सियासत की अपनी अलग इक जुबां है…

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राजनीति को नि:संदेह मानवता, देश तथा समाज के कल्याण हेतु सर्वोत्तम माध्यम कहा जा सकता है। बशर्ते कि राजनीति पूरी तरह ईमानदाराना, पारदर्शी, विकासोन्मुख तथा जन कल्याणकारी हो। ऐसे सांफ सुथरे राजनैतिक वातावरण की उम्मीद भी तभी की जा सकती है जबकि इस पेशे में शामिल राजनीतिज्ञ भी अपने पेशे के प्रति पूरी तरह सिद्धांतवादी ईमानदार, वफादार तथा उत्तरदायी हों। परंतु आज की राजनीति तथा राजनीतिज्ञों की परिभाषा तो कुछ और ही है। आज सत्ता के सर्वोच्च शिखर तक पहुंचने को ही संफल राजनीति का हिस्सा समझा जाने लगा है। आज जनता यह महसूस करने पर मजबूर हो चुकी है कि जो नेता जितना बड़ा चतुर, चालाक, चापलूस, महत्वकांक्षी, स्वार्थी तथा तिकड़मबाज़ है वह उतना ही बडा व सफल नेता है। और जब ऐसे ही लोगों के हाथों में देश की राजनीति चली जाए तो देश, समाज,व मानवता के कल्याण की उम्मीदें रखना सर्वथा बेमानी है। बजाए इसके यही समाज व जनता नकारात्मक राजनैतिक दुष्परिणामों को समय समय पर झेलने के लिए मजबूर रहती है। और इसी दौरान यही नकारात्मक राजनीति के विशेषज्ञ जनता को कुछ दें या न दें परंतु इनकी अपनी पगार, सरकारी ऐशो आराम, जनता के खून पसीने की कमाई से सरकारी खर्च पर की जाने वाली अपनी व अपने परिवार की ऐशपरस्ती में कोई कमी नहीं आने देते।

हालांकि हमारा देश ऐसे सर्वगुण संपन्न नेताओं से भरा पड़ा है। शरद पवार भी देश के ऐसे ही एक ‘विचित्र राजनीतिज्ञ’ का नाम है। महाराष्ट्र में अपनी जबरदस्त पैठ रखने वाले पवार का राजनैतिक संफर भी ‘विचित्र’ है। पवार शुरु से ही कांग्रेस में रहे, फिर कांग्रेस से मतभेद हुआ और अपनी कांग्रेस बनाई। उसके बाद पुन: कांग्रेस में लौटे। फिर जब यह देखा कि कांग्रेस में रहते हुए प्रधानमंत्री के पद तक संभवत: नहीं पहुंचा जा सकेगा तब आपने एक बार फिर कांग्रेस पार्टी यह कह कर छोड़ दी कि सोनिया गांधी विदेशी मूल की हैं और वे एक ‘राष्ट्रवादी’ भारतीय नागरिक होने के नाते उन्हें प्रधानमंत्री बनते नहीं देख सकते। हालांकि उस समय आम लोगों को शरद पवार के इस क़ दम से बड़ी हैरानी इसलिए हुई थी क्योंकि सोनिया गांधी को राजनीति में सक्रिय करने के सबसे अधिक प्रयास शरद पवार द्वारा ही किए गए थे। फिर आंखिर सोनिया की सक्रियता के बाद पवार की नारांजगी के क्या मायने थे।

दरअसल यही तो ‘राजनीति’ है। ख़ासतौर पर शरद पवार जैसे ‘दूरअंदेश’ नेताओं की। वास्तव में पवार सोनिया की राजनीति में सक्रियता केवल इसलिए चाहते थे कि वे कांग्रेस को मंजबूत करें जिसका लाभ शरद पवार को प्रधानमंत्री बनने में मिल सके। परंतु यहां तो उल्टा हो गया। सोनिया गांधी राजनीति में सक्रिय होते ही आम लोगों के दिलों पर धीरे-धीरे राज करने लगीं। जनता में उनकी स्वीकार्यता इंदिरा गांधी तथा राजीव गांधी के राजनैतिक उत्तराधिकारी के रूप में होने लगी। इस प्रकार कुछ ही समय में वे न केवल कांग्रेस बल्कि पूरे देश के राजनैतिक क्षितिज पर छा गईं। पवार ने फिर अपनी राह पकड़ी। कल तक जिस सोनिया की राजनीति में सक्रियता में उन्हें अपना भविष्य उज्‍जवल दिखाई देता था वही सोनिया गांधी अब विदेशी हो गईं और शरद पवार ‘राष्ट्रवादी कांग्रेसी’ बन गए। यहां इस एक मात्र केंद्रीय अवधारणा को अपने जहन में रखने की जरूरत है कि पवार का एकमात्र लक्ष्य प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचना मात्र है।

अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में भाजपा ने इंडिया शाईनिंग का ढिंढोरा पीटा। चुनाव हुए और वाजपेयी की एनडीए सरकार पराजित हुई। धर्मनिरपेक्ष संगठन कांग्रेस के नेतृत्व में एकजुट हुए तथा यूपीए सरकार का गठन हुआ। सोनिया गांधी को कांग्रेस संसदीय दल का नेता कांग्रेस सांसदों ने चुना। सोनिया प्रधानमंत्री पद के बिल्कुल करीब जा खड़ी हुई। उस समय शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस भी इस पूरे घटनाक्रम की भागीदार थी। पवार ने कोई विरोध नहीं किया। यह बात और थी कि अपनी दूरदृष्टि तथा निस्वार्थ राजनीति करने के मद्देनजर सोनिया ने स्वयं प्रधानमंत्री पद स्वीकार करने से इंकार कर दिया। परंतु पवार उस समय सोनिया के पीछे खड़े जरूर दिखाई दिए। कुछ ही समय के बाद इन्हीं स्वयंभू राष्ट्रवादी नेताओं ने यह कहना शुरु कर दिया कि सोनिया गांधी का विदेशी मूल का मुद्दा अब समाप्त हो चुका है। गोया पवार जी जब सीटी बजा दें उस समय सोनिया विदेशी मूल की हो गर्इं और जब पुन: सीटी बजाएं तो वे स्वदेशी मूल की हैं। यानि देश की जनता उनकी सीटी सुनकर उससे कदम ताल मिलाए यह इच्छा रखते हैं पवार जैसे वरिष्ठ राजनीतिज्ञ।

पवार की राजनीति की कुछ और बानगी गौर कीजिए। इन दिनों महंगाई को लेकर काफी शोर-शराबा चल रहा है। पवार देश के कृषि एवं उपभोक्ता मामलों के मंत्री हैं। विपक्षी पार्टिया यूपीए सरकार को बढ़ती मंहगाई के लिए दोषी ठहरा रही हैं। जबकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भारत में बढ़ती मंहगाई को वैश्विक मंहगाई से जोड़कर देख रहे हैं। इसके बावजूद यूपीए सरकार बढ़ती मंहगाई पर लगाम लगाने के अनेक प्रयास कर रही है। इस बीच पवार साहब के वक्तव्य ऐसे आ रहे हैं गोया सरकार के बीच कोई ‘विभीषण’ आकर खड़ा हो गया हो। कभी मंहगाई पर लगाम लगने की समय सीमा बताने को लेकर आप फरमाते हैं कि मैं ज्योतिषी थोड़े ही हूं। तो कुछ ही दिन बाद आप ज्योतिषी की भूमिका भी अदा करते दिखाई देते हैं। और दावा ठोंक देते हैं कि 15 दिन में मंहगाई नियंत्रण में आ जाएगी। कभी चीनी का दाम बढ़ने की भविष्यवाणी करते हैं तो कभी दूध की कीमत में उछाल आने की संभावना व्यक्त करते हैं। जाहिर है जब केंद्र सरकार का एक जिम्मेदार मंत्री ऐसी गैंरंजिम्मेदाराना बातें करे तो ऐसे में व्यापारी वर्ग को प्रोत्साहन मिलता है और वह पवार द्वारा व्यक्त की जाने वाली संभावनाओं को पुष्प अर्पित करते हुए उन वस्तुओं की तत्काल कीमत भी बढ़ा देता है। अब यहां फिर वही सवाल उठता है कि पवार की इस प्रकार की बयानबांजी के पीछे छुपा मंकसद क्या हो सकता है? उस यूपीए सरकार को बदनाम करना जिसका नेतृत्व कांग्रेस पार्टी कर रही है या कुछ और? उधर कांग्रेस प्रवक्ताओं की ओर से बार-बार यह कहा जा रहा है कि पवार जी अपने मंत्रालय के जिम्मेदार वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री हैं तथा उन्हें यह अधिकार है कि वे कैसे मंहगाई जैसी समस्याओं से निपटें। परंतु वे मंहगाई से निपटने के बजाए मंहगाई बढ़ने की भविष्यवाणियों को तरजीह दे रहे हैं।

