स्त्री की गुलामी का वातावरण है पोर्नोग्राफी

अनेक अर्थों में पोर्न नैतिक मानदण्डों का उल्लंघन करती है। लोगों को स्वायत्त बनाती है। जिन विचारकों ने मालिक-गुलाम के संबंधों के नजरिए से पोर्न पर विचार किया है उनमें एलिसन स्टीयर का नाम प्रमुख है।

स्टीयर का मानना है पोर्न में आमतौर पर औरत अन्य के लिए वस्तु या ऑब्जेक्ट होती है। पोर्नोग्राफी में एक व्यक्ति के शरीर की इच्छा अन्य को होती है। किन्तु बदले में यह चीज नहीं घटती। किसी के साथ सिर्फ शरीर के रूप में व्यवहार करना, वगैर यह सोचे कि उसकी भी इच्छाएं हो सकती हैं ,उसके शरीर का उपयोग करना, किसी के साथ गुलाम की तरह व्यवहार करना, अर्द्ध मनुष्य या कीड़े या वस्तु की तरह देखना वस्तुत: मानवीय गरिमा का अपमान है।

असल में मालिक-गुलाम का संबंध दोनों के लिए नुकसानदेह है। इससे किसी का भला नहीं होता। और न इससे आत्मचेतना का विस्तार होता है, और न भावनाओं को संतुष्टि मिलती है। पोर्नोग्राफी पुरूष को व्यक्तिगत तौर पर क्षतिग्रस्त करती है। उसके लिए वहां औरत सेक्स ऑब्जेक्ट की तरह होती है। सेक्सुअल ऑब्जेक्ट की तरह नहीं होती।यह भी कह सकते हैं कि वह पूरी तरह मौजूद नहीं होती। पुरूष यहां सिर्फ अपन इच्छाएं ही व्यक्त नहीं करता अपितु उसकी अनुभूति को गुलाम बनाकर रखा जाता है।

पोर्नोग्राफी में पुरूष की भूमिका स्त्री पर वर्चस्व स्थापित करने की होती है। वह मानवीय इच्छाओं की संतुष्टि का अस्वीकार भी है। पोर्न मर्द की स्त्री पर राजनीतिक शक्ति में इजाफा करता है। मर्द की स्त्री के साथ अनुभूतियों और संबंधों की गुणवत्ता को नष्ट करता है।सकारात्मक मानवीय अनुभूतियों, संबंधों और आत्मानुभूति से वंचित करता है। कामुकता का वस्तुकरण करता है। उपभोक्ता के रूप में पुरूष की शक्ति में इजाफा करता है। इसमें जरूरी नहीं है कि उसके पास स्वायत्तता और स्वाधीनता हो।

केथरीन मेककीनन ने कांट के नजरिए के आधार पर लिखा कि व्यक्ति मुक्ति और विवेक का प्रतिनिधित्व करता है, उसका अस्तित्व ही इसकी पुष्टि करता है,वह उपकरण बनने से मना करता है। किन्तु पोर्न में औरत अंत में पुरूष के मनोरंजन के लिए ही रहती है।

पोर्न में पुरूष स्त्री को कामुक आनंद के उपकरण के रूप में ही देखता है। स्त्री की इस तरह की प्रस्तुति यह संदेश देती है वह मुक्त और समान है। सबसे बुरी बात यह है पोर्न स्त्री के अमानवीय और उत्पीडि़त रूप को बढावा देता है। इस प्रसंग में मार्थ नुसवाम ने सवाल उठाया है कि क्या कामुक वस्तुकरण नैतिक दृष्टि से हमेशा आपत्तिजनक होता है? अथवा खास संदर्भों में आपत्तिजनक होता है?

लिण्डाली मोंचेक का मानना है पोर्नोग्राफी में सेक्सुअल फैण्टेसी उपभोक्ता के रूप में स्त्री को सम्मान देते हुए उसकी सब्जेक्टिविटी को स्वीकार करती है। साथ ही यह भी बताती है कि स्त्री में इच्छाशक्ति हासिल करने की क्षमता होती है। मुश्किल यह है कि यह फैण्टेसी स्त्री की इच्छाशक्ति का अतिक्रमण कर जाती है। स्त्री ऐसी फैण्टेसी का आनंद भी लेती है जिनमें उसका कामुक शोषण हो रहा है। वह सोचती है कि पुरूष की इच्छाओं की पूर्त्ति कर रही है।

