लोग हैं जिनके कारण भारतवर्ष को गरीब देश कहा जाने लगा है।

परंतु विदेशों में जमा काले धन के मुद्दे को लेकर भारत में मची हाय-तौबा की आड़ में तमाम भारतीय नेता व राजनैतिक दल तथा राजनीति में पदापर्ण की नई-नई इच्छा पालने वाले तमाम नए चेहरे इस विषय पर कुछ इतने अधिक तर्क व दलीलें पेश कर रहे हैं तथा एक-दूसरे पर आरोप व प्रत्यारोप करने की कोशिश कर रहे हैं जिससे कि न केवल काला धन विदेशों से वापस लाने जैसा गंभीर मुद्दा अपने मु य विषय से भटकता दिखाई देने लगा है बल्कि यह भी साफ ज़ाहिर होने लगा है कि इस मुद्दे को लेकर किए जाने वाले शोर-शराबे का मकसद वास्तव में विदेशों से काले धन की वापसी का कम बल्कि राजनैतिक रूप से व्यक्ति विशेष या दल विशेष को बदनाम करना अधिक है। संभवत: ऐसे लोग यह भलीभांति जानते हैं कि देश की साधारण जनता व आम मतदाता इस प्रकार की अफवाहों पर जल्दी विश्वास कर लेते हैं तथा इनके पीछे भागने लग जाते हैं। वैसे भी 1986-1987 के मध्य का वह दौर राजनीतिज्ञों के लिए एक उदाहरण बन चुका है जबकि स्वीडन की बोफोर्स तोप सौदे में कथित रूप से ली गई दलाली के मुद्दे पर केंद्र की तत्कालीन राजीव गांधी सरकार की चूलें हिल गई थीं। आरोप जडऩे में तथा दूसरों को बदनाम करने में महारत रखने वाले तत्कालीन महारथियों ने राजीव गांधी, अमिताभ बच्चन,अजिताभ बच्चन सहित कई लोगों को अपने अनर्गल आरोपों के घेरे में ले लिया था। परिणाम स्वरूप कांग्रेस को सत्ता से हाथ धोना पड़ा था और भारत में गठबंधन सरकार का दौर उसी दुर्भाग्यशाली समय से ही शुरु हुआ।

लगता है कि आगामी संसदीय चुनावों से पूर्व एक बार फिर परोपेगंडा महारथियों द्वारा देश में वैसे ही हालात पैदा करने की कोशिश की जा रही है। मुख्‍य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी बार-बार न केवल केंद्र सरकार पर यह आरोप लगा रही है कि वह काला धन मुद्दे पर कोई कार्रवाई नहीं करना चाह रही है। बल्कि भाजपा ने इस विषय में छानबीन करने के लिए एक टॉस्क फोर्स का गठन भी किया है। भाजपा की इस टॉस्क फोर्स ने यह दावा किया था कि पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी तथा कांग्रेस अध्यक्ष तथा यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी स्वयं विदेशों में काला धन जमा करने जैसे गंभीर व गैर कानूनी मामलों में लिप्त हैं तथा उनके कई विदेशी बैंकों में अपने खाते हैं। भाजपा की यह टॉस्क फोर्स यह पता करने का काम कर रही है कि किन-किन लोगों का किन-किन देशों के किन-किन बैंकों में कितना-कितना धन जमा है। इस सिलसिले में अपना तथा स्वर्गीय राजीव गांधी का नाम लिए जाने पर स्वयं सोनिया गांधी ने भाजपा नेता लाल कृष्ण अडवाणी को पत्र लिखा तथा अपने व अपने परिवार के ऊपर भाजपाईयों द्वारा लगाए जाने वाले इन आरोपों पर कड़ी आपत्ति जताई। सोनिया ने आडवाणी को लिखे पत्र में स्पष्ट रूप से दो टूक शब्दों में यह लिखा कि किसी भी विदेशी बैंक में उनका कोई खाता नहीं है। सोनिया गांधी के इस पत्र के जवाब में अडवाणी ने भी शिष्टाचार का परिचय देते हुए सोनिया गांधी को जवाबी पत्र लिखकर इस बात के लिए खेद जताया कि इस मामले में आपके परिवार का जि़क्र किया गया इसके लिए मुझे खेद है। अडवाणी ने यह भी लिखा कि गांधी परिवार की ओर से इस तरह की सफाई पहले दी गई होती तो अच्छा रहता।

अडवाणी द्वारा सोनिया गांधी से माफी मांगना या भाजपा द्वारा सोनिया गांधी के विरुद्ध किए गए दुष्प्रचार के लिए खेद जताना तो निश्चित रूप से एक शिष्टराजनीति का एक हिस्सा माना जा सकता है। शीर्ष नेताओं के बीच इस प्रकार की वार्ताओं,पत्रों व टेलीफोन पर होने वाली वार्ताओं की बातें कभी-कभी प्रकाश में आती रहती हैं। परंतु बिना किसी ठोस प्रमाण के बिना किसी आधार या सूचना के इस प्रकार सोनिया गांधी,स्व० राजीव गांधी या किसी भी अन्य व्यक्ति को दुष्प्रचारित करना यह आिखर कहां की नैतिकता है और इसे किस प्रकार की राजनीति कहा जाना चहिए? सोनिया गांधी या मनमोहन सिंह कोई भी यदि कुसूरवार हों अथवा उनके विरुद्ध कोई ठोस प्रमाण हों तब अवश्य उन्हें आलोचना का निशाना बनाया जा सकता है व उनके विरुद्ध कानूनी कार्रवाई भी की जा सकती है। परंतु देश की जनता को बेवजह गुमराह करना, देश के जि़ममेदार राजनैतिक नेताओं पर लांछन लगाकर खुद अपने व अपने दल के नेताओं पर लगे काले धब्बों को छुपाने का प्रयास करना सरासर अनैतिक है। इस प्रकार के बेबुनियाद शोरशराबे व आरोप-प्रत्यारोप की प्रवृति से साफ़ ज़ाहिर होता है कि विपक्ष किसी भी प्रकार के सच्चे या झूठे हथकंडों का प्रयोग कर कांग्रेस पार्टी विशेषकर सोनिया गांधी परिवार को बदनाम करने पर तुला है ताकि गांधी परिवार पर काला धन संग्रह व भ्रष्टाचार में इनकी संलिप्तता जैसा आरोप लगाने व इन्हें बदनाम करने के बाद कांग्रेस पार्टी आसानी से कमज़ोर हो जाएगी। नतीजन विपक्ष के लिए सत्ता तक पहुंचने की राह आसान हो जाएगी। शायद ठीक उसी तरह जैसे कि 1987 में बोफोर्स को लेकर हुए शोरशराबे के परिणामस्वरूप कांग्रेस पार्टी सत्ता से बाहर हो गई थी और देश में राष्ट्रीयमोर्चा की सरकार का गठन संभव हो सका था।

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