अब जरा गौर कीजिए पवार से जुड़ी महाराष्ट्र संबंधी राजनीति पर। याद रहे कि ठाकरे एसोसिएटस की शिवसेना ने राहुल गांधी के मुंबई दौरे को बाधित करने की चेतावनी दी थी। उन्हें काले झंडे दिखाने व विरोध प्रदर्शन करने की शिवसेना ने योजना बनाई थी। परंतु राहुल गांधी ने जिस अंदांज से अपनी मुंबई यात्रा पूरी की वह भी पूरे देश ने देखा। उनकी लोकल ट्रेन की यात्रा, ए टी एम से पैसे निकालना व लाईन में खड़े होकर लोकल टे्रन का टिकट लेना व छात्रों से किए गए उनके संवाद ने शिवसेना के हौसले पस्त कर दिए थे। साथ ही साथ राहुल गांधी को उनके बुलंद हौसले के लिए कांफी मुबारकबादें मिली थीं। पूरे महाराष्ट्र राज्य पर राहुल गांधी के मुंबई दौरे का सकारात्मक प्रभाव पड़ा था। राहुल की मुंबई यात्रा के मात्र दो ही दिन बाद शरद पवार उस बाल ठाकरे से मिलने उनके मुख्यालय जा पहुंचे जिसने कि मुंबई के बहाने पूरे राज्य में क्षेत्रवाद व वर्गवाद फैलाने का ठेका ले रखा है। पवार की ठाकरे से हुई इस मुलांकात के फौरन बाद ही ठाकरे का दिमाग फिर सातवें आसमान पर चला गया। उनके शिवसैनिक बाल ठाकरे के पवार द्वारा किए गए महिमा मंडन से उर्जा पाकर शाहरुख़ ख़ान की फिल्म माई नेम इज ख़ान का हिंसक विरोध करने सड़कों पर उतर आए।

आख़िर क्या जरूरत थी ऐसे राष्ट्रविभाजक तत्वों के आगे पवार के घुटने टेकने की? एक केंद्रीय मंत्री होने के नाते उनका ठाकरे के पास जाना केंद्र सरकार का सीधा अपमान है। और वह भी इसलिए गए ताकि ठाकरे आस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों को भारत में क्रिकेट मैच खेलने दें। जरा यहां पवार जैसे राजनीतिज्ञों की राजनीतिक बानगी पर बहुत सूक्ष्म नंजरें रखने की जरूरत है। प्रश्न यह है कि पवार का ठाकरे के पास जाकर गिड़गिड़ाना पवार की मजबूरी या कमजोरी का एक हिस्सा था या फिर वे बाल ठाकरे को यह जताना चाह रहे थे कि पवार की नंजर में ठाकरे अब भी शिवसेना का वह शेर है जिसकी मर्जी के बिना मुंबई या महाराष्ट्र में कुछ भी नहीं किया जा सकता। अब यहां एक और प्रश्न यह उठता है कि पवार ऐसा क्यों प्रदर्शिंत करना चाहते हैं। यहां यह याद करने की जरूरत है कि बाल ठाकरे ने प्रधानमंत्री बनने की दशा में शरद पवार का समर्थन करने की बात कही थी। केवल इसलिए कि पवार मराठी मानुस हैं। ठीक उसी तरह जैसे कि विपरीत राजनैतिक ध्रुव होने के बावजूद शिवसेना ने कांग्रेस की राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार प्रतिभा पाटिल को केवल इसलिए समर्थन दिया क्योंकि वे मराठा परिवार से हैं। शरद पवार ने बाल ठाकरे के समक्ष नतमस्तक हो कर दो और अलग संदेश छोड़ने की कोशिश की है। एक तो यह कि राहुल गांधी बाल ठाकरे की तांकत को मानें या न मानें, उनकी राजनैतिक शख्सियत को अहमियत दें या न दें परंतु पवार तो देंगे ही। और दूसरे यह कि कहीं न कहीं पवार ने यह भी प्रमाणित करने की कोशिश की है कि कांग्रेस के नेतृत्व की सरकारों के दौर में प्रशासन व शासन बिना बाल ठाकरे की मंर्जी के संभवत: महाराष्ट्र में क्रिकेट मैच नहीं करवा सकेगा। आलोचक खुलेआम यह कह रहे हैं कि राहुल गांधी ने अपने मुंबई दौरे से जिस प्रकार बाल ठाकरे व शिसेना के हौसले पस्त किए थे ठीक उसके विपरीत शरद पवार ने मातोश्री में नतमस्तक होकर राहुल के किए कराए पर पानी फेर दिया। शायद राजनेताओं के ऐसे ही नकारात्मक फैसलों से प्रभावित होकर शायर ने कहा है कि –

सियासत की अपनी अलग इक जुबां है। जो लिखा हो इंकरार, इनकार पढ़ना॥

-निर्मल रानी

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