सवाल उठाती पॉस्को को हरी झण्डी

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प्रमोद भार्गव

केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्री जयराम रमेश को आखिरकार पास्को परियोजना को मंजुरी देनी ही पड़ी। क्योंकि प्रधानमंत्री कार्यालय का उन पर दबाव था। 54000 करोड़ रुपये की इस स्टील परियोजना को नहीं लगाने की सलाह वनमंत्रालय की तीन-तीन समितियां दे सलाह दे चुकी है। खुद जयराम रमेश इस परियोजना का औचित्य पर कई सवाल खड़े कर चुके है। उन्हीं का कहना था कि कंपनी की प्रतिच्छाया में स्थानीय आदिवासियों की अनदेखी की जा रही है लेनिक अब इन्हीं रमेश ने प्रभावित ग्राम धिकिया और गोविंदपुर ग्राम पंचायतों के उन लोगों की आवाज को ठेंगा दिखा दिया जो पास्को प्रतिरोध संग्राम समिति के माध्यम से कंपनी का विरोध करते रहे है।

दक्षिण कोरियाई पोहंग स्टील कंपनी को केंन्द्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय द्वारा मिली हरी झण्डी ने साबित कर दिया है कि हमारे औद्योगिक और आर्थिक विकास का दारोमदार उचित आर्थिक नीतियों पर नहीं, बल्कि प्राकृतिक संपदा के अकूत दोहन पर टिका है। पॉस्को परियोजना के मातहत भारत में काम करने वाली उसकी पॉस्को इंडिया कंपनी कुल 1.2 करोड़ टन इस्पात का सालाना निर्माण करने वाली क्षमता का संयंत्र विकसित करेगी। इसके शुरुआती चरण में ही एक साल में 40 लाख टन लोहे का उत्पादन शुरु हो जाएगा। इस कारखाने को संपूर्ण राक्षसी वजूद में आने के लिए 162049 हेक्टेयर वन और आबाद भूमि की जरुरत होगी। जिसमें से महज 1253 हेक्टेयर वनभूमि है। आवासीय भूमि को औद्योगिक भूमि में तब्दीलीकरण के लिए कुजांग तहसील की तीन ग्राम पंचायतों के आठ गांव विस्थापित होंगे और जिस जटाधरमोहन नदी के तट पर यह इस्पात संयंत्र लगेगा वह कुछ ही सालों में बरबाद होकर गंदे नाले में बदल जाएगी। इस संयंत्र स्थापना से प्रत्यक्ष पूंजी निवेश में तो बढ़ोत्तरी होगी ही, हो सकता है कुछ काल-विशेष में औद्योगिक और आर्थिक विकास दरें भी उछाल मारती नजर आएं। लेकिन महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार थामने की कवायद में यह संयंत्र कोई कारगर उपाय साबित होगा इसकी कोई गारंटी नहीं है।

पांच साल से लटकी पॉस्को परियोजना को मिली मंजूरी ने तय कर दिया है कि भारत सरकार न केवल बहुराष्टीय कंपनियों के दबाव में है, बल्कि वह दक्षिण कोरिया के पर्याप्त कूटनीतिक दबाव में भी है। वरना जिस परियोजना को जल, जंगल और जमीन के पर्यावरणीय विनाश का कारण बताते हुए दो-दो समितियां इंकार कर चुकी हों, उनकी रपटों को नजरअंदाज कर परियोजना को मंजूर करने का क्या औचित्य है ? ओड़ीसा सरकार और पॉस्को के बीच 22 जून 2005 को समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर हुए थे। यह परियोजना अक्तूबर 2010 में पर्यावरण और वन मंत्रालय के जांच के दायरे में आ गई थी, जब पूर्व पर्यावरण सचिव मीना गुप्ता और एन.सी.सक्सेना की अध्यक्षता वाली समीक्षा समितियों ने इसे खारिज कर दिया था। क्योंकि इसके वजूद में आने पर स्थानीय पर्यावरण पर तो प्रतिकूल असर पड़ेगा ही आठ ग्रामों के ग्रामीणों की कृषि और उनकी व उनके पालतू पशुओं की जंगल पर निर्भरता भी प्रभावित होगी।

पॉस्को की मंजूरी ने यह भी साफ कर दिया है कि भूमि अधिग्रहण के जबरदस्त विरोध के चलते पॉस्को के साथ झारखण्ड में प्रस्तावित आर्सेलर मित्तल इस्पात परियोजना भी पांच साल से लटकी हुई थी, अब उसे भी जीवनदान मिलना तय है। पॉस्को का विरोध ‘पॉस्को प्रतिरोध संग्राम समिति’ कर रही है। इन विरोधों के परिप्रेक्ष्य में भारत सरकार के वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने कहा था कि परियोजनाओं को बंद करने की बजाए, विस्थापितों को उनके जीवन-यापन के लिए वैकलिपक स्त्रोत मुहैया कराने चाहिए, क्योंकि उनकी समस्याओं का हल परियोजनाओं को बंद करने में निहित नहीं हैं। यह फॉर्मूला देश के आर्थिक विकास के नजरिए से भी हितकारी साबित होगा। किंतु यहा तो चार हजार लोगों की रोजी – रोटी के माध्यमों को ही विदेशी कंपनी को बेच दिया गया है। जाहिर है समिति का विरोध उग्र होगा और सरकार पास्को का पक्ष लेगी। लिहाजा टकराव और कटुता के हालात बनना तय हैं। जयराम रमेश तो धिंकिया ग्राम पंचायत के सरपंच और पास्को प्रतिरोध संग्राम समिति के सचिव शिशिर महापात्र के खिलाफ कानूनी कार्यवाही की पैरवी पहेले ही कर चुके है। इससे साफ होता है कि केंद्र सरकार और उनके नुमांदिों को आदिवासियों के हितों की सुरक्षा का कोई ख्याल नहीं है।

