नये राष्ट्रअध्यक्ष की तलाश में जुटे देश के राजनेता

शादाब जफर ‘‘शादाब’’

इस साल जुलाई में राष्ट्रपति व सन् 2014 में देश में लोकसभा चुनाव होने है। मायावती ने जिस प्रकार से उत्तर प्रदेश में अपनी पार्टी की हार के लिये मुसलमानो को जिम्मेदार ठहराते हुए बयान दिया कि मुसलमानो के एक तरफ जाने के कारण उन की पार्टी हारी, वही देश के पांच राज्यो में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी के खराब प्रदर्शन ने भी ये साबित कर दिया कि मुसलमान देश की राजनीति में एक अहम मुकाम रखता है। देश के राजनीतिक दलो और राजनेताओ को ये अच्छी तरह मालुम है कि हर एक राजनीतिक पार्टी के लिये उत्तर प्रदेश ही लोकसभा का प्रवेश द्वार है। मुसलमान को नजर अंदाज कर के कोई भी राजनीतिक दल लोकसभा अथवा विधानसभा के अंदर जाने की बात तो बहुत दूर की है करीब तक भी नही पहॅुच सकता। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में जिस प्रकार से मुस्लिम फैक्टर चला क्या जुलाई में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में भी इसी प्रकार मुस्लिम फैक्टर चलेगा?। यदि इस बात को सही मान ले तो देश को अगला राष्ट्रपति यकीनन मुसलमान ही मिलना चाहिये।

पिछले दिनो देश के राजनीतिक गलियारो में ये चर्च बहुत जोर पकड रही थी कि कांग्रेस का प्रदर्शन देश के पॉच राज्यो में होने वाले विधानसभा चुनावो में जबरदस्त रहेगा, और काग्रेस इन चुनावो के बाद देश में ताकतवर राजनीतिक पार्टी के रूप में एक बार फिर उभर कर आयेगी किन्तु चुनाव नतीजे आने के बाद कांग्रेस और राहुल फैक्टर जिस प्रकार फेल हुआ उस कि कॉंग्रेस पार्टी और खुद सोनिया को जरा भी उम्मीद नही थी, जिस के चलते अब राष्ट्रपति चुनाव में पार्टी की अपनी पसंद के उम्मीदवार को इस पद पर पहुंचाने की संभावना पर एक सवाल खड़ा हो गया है। इस सब के बावजूद हो सकता है कि यूपीए अध्यक्ष सोनिया गॉधी अपनी आदत के अनुसार कोई चौकाने वाला नाम राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में पेश कर दे, जिस प्रकार उन्होने पिछली बार राष्ट्रपति स्तर पर राजनीति से अंजान एक नाम, राजस्थान की राज्यपाल प्रतिभादेवी सिॅह पाटिल जी का पेश कर देशा के राजनीतिक गलियारे में उथल पुथल मचा दी थी। परन्तु अब यूपीए की हालत ऐसी नही है कि वो अपनी मर्जी से खुलकर राष्ट्रपति चुनाव लड़े। अब सत्तारूढ़ यूपीए गठबंधन को एक ऐसे उम्मीदवार की तलाष करनी होगी जिस के नाम पर आम सहमति बन जाये। वर्ष 2007 में तो प्रतिभा पाटिल जी के नाम पर यूपीए में षामिल दलों की ओर से पूरा समर्थन था और कांग्रेस पार्टी ने अपनी उम्माीदवार प्रतिभा पाटिल को जितवा लिया था, क्यो कि यूपीए को प्रतिभा पाटिल के नाम पर वामदलो की ओर से भी पूरा समर्थन प्राप्त था। लेकिन इस बार मुकाबला ठना तो वह एक तरफा होना वाला नही होगा क्योकि इस बार उस के सहयोगियो में टीएमसी जैसे दल भी है जिनका अनेक मुद्दो पर कांग्रेस से मतभेद रहता है। वही कांग्रेस को इस समय लोकसभा और राज्यसभा में कही भी बहुमत प्राप्त नही है और राष्ट्रपति के चुनाव में भाग लेने वाले लोगो में कांग्रेस की हिस्सेदारी 30 प्रतिशत होने का अनुमान है। जिस कारण इस बार राष्ट्रपति चुनाव में उसे अपने सहयोगियो पर ही निर्भर रहना होगा और बाहर से उसे समर्थन देने वाले दलो का भी उसे समर्थन चाहिये होगा। संसद के दोनो सदनो में इस वक्त कांग्रेस के 275 सदस्य है। यूपीए को बाहर से समर्थन करने वाली सपा के उत्तर प्रदेश में शानदार प्रदर्शन कर बहुमत पाने के बाद उसके साथ इस विषय पर अपने पक्ष में बातचीत के लिये कांग्रेस शायद हिम्मत न जुटा पाये।

