अतुल तारे
आज सुबह-सुबह दो समाचारों ने ध्यान आकर्षित किया। लिखना जरूरी नहीं विषय चुनावी नतीजों को लेकर ही थे। एस समाचार व्हाट्सअप पर पोस्ट में पढ़ा, दूसरा समाचार पत्रों में देखा। व्हाट्सअप की पोस्ट वस्तुत: एक अखबार की कतरन ही थी। मुंबई से प्रकाशित एक मराठी दैनिक में समाचार आलेख के स्वरूप में प्रकाशित हुआ है। शीर्षक था-” असम मध्ये कमल फुलवण्यात मराठी माणसांचे हाथ।” अर्थात असम में कमल खिलाने का श्रेय मराठीजनों को। आलेख में कई ज्येष्ठ एवं श्रेष्ठ कार्यकर्ताओं के नाम है। ये सभी कार्यकर्ता जिनमें से कई प्रचारक भी थे या हैं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से सम्बद्ध हैं। इनमें एक नाम था हरिभाऊ मिराजदार। मिराजदार वरिष्ठ कार्यकर्ता हैं। राष्ट्रीय संवाद एजेंसी हिन्दुस्तान समाचार के अध्यक्ष श्री मिराजदार से जब मैंने सहज ही नाम देखकर बात की तो वे बेहद असहज नजर आए। उन्होंने कहा कि असम में पूर्चांचल में राष्ट्रीय विचारों की स्थापना के लिए स्वयं को गलाने वालों में, खपाने वालों में संघ के ज्येष्ठ प्रचारक स्व. श्रीयुत श्रीकांत जोशी, मधु लिमये जी आदि का योगदान है, हमारा तो नाममात्र का भी नहीं है। नाम तो वे भी अपना वर्तमान पत्र में आज इस स्वरूप में देखना नहीं चाहते, फिर ऐसे में हमारे नाम इस संदर्भ में प्रयोग करना अनुचित है, अवांछनीय है। यह कहते हुए उनकी आवाज बता रही थी कि गला रूंधने लगा है आंखों में पानी है।
“यही जिक्र कल प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने अपने ट्वीट में किया है। वे कह रहे हैं आज का यह दिन यूं ही नहीं आया। इसमें दशकों का परिश्रम है, एक-एक ईंट का योगदान है। और यही सच है।”
अब आते हैं, दूसरे समाचार पर। शीर्षक है भाजपा को दूसरा प्रशांत किशोर मिल गया। यह प्रशांत है हार्वर्ड के रजत। रजत सेठी। टेलीविजन चैनल बता रहे हैं कि किस प्रकार रजत सेठी ने असम के चुनाव का प्रबंधन किया। बेशक रजत सेठी योग्य हैं। आयआयटियन हैं। संभव है वे प्रशांत किशोर से भी दो कदम आगे हो। पर प्रशांत किशोर ने केन्द्र में चुनाव जितवाया। फिर बिहार में नीतीश को मुख्यमंत्री बनाया और अब वे उत्तरप्रदेश में कांग्रेस में जान फूंक रहे हैं। आखिर क्या तमाशा है? रजत सेठी युवा हैं, योग्य हैं, अच्छे राणनीतिकार हो सकते हैं। पर असम की जीत का सेहरा उनके सिर पर बांधने का नियोजित प्रायोजित प्रयास लाखों-लाखों कार्यकर्ताओं का जो बिना किसी लोभ-लालच के दशकों से किसी भी राजनीतिक दल के विचार के लिए मैदान मे डटे रहते हैं, बूथ पर संघर्ष करते हैं, उनका न केवल सरासर घोर अपमान है, अपितु यह प्रयोग स्वस्थ लोकतंत्र के लिए बेहद घातक है। राजीनीति को इंवेट समझने वाली युवा पीढ़ी के नए राजनेताओं को यह समझना होगा कि बेशक वे सूचना क्रांति के युग में तकनीक का बेहतर प्रयोग करें पर उन्हें नायक का दर्जा न दें या और जो दे रहे हैं उन्हें चेताएं।
राजनीति देश सेवा का एक संवेदनशील मंच है। एक ऐसा मंच, जिसमें जो मंचासीन हैं वह तो महत्वपूर्ण है ही पर जो नेपथ्य में है वह भी कम महत्वपूर्ण नहीं। किसी भी राजनीतिक दल की जय पराजय के पीछे उस दल के विचार, कार्यपद्धति, प्रदर्शन जनहित में उसके सरोकार, प्रत्याशी का अपना चेहरा, स्थानीय जातीय गणित सहित कई कारकों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। कोई एक कारण न तो जीतने के पीछे होता है, न ही हारने के पीछे। अत: ऐसे परिवेश में किसी प्रशांत को या किसी रजत को जीत का श्रेय देना हास्यास्पद है। मध्यप्रदेश में जब लगातार दो बार कांग्रेस की सरकार श्री दिग्विजय सिंह के नेतृत्व मे बनी तब नरसिंहगढ़ रियासत के राजा रहे भानुप्रताप सिंह का एक बयान बेहद चर्चित हुआ था। उन्होंने कहा था कि जब तक इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ इलेक्शन टेक्नोलॉजी के प्रिंसिपल दिग्विजय सिंह कांग्रेस के साथ है कांग्रेस हार ही नहीं सकती। श्री सिंह आज भी कांग्रेस में है महासचिव है पर कांग्रेस देश में खोजना पड़ रही है। क्यों, लिखने की आवश्यकता नहीं।
यद्यपि चुनावी नतीजे आए अभी एक ही दिन बीता है। कई राजनीतिक दल गदगद हैं, तो कई मायूस। ऐसे में गंभीर विषयों पर चर्चा का यह समय नहीं है। पर भारतीय राजीनीति के स्वास्थ्य के लिए सभी राजनेताओं को चाहिए कि वे राजनीति की इस नई संस्कृति, नई शब्दावली से बचें, इन्हें हतोत्साहित करें।