मोंचेक का मानना है काम-व्यापार सिर्फ स्त्री को वस्तु रूप में देखना ही नहीं है। अथवा अमानवीयकरण नहीं है। बल्कि काम-व्यापार जटिल द्वंद्वात्मक प्रक्रिया है। यह सब्जेक्ट और ऑब्जेक्ट यानी मर्द और औरत में घटित प्रक्रिया है। इसमें स्त्री का अमानवीयकरण तभी सफल होता है जब वह भी ऐसा ही सोचने लगे। उत्पीडित महसूस करे,पुरूष की मातहत महसूस करे।

पोर्नोग्राफी के बारे में स्त्रीवादी विचारकों के एक समूह का मानना है उसके खिलाफ सख्त कानून बनाए जाने चाहिए। लेकिन कुछ विचारक ऐसे भी हैं जो पोर्न को कानून व्यवस्था की समस्या के रूप में नहीं देखते। मसलन् नैतिक रूप से जो चीज गलत है उसके खिलाफ कानूनी तौर पर कार्रवाई की जा सकती हो। यह भी संभव है कि जो नैतिक रूप से गलत है किन्तु कानूनी तौर पर उसके खिलाफ कार्रवाई करना संभव ही न हो। दूसरी बात कि स्त्री हिंसाचार पोर्न के कारण ही हुआ है यह दावे के साथ कैसे कहा जा सकता है।

तीसरी बात यह कि अभिव्यक्ति की आजादी के पैमाने के आधार पर पोर्न के बारे में बात नहीं की जा सकती। चौथी बात यह कि पोर्न कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं है। बल्कि उसके बारे में संवाद और सांस्कृतिक आलोचना की सघन प्रक्रिया चलायी जानी चाहिए।

कई स्त्रीवादी यह भी मानते हैं कि सॉफ्ट पोर्न और लेस्बियन पोर्न स्त्री को मातहत नहीं बनाते, स्त्री के मातहत रूप को नहीं दरशाते। बल्कि इस तरह की रचनाएं औरतों को कामुक आनंद देती हैं। कायदे से स्त्री के कामुक आनंद के कामुकता के प्रचलित रूपों के बाहर जाकर नए रूपों की खोज करनी चाहिए।

पोर्न संबंधी कानून संवेनात्मक कामुक सामग्री पर ही लागू हो सकते हैं। राज्य कामुक अल्पसंख्यकों के खिलाफ कार्रवाई कर सकता है। इस तरह की कानूनी कार्रवाई का स्त्रीवादी तीन कारणों के आधार पर विरोध करते हैं। 1. कामुक इमेज सवालों के घेरे में है। जबकि पुंसवादी संस्कृति के अन्य रूप जो इससे भी ज्यादा नुकसानदेह हैं ,उनके बारे में सवाल क्यों नहीं उठाए जाते। 2. प्रत्यक्ष कामुक वक्तृता पुरूष वर्चस्व वाले समाज में भी स्त्री के लिए सकारात्मक सामाजिक भूमिका अदा करती है। 3. पोर्न विरोधी कानूनों के प्रावधान स्त्री के लक्ष्यों के संदर्भ में स्त्री को आगे ले जाने वाले नहीं हैं।बल्कि पीछे ले जाने वाले हैं।

जी.रॉबिन ने लिखा है पोर्नोग्राफी से पलायन नए किस्म की समस्याओं को जन्म दे रहा है, नए कानूनी और सामाजिक दुरूपयोग के रूपों के रूपों को जन्म दे रहा है। दण्ड का नया विधान रचा जा रहा है। इसके बहाने लोगों को निशाना बनाया जा रहा है।

जूडी बटलर ने लिखा सेक्स के चित्रण या नकल से स्थापित कामुकता प्रभावित हो सकती है। प्रस्तुति और प्रभावित होने वाले के बीच जटिल संबंध होता है। कायदे से प्रस्तुति और ज्ञानात्मक आधार पर सवाल उठाए जाने चाहिए। हमें इस सवाल पर भी सोचना चाहिए कि फोटो कैसे सामाजिक भूमिकाएं निर्मित करता है? फोटो की प्रस्तुतियों में यदि कटौती की जाती है तो किस तरह की नई सामाजिक भूमिकाएं जन्म लेती हैं? और किस तरह ‘अनडिस्टर्व’ को संरक्षण दिया जा सकता है? यथार्थ के प्राथमिक रूपों को कैसे सामने लाया जा सकता है?