ऐसे में वर्तमान में देश के उपराष्ट्रपति पद पर आसीन मोहम्मद हामिद अंसारी ही कांग्रेस सहित देश के अगले राष्ट्रपति के लिये सभी राजनीतिक पार्टियो की पहली पसंद बन सकते है। दूसरी ओर केंद्रीय वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी जी एक बार फिर से इस पद के लिये सशक्त दावेदारो में से एक है। उन का नाम इस पद के लिये 2007 में भी आया था लेकिन राष्ट्रपति बनाये जाने के मुकाबले कांग्रेस ने उस समय अपनी कैबिनेट के लिये इन्हे ज्यादा उपयोगी समझा था। ये ही कारण था कि कांग्रेस अपने इस संकट मोचक प्रधान को छोडने के लिये तैयार ही नही हुई। भारतीय राजनीति में अपनी साफ सुथरी छवि और अनुभव के कारण अपने विरोधियो पर हमेशा इक्कीस रहने वाले 76 वर्षीय मुखर्जी के लिये राष्ट्रपति का पद और राष्ट्रपति भवन उन के चार दशक से भी ज्यादा समय के सियासी सफर का बेहतरीन पड़ाव हो सकता हैं। पर जिस प्रकार आज भारतीय राजनीति मुसलमानो के इर्द गिर्द धूम रही है और हर पार्टी आगामी 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव के लिये कोई बडा मुद्दा तलाशने के साथ साथ मुस्लिमो को रिझाने के लिये ऐडी चोटी का जोर लगा रही है उसे देखते हुए श्री मुखर्जी की दावेदारी कमजोर नज़र आने लगी है। ऐसे में मोहम्मद हामिद अंसारी की दावेदारी और संभावना अच्छी नजर आ रही है। 1 अप्रैल 1937 को कोलकाता में जन्मे श्री अंसारी वर्तमान में देश के उपराष्ट्रपति होने के साथ ही एक पेशेवर कूटनीतिक और योग्य राजनयिक विद्वान है तो दूसरी ओर गैर राजनैतिक और मुस्लिम होने के नाते वे एक सर्वसम्मत राष्ट्रपति पद के लिये सब से उपयुक्त उम्मीदवार के तौर पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकते है।

उत्तर प्रदेश सहित देश में अपनी राजनीतिक साख कायम करने के लिये एक बार फिर से भाजपा देश के पूर्व राष्ट्रपति मिसाईल मेन एपीजे अबुल कलाम का नाम इस बार फिर से राष्ट्रपति पद के लिये पेश कर सकती है। क्यो कि भाजपा की उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावो में जो दुर्गति हुई उस को देखते हुए लगता है कि राष्ट्रपति पद के लिये वो मुस्लिम कार्ड खेल कर कुछ हद तक मुसलमानो को रिझाने के साथ ही मुस्लिम राष्ट्रपति पद को एक नया मुद्दा आगामी लोकसभा चुनाव 2014 के लिये बना सकती है। इस बार राष्ट्रपति पद के लिये एक और मुस्लिम नाम आ सकता है जिसे समाजवादी पार्टी अगर पेश कर दे तो कोई ताज्जुब की बात नही। यदि हा मिलती है तो देश के पहली पसंद बन सकते है। राष्ट्रपति पद के लिये यूपीए के एक और सनसनीखेज मुख्य चुनाव आयुक्त एस.वाई. कुरैषी समाजवादी पार्टी की ओर से राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार शिवराज पाटिल हो सकते है, सोनिया के प्रति अपनी अगाध निष्ठा रखने वाले पाटिल को हो सकता है कांग्रेस 340 कमरो वाले राष्ट्रपति भवन में उन की निष्ठा के बदले एक दौर गुजारने का ईनाम दे दे। इत्तेफाक से कांग्रेस ने 2007 में प्रतिभादेवी सिॅह पाटिल को जब राष्ट्रपति पद का अपना उम्मीदवार बनाया था उस वक्त वो जयपुर के राज भवन में थी और इस वक्त शिवराज पाटिल भी जयपुर के राज भवन पर काबिज है। इस सब के बावजूद इस बार राष्ट्रपति चुनाव काफी हद तक कुछ सियासी समीकरणो और गठजोडों पर निर्भर रह सकता है। क्यो कि पिछली बार जब राष्ट्रपति चुनाव हुआ था तब बसपा सुप्रीमो मायावती ने यूपीए उम्मीदवार का समर्थन किया था, लेकिन इस बार मायावती और कांग्रेस में छत्तीस का आकंड़ा है। पिछले दिनो लोकसभा में लोकपाल बिल पर कांग्रेस के खिलाफ मतदान करने वाली मायावती राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार के समर्थन में मतदान करे बहुत मुष्किल है।

अब देखना ये है कि इस बार राष्ट्रपति पद के चुनाव का ऊॅट किस करवट बैठता है। लेकिन ये तो तय है कि अगले राष्ट्रपति के रूप में मुस्लिम राष्ट्रपति ही देश को मिलने वाला है। पिछली बार भी जयलतिता की अन्ना द्रमुक, समाजवादी पार्टी और टीडीपी ने एपीजे अबुल कलाम को अपना उम्मीदवार बनाने की कोशिश की थी, लेकिन चुनाव जीतने के प्रति भरोसा न होने के कारण कलाम दोबारा से राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ने के लिये राजी नही हुए थें। देखते है इस बार देश के राजनीतिक दल किस प्रकार गठजोंड़ बनाते है मुस्लिमो को खुश करने और देश को मुस्लिम राष्ट्रपति देने के लियें।