इस फॉर्मूले को आगे बढ़ाते हुए भारत सरकार ने प्रणव मुखर्जी की अध्यक्षता में ही एक समिति का गठन इस मकसद से किया था कि वह खनिज परियोजनाओं से होने वाले मुनाफे का एक हिस्सा परियोजनाओं के विस्थापितों को दे। कुल लाभांश में से 26 फीसदी लाभांश विस्थापितों को बकायदा अनुबंध के तहत देने की बात कही गई थी। यही नहीं प्रत्येक विस्थापित परिवार के एक सदस्य को कंपनी में नौकरी देने का दावा भी किया गया था। इस हेतु एक विधेयक लोकसभा में लाया जाना था। लेकिन सरकार ने विधेयक के प्रारुप को तैयार कर उसे लोकसभा में पारित कराने की जल्दी जताने की बजाए विवादित परियोजनाओं को मंजूरी देदी। जाहिर है देर-सबेर आर्सेलर मित्तल को भी लोहे के उत्खनन की मंजूरी मिल जाएगी।

हालांकि पॉस्को को भारत सरकार ने शुध्द लाभ का दो प्रतिशत हिस्सा सामाजिक दायित्व निर्वहन कोष में देने को कहा है, लेकिन कंपनी इसके लिए बाध्यकारी नहीं है। क्योंकि कंपनी इस कोष में धन तब देगी जब वह मुनाफा कमाने लगेगी। कंपनियों के लाभ-हानि, बही खातों के ऐसे समीकरण हैं जो लाभांश बमुश्किल दर्शाते हैं। बल्कि घाटा दर्शाकर राष्टीयकृत बैंकों और रॉयल्टी का भी करोड़ो-अरबों रुपए बाला-बाला डकार जाते हैं। हालांकि कंपनी के प्रबंध निदेश जी डब्लयू संग ने भरोसा जताया है कि वे स्थानीय समुदाय के कल्याण के लिए कंपनी की आमदनी का एक हिस्सा देंगे। लेकिन वादों पर अमल जब केंद्र और राज्य सरकारें नहीं करतीं तो शुध्द व्यापार के लिए आई कंपनी के प्रबंध निदेशक की बात पर भरोसा कैसे किया जाए ?

चूंकि पॉस्को की स्थापना को लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की दिलचस्पी और ओड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की बेतावी थी, इसलिए जयराम रमेश को भी कहना पड़ा कि पॉस्को का आर्थिक, तकनीकी और सामरिक महत्व है। क्योंकि परियोजना के मातहत 1.2 करोड़ टन इस्पात उत्पादन क्षमता का कारखाना तो लगेगा ही, परमाणु बिजलीघर और पॉस्को लघु बंदरगाह भी बनेगा। बिजली घर को 28 शर्तों और बंदरगाह को 32 शर्तों के साथ निर्माण की मंजूरी दी गई है। इन शर्तों का पालन कराना राज्य सरकार की जवाबदारी है। पर्यावरण और वन संरक्षण संबंधी शर्तों के साथ प्रभावित ग्रामों का भूमि अधिग्रहण और विस्थापितों का समुचित पुनर्वास कराये जाने का दायित्व भी राज्य सरकार निभायेगी। शर्तों का उल्लंघन न हो, प्रभावितों के हितों की पूर्ति हो, प्रदूषण नियंत्रित रहे और विस्थापितों को अच्छा मुआवजा मिले इन शर्तों का पालन कराने का दायित्व भी राज्य सरकार पर है। पॉस्को से यह उम्मीद भी की गई है कि वह परियोजना द्वारा अधिगृहीत की जाने वाली भूमि के एक चौथाई हिस्से में हरित पट्टी बनाए, जल संग्रह के उपाय करे और प्रभावित क्षेत्र के ग्रामीण्ाों को शुध्द पेयजल उपलब्ध कराए। तय है ये शर्ते केवल कागजी संतुष्टिभर हैं। ऐसी शर्तों के पालन के लिए भारत में कभी देशी-विदेशी कंपनियों को बाध्यकारी नहीं बनाया गया। इसलिए ये शर्तें महज छलावा हैं। पॉस्को के तात्कालिक लाभ भले ही प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश और आर्थिक विकास दर में लाभकारी सिध्द हों, इसके दीर्घकालिक परिणाम तो अटाटूट प्राकृतिक संपदा के दोहन, नदी-जल के प्रदूषण, जंगलों के विनाश और विस्थापितों को लाचार बना देने के हालातों के रुप में ही सामने आएंगे। भूमि अधिग्रहण में हठवादिता अपनाई जाती है तो कुजांग तहसील के इस क्षेत्र को सिंगूर, नंदीग्राम और जैतापुर बनने में भी देर नहीं लगेगी ?

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