बटलर का मानना है कि कुछ खास तरह की इमेजों और फैंटेसी की प्रस्तुतियों का ही नियंत्रण संभव है। उन्हीं का पुनर्रूत्पादन और सम्प्रसार संभव है। यह संप्रसार फैंटेसियों के माध्यम से ही संभव है। फैंटेसी के उत्पादन का प्रतिबंध के साथ अन्तर्विरोध है।यदि घरेलू कामक इमेजों पर पाबंदी लगाते हैं तो उनका उत्पादन और प्रसार बढ़ेगा।बटलर ने लिखा कि स्त्रीवादी सैद्धान्तिकी और राजनीति स्त्री की प्रस्तुतियों को किसी भी तरह नियम बनाकर या कानून बनाकर रोक नहीं सकती। कायदे से वैविध्यमय प्रस्तुतियों को बढावा दिया जाना चाहिए।यदि किसी कारण वैविध्यमय प्रस्तुतियों में असमर्थ है तो ऐसी स्थितियों में उसके खुले निर्माण की सुरक्षित व्यवस्था की जानी चाहिए।चाहे इन केटेगरी के लिए कोई भी जोखिम क्यों न उठाना पड़े। ‘रील सेक्स’ या फोटोजनित सेक्स को कामुकता के विकल्पों के जरिए चुनौती दी जानी चाहिए।

डी. कारनेल का मानना है कि हमें कानूनी कार्रवाई की बजाय राजनीतिक कार्रवाई करनी चाहए।इसका मूल लक्ष्य पोर्नोग्राफी के उत्पादन में हस्तक्षेप करना है। राजनीतिक कार्रवाई का अर्थ है कि स्त्रीवादियों को पद्योग में अपना मोर्चा बनाना चाहिए। जिससे कामुकता के प्रतिनिधित्व को सामने लाया जा सके। स्त्रीवादी कार्रवाई को ” स्त्रीवादी इमेजरी को निशाना बनाना चाहिए न कि मर्द के नियंत्रण को।” पोर्न के खिलाफ कानूनी कार्रवाई के जितने भी तर्क दिए जा रहे हैं वे सब पुराने हैं। पुराना तर्क क्या है? तर्क है स्त्री असुरक्षित होती है।उसे संरक्षण की जरूरत है। यह नजरिया अब अप्रासंगिक हो गया है। इसके आधार पर कानून बनाने के प्रयास व्यर्थ साबित होंगे।

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

1 COMMENT

  1. भाई चतुर्वेदी जी,
    समसामयिक विषय पर सारगर्भित लेखन हेतु हार्दिक बधाई. इसके एक उपेक्षित आयाम पर कुछ कहना चाहूँगा .
    मनुष्य के भीतर दैवी, दानवी दोनों तरह के गुण- दुर्गुण विद्यमान हैं. जैसा वातावरण मिलता है वेसा चिंतन- मनन चलता है, उसी के अनुसार सारा व्यक्तित्व और विचार निर्मित होने लगते हैं, उसीके अनुसार हार्मोनल सेक्रेशन होने लगती है. पोर्नोग्राफी यानि कामुकता के अत्यधिक चिंतन के कारण’ काम’ हार्मोन अत्यधिक मात्र में स्रावित होकर शरीर तथा स्नायु कोशों के संतुलन को विकृत बनाने लगते हैं. शारीरिक, बौधिक क्षम्त्यें घटने के साथ जीवनी शक्ति का अपार क्षय होजाता है.तभी तो इस प्रकार के लोग आसानी से एड्स जैसे रोगों के आसानी से शिकार बनजाते हैं.
    अतः मानव विकास में सहायक बनाने वाला वातावरण देना ही एक अछे समाज की पहचान है. भारत के समाज दर्शन में इन सब बातों पर गहराई से विचार हुआ है जबकि पश्चिम इस मामले में कंगाल है. अतः होना वही चाहिए जिससे मानव के दैवीय गुण विकसित हों न कि दानवी दुर्गुण. पोर्नोग्राफी दानवता की ओर लेजाने वाली, दानवी सोच से उपजी व्यवस्था है . पशुता से भी गिरे व्यवहार को बढ़ावा देनेवाली है. अतः इसे बढ़ावा देने का अर्थ है एक बीमार, दानवी समाज की रचना जानबूझकर करना.
    एक ख़ास बात यह भी है की ‘ पोर्न ‘ व्यापार से अरबों की कमाई करनेवाली ताकतें ही इन प्रयासों की जनक और संरक्षक हैं.

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